तुलनात्मक राजनीति विश्लेषण के परंपरागत उपागमों में ऐतिहासिक उपागम, कानूनी औपचारिक उपागम और संस्थात्मक उपागम विशेष रूप से महत्वपूर्ण है। ये दोनों एक दूसरे के साथ निकट से जुड़े हैं। अतः इन तीनों पर एक साथ विचार करना उपयुक्त होगा।
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तुलनात्मक राजनीति के ऐतिहासिक उपागम
इस उपागम के अंतर्गत भिन्न-भिन्न राज्यों की शासन प्रणालियों के ऐतिहासिक विवरण तैयार करके उनकी तुलना करते है और यह पता लगाते है कि हमें अपने वर्तमान लक्ष्यों की सिद्धि के लिए और संभावित त्रुटियों के निवारण के लिए कौन-कौन से उपाय करने चाहिए? ऐतिहासिक उपागम के संस्थापकों में इतावली विचारक निकोली मेकियावेली (1469-1527), फ्रांसीसी दार्शनिकों – चार्ली द मांतेस्क्यू (1689-1755) तथा अलेक्सी द ताकवील (1805-59) और अंग्रेज विचारकों वाल्टर बेजहॉट (1826-77) तथा हेनरी सम्नरी मेन(1822-88) के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इन विचारकों ने तुलनात्मक राजनीति-विश्लेषण के ऐतिहासिक उपागम को अपना कर जो निष्कर्ष निकाले, वे राजनीति-सिद्धांत की मुख्य धारा का अंग बन गए है।
यह बात महत्वपूर्ण है कि ऐतिहासिक उपागम के अंतर्गत तथ्यों का अन्वेषण और प्रयोग किया जाता है। इसमें यह कमी हो सकती है कि हम पूरे तथ्य एकत्र न कर पाएं या सीमित क्षेत्र या काल से जुड़े हुए तथ्यों के आधार पर कोई निष्कर्ष निकालने की कोशिश करें जो पूरी तरह सही न हों यदि इन कमियों को दूर कर दिया जाए जो ऐतिहासिक उपागम तुलनात्मक राजनीति के | अध्ययन में बहुत उपयोगी सिद्ध हो सकता है। फिर समकालीन संदर्भ में अनुभवमूलक पद्धति से तुलनात्मक राजनीति के अंतर्गत जो निष्कर्ष निकाले जाते है, उनकी पुष्टि के लिए ऐतिहासिक सामग्री का प्रयोग बहुत लाभदायक हो सकता है। परंतु ध्यान रहे कि ऐतिहासिक सामग्री का संकलन करते समय हमारा ध्यान केवल शासक वर्ग की गतिविधियों तक सीमित नहीं रखना चाहिए, बल्कि तत्कालीन सामाजिक-आर्थिक परिस्थिति, सांस्कृतिक चेतना के स्तर, जनसाधारण की भावनाओं और आंदोलनों के बारे में भी पूरा विवरण अवश्य तैयार करना चाहिए।
देखा जाए तो ऐतिहासिक उपागम तुलनात्मक राजनीति के अध्ययन में आधुनिक उपागमों के लिए महत्वपूर्ण पूरक भूमिका निभा सकता है। उदाहरण के लिए यदि हम भारत, ब्रिटेन अमरीका, रूस या चीन की वर्तमान राजनीति का तुलनात्मक अध्ययन करना चाहते है तो इन देशों की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि का ज्ञान जरूरी होगा। तुलनात्मक राजनीति के आधुनिक उपागम के अनेक समर्थक किसी देश की राजनीति के विश्लेषण के लिए वहां की राजनीतिक संस्कृति का अध्ययन जरूरी समझते है। राजनीतिक संस्कृति के अंतर्गत उस देश में प्रचलित ऐसे मूल्यों, मान्यताओं और मानकों का अध्ययन किया जाता है जो शासक-वर्ग, शासन-प्रणाली और शासन प्रक्रिया की वैधता प्रदान करते है, अर्थात् उसे लोगों की दृष्टि में उचित यो युक्तियुक्त ठहराते है। जाहिर है, किसी देश की राजनीतिक संस्कृति की जानकारी के लिए उसके इतिहास के पन्ने पलटना जरूरी होगा। उदाहरण के लिए, भारतीय इतिहास की जानकारी के बिना भारत की राजनीतिक संस्कृति के बारे में कोई राय बनाना व्यर्थ होगा। इसी प्रकार, भारतीय राजनीति के अंतर्गत राष्ट्रीय लक्ष्यों की जानकारी के लिए स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास तथा तिलक, गोखले, गांधी, नेहरू इत्यादि के चिंतन से परिचित होना जरूरी होगा। इतना नहीं, भारत की राजनीतिक संस्थाओं और राजनीतिक दलों के व्यवहार को समझने के लिए इनके ऐतिहासिक विकास की जानकारी लाभदायक होगी।
तुलनात्मक राजनीति के कानूनी – औपचारिक उपागम
इस उपागम के अंतर्गत भिन्न भिन्न देशों में प्रचलित संविधानों के आधार पर वहां की शासन प्रणालियों के संगठनात्मक ढांचों, शासन के अंगों की कानूनी शक्तियों और उनकें परस्पर संबंधों का विश्लेषण किया जाता है, और जहां आवश्यक हो, वहां संगठनात्मक सुधार के उपायों पर विचार किया जाता है। उदाहरण के लिए, ब्रिटिश शासन प्रणली के अंतर्गत लार्ड सभा के पुनर्गठन के प्रस्ताव इस उपागम की देन है। इस उपागम के प्रवर्तकों में वुडरो विल्सन, ए.वी. डाइसी, जेम्स ब्राइस, के.सी. ह्रीयर, हर्मन फाइनर, आइवर जैनिंग्स, कार्ल फैड्रिक और काली लोएंस्टाइन के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है।
आज के व्यवहारवादी राजनीति वैज्ञानिक कानूनी औपचारिक उपागम के विरूद्ध यह तर्क देते है कि शासन के बाहरी ढांचे या कानून से संबंधित अंगों के अध्ययन से किसी देश की यथार्थ राजनीति को सही-सही समझना मुश्किल है। परंतु यह नहीं भूलना चाहिए कि किसी देश का संविधान वहां की राजनीति के लिए वैध ढांचा प्रस्तुत करता है। संविधानों के निर्माण, संशोधन और व्याख्या के क्षेत्र में कानूनी औपचारिक उपागम की देन अत्यंत उपयोगी सिद्ध होती है। नवोदित राष्ट्रो की राजनीति को नियमित करने के लिए तो यह और भी महत्वपूर्ण है। तुलनात्मक राजनीति के अध्ययन का कानूनी औपचारिक उपागम अपने आप में अधूरा तो है, परंतु उसे इसके अध्ययन क्षेत्र से निकाल देना संगत नहीं होगा। किसी देश का संविधानिक कानून वहां की आंतरिक राजनीति के लिए आवश्यक मानदंड निर्धारित करता है, और अंतर्राष्ट्रीय कानून अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के संदर्भ में यही भूमिका निभाता है। उदाहरण के लिए, भारतीय राजनीति के अध्ययन में भारत के संविधान की जानकारी जरूरी समझी जाती है, और संविधान की व्याख्या करते समय न्यायालयों द्वारा कानूनी दृष्टिकोण को प्रमुखता दी जाती है। राज्य के विभिन्न अंगों विधानमंडल, कार्यपालिका और न्यायपालिका की अपनी-अपनी शक्तियां और उनकें परस्पर संबंध, मूल अधिकारों और राज्य नीति के निदेशक सिद्धांतों की आपेक्षिक स्थिति, इत्यादि से संबंधित प्रश्न कानून की परिधि में आते है, और इनका विवेचन राजनीति के अध्ययन में सहायता देता है। परंतु इसमें संदेह नहीं कि तुलनात्मक राजनीति का विद्यार्थी अपना ध्यान इन्हीं प्रश्नों तक सीमित नहीं रख सकता।
तुलनात्मक राजनीति के संस्थापक उपागम
तुलनात्मक राजनीति का संस्थापक उपागम इसके कानूनी औपचारिक उपागम के साथ निकट से जुड़ा है। फिर भी यह उससे भिन्न है। यह बात महत्वपूर्ण है कि परंपरागत उपागमों में केवल संस्थापक उपागम ऐसा उपागम है जो राजनीति को दर्शनशास्त्र, इतिहास या कानून का उपाश्रित न मानते हुए इसके स्वाधीन अस्तित्व को मान्यता देता हैं।
परंपरागत राजनीतिशास्त्र के अतंर्गत राज्य और शासन को अध्ययन का मुख्य विषय माना जाता है। शासन या सरकार स्वयं एक संस्था है, और इसकें विभिन्न अंग जैसे कि संसद (विधायिका), मंत्रिमंडल (कार्यपालिका) और सर्वोच्च न्यायालय (न्यायपालिका), इत्यादि भी अपनी-अपनी तरह की संस्थाएं है। राजनीतिक दल वैसे तो गैर-सरकारी संगठन है, परंतु वे राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते है। दूसरी ओर, अधिकारितंत्र गैर-राजनीतिक संगठन है, परंतु वह सरकार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। संस्थात्मक उपागम के अंतर्गत इस तरह की भिन्न-भिन्न संस्थाओं के संगठन और भूमिका का विस्तृत अध्ययन किया जाता हैं। जहां कानूनी औपचारिक उपागम के अंतर्गत केवल शासन के विभिन्न अंगों की कानूनी स्थिति और शक्तियों पर ध्यान केंद्रित किया जाता है, संस्थात्मक उपागम के अंतर्गत शासन और राजनीति से जुड़ी सारी संस्थाओं के संगठन और भूमिका पर विचार किया जाता है। परंतु इस उपागम के अंतर्गत संस्थाओं पर ध्यान केंद्रित करते समय व्यक्तियों के व्यवहार की उपेक्षा की दी जाती है। अतः मतदान व्यवहार, विधायकों के व्यवहार और न्यायाधीशों के व्यवहार जैसे विषय इसके विचारक्षेत्र में नहीं आते। फिर, इस उपागम के अंतर्गत वर्तमान संस्थाओं की स्थिरता पर आस्था रखते हुए हिंसा या इसकी संभावनाओं, राजनीतिक उथल-पुथल और आंदोलनों, युद्ध एवं क्रांति के तत्वों की ओर विशेष ध्यान नहीं दिया जाता। इसके अलावा, इसमें अनौपचारिक समूहों की भूमिका की अनदेखी की दी जाती है। हालांकि वे समूह वास्तविक राजनीति को दूर-दूर तक प्रभावित करते हैं। इन्हीं कमियों के कारण संस्थापक उपागम को आधुनिक उपागमो की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता ।
परंतु आज ये युग में भी संस्थात्मक उपागम के समर्थक इसके गुणों की ओर हमारा ध्यान खींचते है। वे यह तर्क देते है कि जिन देशों में शासन अंगों और शासन प्रणालियों का संगठन एक ही ढंग से किया गया हो, उनमें एक प्रणाली के अनुभव के आधार पर दूसरी प्रणाली की विशेषताओं को समझना सरल हो जाता है। उदाहरण के लिए, भारत में ब्रिटेन जैसी संसदीय शासन प्रणाली अपनाई गई है। अतः ब्रिटिश संसदीय प्रणाली की उपयुक्त जानकारी प्राप्त करके भारत की शासन प्रणाली की समझने में पर्याप्त सहायता मिलती है। इसी तरह संयुक्त राज्य अमरीका की संघीय प्रणाली की जानकारी के आधार पर भारत की संघीय प्रणाली का विश्लेषण करना सरल हो जाएगा। यदि इस संस्थात्मक उपागम से हटकर कुछ देशों की सार्वजनिक नीति या राजनीतिक व्यवहार पर ध्यान केन्द्रित करने लगें तो इससे अन्य देशों की स्थिति को समझने में कोई सहायता नहीं मिलेगी। उदाहरण के लिए, ब्रिटेन की आवास नीति की जानकारी होने पर हमें भारत की आवास नीति को समझने में विशेष सहायता नहीं मिलेगी। इसी तरह ब्रिटिश मतदाताओं . के व्यवहार की जानकारी के आधार पर भारतीय मतदाताओं के व्यवहार के बारे में कोई राय बनाना मुश्किल होगा।
फिर, संस्थापक उपागम से हमें वर्तमान संस्थाओं के मार्ग में आने वाली बाधाओं को दूर करने के लिए भी उपयुक्त अतंर्दृष्टि प्राप्त हो सकती है। उदाहरण के लिए, पिछले कुछ दशकों में भारत में बहुदलीय प्रणाली के उदय के कारण जो राजनीतिक अस्थिरता पैदा हो गई है, उसके समापन के लिए कई जगह इस प्रश्न पर विचार किया जा रहा है कि क्या यहां संयुक्त राज्य अमरीका – जैसी अध्यक्षीय शासन प्रणाली को अपनाना उपयुक्त होगा? प्रस्तुत संदर्भ में फ्रांसीसी या जर्मन प्रणाली की कुछ विशेषताओं को अपनाने का सुझाव भी दिया जा सकता है। इन सत्र विकल्पों पर विचार करने के लिए संस्थापक उपागम का सहारा लेना जरूरी हो जाता है।
कुछ भी हो, संस्थापक उपागम को अपनाने में कई कठिनाइयों का सामना भी करना पड़ता है। उदाहरण के लिए, भूतपूर्व सोवियत समाजवादी गणराज्य संघ का संस्थात्मक ढांचा उस राष्ट्र की राजनीतिक मनोदशा का सही-दर्पण कभी नहीं रहा। 1985 के बाद जब वहां जनसाधारण पर राज्य के कड़े नियंत्रण में ढील दी गई तब लोगों के व्यवहार में ऐसे परिवर्तन सामने आए जिनसे वहां की राजनीतिक संस्थाओं का ढांचा चरमरा गया। कोई भी सरकार जनसाधारण में अंधविश्वास, आतंक य कई तरह के भ्रम फैलाकर कुछ समय के लिए कुछ तर्कशून्य संस्थाओं को कायम रख सकती हैं, परंतु ऐसी संस्थाएं चिरस्थायी नहीं हो सकतीं। अतः यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि संस्थात्मक उपागम मुख्यतः मुक्त समाजों के अध्ययन के लिए अधिक उपयुक्त है। इन समाजों में शासन से संबंधित जानकारी को दुनिया से छिपाकर नहीं रखा जाता, जनसाधारण को अभिव्यक्ति और राजनीतिक गतिविधि की पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त होती हैं, और शासन स्वयं जनमत के प्रति संवेदनशील होता है। फिर भी, केवल संस्थाओं के विश्लेषण से अंतिम निष्कर्ष नही निकाल लेना चाहिए। इनके अलावा प्रस्तुत देश की राजनीतिक संस्कृति, जनसाधारण की शिक्षा और आधुनिकीकरण के स्तर, विशिष्ट वर्गों की संरचना, इत्यादि को भी संस्थात्मक विश्लेषण के साथ मिलाकर उपयुक्त निष्कर्ष पर पहुँचना चाहिए। इसके लिए तुलनात्मक राजनीति के आधुनिक उपागमों की ओर अग्रसर होना जरूरी हो जाता है।
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