नगरीयकरण और बाल अपराध
बाल-अपराध और नगरीयकारण में सह-सम्बन्ध पाया जाता है। औद्योगीकरण के साथ-साथ नगरीयकरण का भी विकास हुआ। नगरों में बढ़ती हुई आबादी, द्वितीयक सम्बन्धों की प्रधानता में बालकों को उन्मुक्त कर दिया है। नगरीयकरण और औद्योगीकरण की बढ़ती हुई प्रक्रिया ने गन्दी बस्तियों को जन्म दिया। गन्दी बस्तियों में अपराध फल-फूल रहा है। घर के बड़े नियमित रूप से काम करने के लिए। घर से बाहर चले जाते हैं। बच्चों की देखभाल व समाजीकरण की समुचित व्यवस्था न हो पाने के कारण बच्चे आवारागर्दी करते हैं। नियमहीनता, अपकृत्यकारी प्रवृत्ति बच्चों को अपराधी बनाने में सहगामी भूमिका निभाती है। नगरीयकरण ने बाल-अपराध को बढ़ाने में अहम् भूमिका निभाई है, क्योंकि अपराध के लिये उपर्युक्त स्थान व अवसर की उपलब्धता महत्वपूर्ण होती है। आधुनिक प्रौद्योगिकी से अपराध करने की प्रवृत्ति में प्रवीणता आयी है। नए-नए प्रकार के अपराधों को जन्म देने में अपराधी समूहों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है।
नगरीयकरण अपराधी मनोवृत्ति वाले बच्चों को सुअवसर प्रदान करता है। नगरों में जीवन की गतिशीलता, प्राथमिक सम्बन्धों की न्यूनता व अवसर की उपलब्धता अधिक होती है जिनके कारण बच्चे अपराध गतिविधियों में संलिप्त हो जाते हैं। नगरों में ही बड़े-बड़े अपराधी अपने स्वार्थों के लिये छोटे बच्चों को अपराधी बनाने का प्रशिक्षण भी देते हैं। नगरों में ही चरस, गांजा, अफीम व वृहद् पैमाने पर तस्करी का भी काम होता है, जिसमें छोटे-छोटे बच्चों को इन अपराधों में सहभागी बनकर उन्हें अपराधी बनने को विवश करते हैं। भग्न, परिवार व पड़ोसी की क्रूरता भी बच्चों को अपराधी बनाने में भूमिका निभाती है। अश्लीलता व चल-चित्रों की बहुलता, शराबवृत्ति, वैश्यावृत्ति जैसे विघटनकारी कृत्यों को फलने-फूलने में नगरीयकरण महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। जब नगरीयकरण है तो बाल-अपराध अवश्यम्भावी है। बाल अपराधी ही आगे चलकर वयस्क अपराधी बनकर देश की दिशा व दशा को अवरुद्ध करते हैं।
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