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दहेज प्रथा या दहेज उन्मूलन : एक सामाजिक समस्या
संकेत बिन्दु भूमिका, दहेज प्रथा का स्वरूप, दहेज प्रथा का प्रभाव, दहेज निषेधाज्ञा कानून, आधुनिक भारतीय समाज में दहेज प्रथा, उपसंहार।
भूमिका
दहेज प्रथा का इतिहास अत्यन्त प्राचीन है। दहेज शब्द अरबी भाषा का हिन्दी रूपान्तरण है, जिसका अर्थ होता है-भेंट या सौगात। विवाह के समय कन्यादान में वधू के माता-पिता द्वारा अपनी सम्पत्ति में से कन्या को कुछ धन, , वस्त्र, आभूषण आदि देना ही दहेज है। प्राचीन समय में दहेज प्रथा जहाँ वरदान थी, वहीं समय के साथ-साथ स्थिति परिवर्तित हो गई, जो दहेज पहले वरदान था अब वह अभिशाप बन गया। प्राचीन भारतीय हिन्दू समाज में दहेज की प्रथा का स्वरूप स्वेच्छावादी था। कन्या के पिता अपनी स्वेच्छा व प्रसन्नता से अपनी पुत्री को पत्रम् पुष्पम् फलम् तोयम्’ प्रदान करते थे, जो उनके सामर्थ्य के अनुसार दिया गया ‘दान’ था जबकि आज दहेज चाहे माता-पिता के सामर्थ्य में हो अथवा न हो किन्तु उन्हें यह कर्ज लेकर भी जुटाना पड़ता है। धन का प्रयोग इस प्रकार दिखावे में व्यय कर देने से विवाह जैसा पवित्र संस्कार कलुषित बन गया है।
दहेज प्रथा का स्वरूप
आज दहेज का स्वरूप पूरी तरह परिवर्तित हो गया है। वर का पिता अपने पुत्र के विवाह में कन्या के पिता की सामर्थ्य-असामर्थ्य, शक्ति-अशक्ति, प्रसन्नता-अप्रसन्नता आदि का विचार किए बिना उससे दहेज के नाम पर धन वसूलता है। दहेज, विवाह बाज़ार में बिकने वाले वर का वह मूल्य है, जो उसके पिता की सामाजिक प्रतिष्ठा और आर्थिक स्थिति को देखकर निश्चित किया जाता है। जिस प्रथा के अन्तर्गत कन्या का पिता अपनी सामर्थ्य से बाहर जाकर, अपना घर बेचकर, अपने शेष परिवार का भविष्य अन्धकार में धकेलकर दहेज देता है, वहाँ दहेज लेने वाले से उसके सम्बन्ध स्नेहपूर्ण कैसे हो सकते हैं ! ‘मनुस्मृति’ में वर पक्ष द्वारा कन्या पक्ष वालों से दहेज लेना राक्षस विवाह के अन्तर्गत रखा गया है, जिसका वर्णन ‘मनु’ ने इस प्रकार किया है
“कन्या प्रदानं स्वाच्छन्द्यादासुरो धर्म उच्येत।”
इस प्रकार यहाँ कन्या पक्ष द्वारा वर पक्ष को धन आदि दिया जाना दानव धर्म बतलाया गया है।
दहेज प्रथा का प्रभाव
दहेज प्रथा भारतीय समाज में व्याप्त एक ऐसी कुप्रथा है, जिसके कारण कन्या और उसके परिजन अपने भाग्य को कोसते रहते हैं। माता-पिता द्वारा दहेज की राशि न जुटा पाने पर कितनी कन्याओं को अविवाहित ही जीवन बिताना पड़ता है, तो कितनी ही कन्याएँ अयोग्य या अपने से दोगुनी आयु वाले पुरुषों के साथ ब्याह दी जाती हैं। इस प्रकार, एक ओर दहेज रूपी दानव का सामना करने के लिए कन्या का पिता गलत तरीकों से धन कमाने की बात सोचने लगता है, तो दूसरी ओर कन्या भ्रूण-हत्या जैसे पापों को करने से भी लोग नहीं चूकते। महात्मा
गांधी ने इसे ‘हृदयहीन बुराई’ कहकर इसके विरुद्ध प्रभावी लोकमत बनाए जाने की वकालत की थी। पण्डित नेहरू ने भी इस कुप्रथा का खुलकर विरोध किया था। राजा राममोहन राय, महर्षि दयानन्द आदि समाजसेवकों ने भी इस घृणित कुप्रथा को उखाड़ फेंकने के लिए लोगों का आह्वान किया था। प्रेमचन्द ने उपन्यास ‘कर्मभूमि’ के माध्यम से इस कुप्रथा के कुपरिणामों को देशवासियों के सामने रखने का प्रयास किया है।
दहेज निषेधाज्ञा कानून
भारत में दहेज निषेधाज्ञा कानून, 1961 और घरेलू हिंसा अधिनियम, 2005 के लागू होने के बावजूद दहेज न देने अथवा कम दहेज देने के कारण प्रतिवर्ष लगभग 5,000 बहुओं को मार दिया जाता है। एक रिपोर्ट के अनुसार, वर्तमान समय में भारत में लगभग प्रत्येक 100 मिनट में दहेज से सम्बन्धित एक हत्या होती है। अधिकांश दहेज हत्याएँ पति के घर के एकान्त में और परिवार के सदस्यों की मिलीभगत से होती हैं, इसलिए अधिकांश मामलों में अदालतें प्रमाण के अभाव में दहेज हत्यारों को दण्डित भी नहीं कर पाती हैं। कभी-कभी पुलिस छानबीन करने में इतनी शिथिल हो जाती है कि न्यायालय भी पुलिस अधिकारियों की कार्य
कुशलता और सत्यनिष्ठा पर सन्देह प्रकट करते हैं।
आधुनिक भारतीय समाज में दहेज प्रथा
आज आधुनिक युग में दहेज प्रथा मानवजाति के मस्तक पर कलंक है, जिसका कारण धन का लालच, झूठी प्रतिष्ठा की भावना, आदर्शवादिता का लोप हो जाना आदि है। सामाजिक प्रतिष्ठा बनाए रखने की भावना ने दहेज प्रथा के रूप को कलंकित कर दिया है। इस प्रकार दहेज़ प्रथा की बुराई केवल विवाह तक ही सीमित न रहकर विवाहोपरान्त भी परिवारों को प्रभावित करती है, जो विवाहित जीवन के लिए कष्टप्रद बन जाता है। व्यक्ति जितना सम्पन्न होता है उतनी ही बड़ी वह दहेज की माँग करता है। आज दहेज समाज में प्रतिष्ठा का सूचक बन गया है। आधुनिक भारतीय समाज में आज दहेज प्रथा के फलस्वरूप बेमेल विवाह की समस्या में वृद्धि हो रही है। यही नहीं दहेज जैसे अभिशाप से आत्महत्या के आँकड़े भी बढ़े हैं। वधू पक्ष की ओर से दहेज में कमी रह जाने के फलस्वरूप कन्याओं का वैवाहिक जीवन दुःखद हो जाता है।
दहेज सम्बन्धी कुप्रथा का चरमोत्कर्ष यदि दहेज हत्या है, तो इसके अतिरिक्त महिलाओं के विरुद्ध हिंसा के अन्य स्वरूपों का प्रदर्शन भी सामने आता है, जिसमें पत्नी को पीटना, लैंगिक या अन्य दुर्व्यवहार, मानसिक एवं शारीरिक प्रताड़ना आदि शामिल हैं।
उपसंहार
भारत की पवित्र धरती पर से दहेज रूपी विष वृक्ष को समूल उखाड़ फेंकने के लिए देश के युवा वर्ग को आगे आना होगा। युवाओं के नेतृत्व में गाँव-गाँव और शहर-शहर में सभाओं का आयोजन करके लोगों को जागरूक करना होगा, ताकि वे दहेज लेने व देने जैसी बुराइयों से बच सकें। प्रेस और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को भी इस कुप्रथा को दूर करने में खुलकर सहयोग करने की आवश्यकता है। दहेज प्रथा के नाम पर नारियों पर हो रहे अत्याचार को हमें समाप्त करना होगा।
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