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तुलसी लोक समन्वय के कवि हैं। या तुलसीदास लोकमानस के कवि हैं। या तुलसीदास समन्वय भावना के कवि हैं।
लोकनायक वही हो सकता है जो समाज के मनोविज्ञान को भलीभाँति समझ सके, वह प्राचीनता का संस्कार कर, उसमें अपनी नवीन विचारधारा का मिश्रण कर उसे इस रूप में ढाल देता है जिसमें सम्पूर्ण समाज का कल्याण होकर उसे सन्तोष और शांति प्राप्त होती है। भौतिक बल के आधार पर कोई व्यक्ति लोक-शासक तो हो सकता है परन्तु लोकनायक नहीं। शासक से जनता प्रायः भयभीत और दूर रहती है जबकि लोकनायक जनता की श्रद्धा का भजन होती है। शासक का अधिकार केवल तन पर ही रहता है, परन्तु लोकनायक का अधिकार तन और मन दोनों पर रहता है। इसी से इसका प्रभाव अधिक स्थायी, दृढ़ और स्नेहसिक्त होता है। लोकनायक स्वयं त्याग कर समाज की श्रद्धा, प्रेम और सम्मान प्राप्त करता । अकबर और तुलसी दोनों समकालीन थे। अकबर लोकशासक था और तुलसी लोकनायक । अकबर का केवल ऐतिहासिक महत्त्व मात्र अवशिष्ट है और तुलसी आज भी हिन्दू समाज के कर्णधार का आसन ग्रहण किये हुए हैं। यही दोनों में अन्तर है। साथ ही लोकनायक का पद उस व्यक्ति को प्राप्त होता है जो सामाजिक परिस्थितियों का सम्यक् अध्ययन कर प्रचलित ऐसी मान्यताओं को, जो समाज के लिए घातक हो उठती हैं, मानने से स्पष्ट मना कर देता है। उसमें प्रगतिशीलता की भावना होती है। वह उन प्रचीन मान्यताओं का निराकरण कर समय के अनुकूल उचित नवीन मान्यताओं की स्थापना करता है तुलसी ने यही किया था। इसी से सुप्रसिद्ध समाजवादी आलोचक डॉ० रामविलास शर्मा तुलसी को प्रगतिशील साहित्यकार की संज्ञा से विभूषित करते हैं। जो साहित्यकार, प्राचीन हो अथवा नवीन, आधुनिक प्रगतिशील और लोक-नायकत्व का वास्तविक अधिकारी माना जा सकता है। तुलसी ने यह प्रशंसा और सहानुभूति प्राप्त की है।
डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदी ने ठीक ही कहा “लोकनायक तुलसीदास को जो अभूतपूर्व सफलता मिली उसका कारण यह था कि वे समन्वय की विशाल विचारधारा लेकर चले। जीवन के विभिन्न अंगों का तुलसीदास समन्वय कर सके उसका कारण यह था कि वे नाना प्रकार के सामाजिक स्तरों का भोग कर चुके थे। उन्होंने नाना पुराण निगमागम का अध्ययन किया था और साथ ही जन-मानस में प्रचलित लोक-साहित्य और साधना के स्वरूप को पहिचाना था। लोक और साहित्य दोनों का उन्हें व्यापक ज्ञान था। इस व्यापक ज्ञान को उन्होंने अपने तक ही सीमित रखा अपितु लोकभाषा से उन्होंने राम साहित्य के रूप में लोकधर्म के साहित्य का सृजन किया। पण्डित लोग जिस ज्ञान को जन पृथक नहीं बनाना चाहते थे तुलसी ने उसका द्वार सभी के लिए खोल दिया। लोक-भाषा में रचित उनके ग्रन्थों ने ज्ञान, भक्ति और कर्म के समुचित स्वरूप को लोकहित के रूप में प्रतिष्ठित किया । सरस्वती के इस वरद पुत्र ने अपनी ‘गिरा’ का उपयोग केवल जनकल्याण के लिए ही किया । उनका सारा काव्य समन्वय की विराट चेष्टा है । ‘रामचरितमानस’ शुरू से आखिर तक समन्वय का काव्य है। अब हम तुलसी के समन्वयात्मक कतिपय स्थलों पर विचार करेंगे। तुलसी ने जीवन के लगभग सम्पूर्ण क्षेत्रों का उदात्त प्रयास किया है। उसे हम अध्ययन की सुविधा के लिए सोपानों में विभाजित करके विवेचना करेंगे-
(1) दर्शन और धर्म के क्षेत्र में समन्वय- तुलसी भक्त पहले थे कवि पीछे। अतः उनके काव्य के मूल भक्त हृदय की पुकार भी स्पंदित है। इस क्षेत्र में तुलसी ने ज्ञान और भक्ति में समन्वय, जीव और ब्रह्म में समन्वय, निर्गुण-सगुण में समन्वय, शैव और वैष्णव में समन्वय, प्राचीन और में नवीन के बीच समन्वय तथा नीति और आचार में समन्वय का अथक प्रयास किया है।
(2) जीव और ब्रह्म में समन्वय- तुलसी ने जीव और ब्रह्म को पृथक सत्ता के रूप में चित्रित नहीं किया, प्रत्युत जीव को ब्रह्म का ही अंश स्वीकार किया है।
ईश्वर अंश जीव अविनासी । चेतन अमल सहज सुखरासी ।।
इस प्रकार जीव के ब्रह्म के साथ सहज रूप में समन्वित करके बिन्दु-सिन्धु सदृश एक रूप कर दिया। ब्रह्म को विभीषका का पिंड उन्होंने नहीं बताया, जिसे पाने के लिए किसी चमत्कार विशेष की आवश्यकता नहीं, बल्कि सदाचरण एवं सतत् साधना की आवश्यकता है।
(3) ज्ञान और भक्ति के क्षेत्र में तुलसी का समन्वय- धर्म और दर्शन के क्षेत्र में एक अपूर्व देन है। उन्होंने ज्ञान और भक्ति में से किसी को भी हीन न बताकर दोनों के महत्त्व को प्रतिपादित किया।
ज्ञानहिं भगतहिं नहिं कुछ भेदा । उभय हरहिं भवसंभव खेदा ।।
(4) निर्गुण-सगुण का समन्वय- तुलसीदास ने निर्गुण सगुण का समन्वय करके साधना का पथ प्रशस्त किया।
निगुनहिं सगुनहिं नहिं कुछ भेदा। गावहिं श्रुति पुरान बुध बेदा ।।
(5) वैष्णव एवं शक्ति मत का समन्वय- जिस प्रकार शिव और विष्णु के आराधकों में पारस्परिक वैमनस्य और विद्वेष घर कर गया था ठीक वैसे ही वैष्णवों व शाक्तों में पारस्परिक संघर्ष की विषाक्ता अपना ताण्डव नृत्य कर रही थी। तुलसी ने शैव और वैष्णवों की भाँति ही शाक्तों एवं वैमनस्य करो दूर करते हुए ‘शक्ति’ की भी उपासना की और ‘रामचरितमानस’ में सीता को ब्रह्म की शक्ति बताकर उद्भव-स्थिति-संहारि संहारकारिणी, क्लेशहारिणी, सर्वश्रयकारी’ आदि बताकर इस प्रकार स्तुति की-
नहिं तब आदि मध्य अवसाना। अमित प्रभाव वेद नहिं जाना ।।
भव भव विभव पराभव कारिनि । विश्व विमोहिनि स्ववस विहारिन ।।
(6) नर और नारायण का सम्बन्ध- तुलसी के पूर्व राम दशरथ के पुत्र के रूप में ही सीमित थे। कबीर ने ‘दशरथ सुत तिहुँ लोक बखाना, राम नाम का भरम है आना’ कहकर दशरथ पुत्र को ब्रह्म से अलग कर दिया। अस्तु, तुलसी ने उन्हीं ब्रह्म को कौशल्या के पुत्र दशरथ के सुत के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया। यही कारण है कि तुलसी के राम, अवतारी पुरुष होकर भी अज, अल्प एवं अचल हैं जिनमें शील एवं सौन्दर्य तथा शक्ति का समन्वय है। इस प्रकार तुलसी ने राम के रूप नर और नारायण अथवा जीव और ब्रह्म का मार्मिक समन्वय किया हैं।
(7) द्विज और शूद का समन्वय- तुलसी के समय में छुआछूत, जाति-पाँति, ऊँच-नीच की भावना अत्यधिक पनप रही थी। उच्चवर्ण ब्राह्मण आदि नीच वर्ण को घृणा की दृष्टि से देखता था और उनके साथ अनुचित व्यवहार करता था। तुलसी के ऊपर इस सामाजिकता का बहुत गहरा प्रभाव पड़ा और वे दुःखी होकर समूल नष्ट करने के लिए तत्पर हो गये। रामचरितमानस में ब्राह्मण, कुलावतंश गुरु वशिष्ठ को शूद्र कुल में उत्पन्न निषाद राज से भेंट करते हुए दिखलाकर ब्राह्मण एवं शूद्रों में यथोचित समन्वय स्थापित किया है तथा उच्च क्षत्रिय कुल में उत्पन्न राम को तुच्छ वानर, भालू, रीछ आदि के साथ मैत्री – भाव, प्रदर्शित करते हुए उच्च वर्ग एवं निम्न वर्ग में सुन्दर समन्वय स्थापित किया है।
(8) नवीन प्राचीन का समन्वय- तुलसी ने समन्वय के क्रम में राम के पावन चरित्र में प्राचीन एवं नवीन का समन्वय इस प्रकार किया कि ‘कहियत भिन्न न भिन्न’ ‘राम का चरित्र’ उनका आदर्श एक और प्राचीनता का प्रतीक है, तो राम का युगीन परिवेश में लीला चित्रण कर तुलसी ने देवत्व के जिस मर्यादित रूप से विभूषित किया, वह नवीनता का उत्कृष्ट उदाहरण है।
(9) शैव और वैष्णव एवं शाक्त मतों का समन्वय- जिस समय में तुलसी का अभ्युदय हुआ, उस युग में शैव और वैष्णव तथा शक्ति के बीच परस्पर अपनी-अपनी मान्यताओं एवं आदर्शों के लिए संघर्ष चल रहा था, वैसा पूर्व कभी घटित न हुआ था। वह एक तरह से धर्म की विडम्बना थी कि धर्म के पहरेदार ही परस्पर प्रहार कार्य में संलग्न थे। तुलसी के सामने यह एक गम्भीर समस्या थी कि इन सबों के बीच किस प्रकार से समन्वय कराया जाय। जीवन की समस्याओं के इस महान अनुभवी एवं पारखी भक्त ने लेखनी अपनी चलाई किन्तु कथन स्वयं परमेश्वर से कराया, हाथ अपना चलाया और कर्म प्रभु से कराया। फिर किसमें ऐसी क्षमता मिली। उन्होंने भगवान राम से कहलवाया कि शिव से द्रोह करने वाला स्वप्न में भी मेरा नहीं हो सकता।
(10) समाज और संस्कृति क्षेत्र में समन्वय- सामाजिक समन्वय के क्षेत्र में तुलसीदास ने राम-परिवार के विविध सम्बन्धों के माध्यम से एक आदर्श परिवार की संरचना कर एक सुगठित एवं सुसंस्कृत समाज की व्यवस्था की। राम, सीता, भरत, लक्षण, हनुमान आदि के महान चरित्र की अवतारणा करके उन्होंने आदर्श पुत्र, आदर्श पति, आदर्श पत्नी, आदर्श भाई और आदर्श सेवक के उज्ज्वल चरित्र देकर जनजीवन को उच्च एवं सुसंस्कृत बनाने की अपूर्व प्रेरणा दी।
(11) राजनीतिक क्षेत्र में समन्वय- राजनीतिक क्षेत्र में राजतन्त्र एवं लोकतन्त्र के बीच समन्वय, तुलसी ने जितनी बारीकी से किया है, वह अभूतपूर्व है। रामराज्य की अवतारणा, तुलसी की इसी आधारभित्ति पर अवस्थित है। देखिए-
जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी। सो नृप अवसि नरक अधिकारी।।
(12) साहित्य क्षेत्र में समन्वय- साहित्य के क्षेत्र में समन्वय तुलसी की अभूतपूर्व देन है। स्पष्ट है, तुलसी ने ब्रज और अवधी भाषा पर समान रूप से अधिकार करके अपनी काव्य-रचना की। अवधी को तो उन्होंने परिष्कार संस्कार कर एक ऐसे साहित्यिक पद पर अवस्थित किया, जैसा कि ‘पद्मावत’ जैसे महती ग्रंथ की रचना करने वाले जायसी भी न कर सके, अन्य की तो बात ही छोड़ दें। भाषा में उन्होंने साधारणतः नित्य व्यवहार में आने वाले अरबी, फारसी के शब्दों को भी बड़ी उदारता से अपनाया। शब्दावली को भी कम न अपनाया।
भाषा और काव्य-शास्त्र में भी इस युग पुरुष से समन्वय किया है। ये भाषा और भावों के पूर्ण अधिकारी हैं। भाषा के अतिरिक्त पिंगल शास्त्र के सभी नियमों का भी परिपाक हुआ है। काव्य रूपों के विविध प्रयोगों एवं समन्वय की भाँति ही तुलसी ने अलंकारों का भी अपूर्व सामंजस्य अपने काव्य में उपस्थित किया। उन्होंने अनुप्रास, यमक, श्लेष, काकुवक्रोक्ति आदि शब्दालंकारों के अतिरिक्त उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, संदेह, भ्रांतिमान, प्रतीप, व्यतिरेक, दृष्टांत, अतिशयोक्ति, अर्थान्तरन्यास, असंगति, मीलित, उन्मीलित, ब्याजनिन्दा, आदि-आदि अनेक अलंकारों का समन्वय अपने काव्य में बड़ी सहजता से किया है।
निष्कर्ष- इन्हीं विषमताओं में साम्य स्थापित करने वाला पुरुष यदि लोकनायक नहीं होगा तो और कौन होगा ? तुलसी ने बुद्ध, कबीर, चैतन्य आदि की भाँति कोई मत नहीं चलाया, वह हिन्दुत्व के क्षेत्र में आज तुलसी का कोई प्रतिद्वन्द्वी नहीं है। तुलसी कवि, भक्त, पण्डित, विचारक, सुधारक, लोकनायक और भविष्य स्रष्टा थे। उन्होंने मानव जीवन के सम्पूर्ण क्षेत्रों में समता की रक्षा करते हुए ऐसे काव्य का सृजन किया जो शताब्दियों से उत्तर भारत का पथ-प्रदर्शक रहा था और अब भी है ।
- जायसी की काव्यगत विशेषताएं
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