अनुक्रम (Contents)
निराला की कविताओं का मूल्यांकन अथवा छायावादी काव्य आंदोलन में निराला के योगदान
छायावाद की वृहत्त्रयी और चतुष्टयी में भी निराला का महत्त्वपूर्ण स्थान है। जो नवीनता का कायल होगा, वह किसी दायरे में बँधकर नहीं चल सकेगा। इसीलिए निराला यदि एक ओर उन्मुक्त कल्पना की उड़ान वाली छायावादी कविता लिखते हैं तो दूसरी ओर धरती के कटु यथार्थ का साक्षात्कार करते हुए शोषण एवं उत्पीड़न के विरोध में प्रगतिवादी कविता भी लिखते हैं। यही नहीं, वे ऐसे प्रथम कवि भी होंगे जिन्होंने हिन्दी कविता में नवीन कथ्य-शिल्प एवं मुक्त छन्दों का प्रयोग करके प्रयोगशीलता का नया द्वार खोला। स्वच्छन्दतावादी काव्य की अनेक प्रवृत्तियाँ भी उनमें सरलता से प्राप्त होती हैं। इसीलिए आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी ने कहा है- “निराला जैसे अनेक क्षितिजों और दिगन्त भूमिकाओं के कवि को ‘वाद’ की सीमा में बाँधना और भी कठिन है, यद्यपि निराला छायावाद के प्रवर्त्तकों में परिगणित होते हैं। निराला के साथ छायावाद का सम्बन्ध ऐतिहासिक भूमिका पर बना था, परन्तु आरंभ से ही उनकी स्वच्छन्दतावादी प्रवृत्तियाँ उनको छायाबाद की सीमित भूमि से बाहर खींच रही थीं।” अतः स्पष्ट है कि निराला जी वैविध्य के कवि हैं और उनकी यह विविधता उनके काव्य में पग-पग पर दिखायी देती है। यहाँ हम उसका क्रमिक अनुशीलन करेंगे-
(1) आत्माभिव्यक्ति- यों तो सम्पूर्ण छायावादी काव्य में आत्माभिव्यक्ति को प्रमुखता मिली है, किन्तु निराला की तो बात ही निराली है। उनका काव्य ही उनका जीवन दर्शन है। जीवन की सुख-दुःखात्मक अनुभूतियों की अभिव्यक्ति प्रायः उनकी कविताओं में मिल जाती है। इनके अनुशीलन से ज्ञात होता है कि उनके जीवन में दुःखों की अतिशयता रही-
दुःख ही जीवन की कथा रही, क्या कहूँ आज हो नहीं कही।
(2) पलायनवाद- गौतम बुद्ध और कबीर पहले ही जिस दुःखवाद का प्रतिपादन कर चुके थे, रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने ‘बड़ो दुःख बड़ो व्यथा’ कहकर जिसे उतराते देखा और स्वयं भी उसका प्रत्यक्ष अनुभव किया। अतः वे इस दुःख से पार जाने का उपक्रम करने लगते हैं-
हमें जाना है जग के पार
जहाँ नयनों से नैन मिले, ज्योति के रूप सहस्र खिले,
वहीं जाना इस जग के पार।
(3) वेदना, निराशा और दुःखवाद – छायावादी काव्य की यह अन्य प्रमुख विशेषता रही है। स्वार्थी संसार में जब अपने पराये सब स्वार्थ सिद्धि पाकर चलते बने तो सहर्ष आत्मदान करने वाला रिक्त-पाणि वह प्राणी अन्ततः विवश-निरुपाय हो जाता है और निराशा ही उसके हाथ लगती है-
गहन है यह अंधकारा
स्वार्थ के अवगुण्ठनों से है हुआ लुण्ठन हमारा।
खड़ी है दीवार जड़ को घेरकर,
जा रहे हैं लोग ज्यों मुँह फेरकर,
इस गहन में नहीं दिनकर, नहीं शशधर, नहीं तारा।
(4) रहस्यवाद – डॉ० रामकुमार वर्मा का अभिकथन है- “रहस्यवाद में जीवात्मा परमात्मा के साथ अपना निश्छल, रागात्मक सम्बन्ध जोड़ना चाहती है और यह सम्बन्ध यहाँ तक बढ़ जाता है कि दोनों में कोई अन्तर नहीं रह जाता।” निराला के काव्य में परमात्मा के प्रति जीवात्मा की यह भावात्मक प्रतिक्रिया अनेक रूपों में व्यक्त हुई है। वैसे भी वे चूँकि वेदान्त से अतिशय से प्रभावित हैं, इसलिए उनमें भरपूर रहस्यवादिता पायी जाती है।
(5) मानवतावाद- हमारी संस्कृति अभेदमूलक है। मानव-मानव में एकत्व एवं समानता इसका अभीष्ट रहा है किन्तु बीच में कतिपय तत्त्वों ने उसे वर्ग-जाति के मिथ्या मकड़जाल में उलझा दिया है। निराला ने जाति-पाँति की इस कृत्रिमता और विषमता की पीड़ा को पहचाना; फिर शिव की तरह स्वयं विषपान कर सबके लिए अमृत बाँट दिया-
ठहरो अहा मेरे हृदय में है अमृतललमैं सींच दूँगा,
अभिमन्यु जैसे हो सकोगे तुम तुम्हारे दुःख मैं अपने हृदय में खींच लूँगा।
(6) उदार नारी- दृष्टि परिवर्तित जीवन-दृष्टि से नारी के प्रति छायावादी कवियों का दृष्टिकोण पर्याप्त उदार एवं आदरास्पद रहा। प्रसाद ने उसके प्रति श्रद्धाभाव-व्यक्त किया, तो निराला ने भी उसे आदि-शक्ति और जगज्जननी की गरिमा प्रदान की-
आदि शक्ति- रूपिणी
शक्ति से जिनकी शक्तिशालियों में सत्ता है-माता हैं मेरी वे।
X X X X
नारियों की महिमा सतियों की गुण – गरिमा में।
जिनके समान जिन्हें छोड़कर कोई और नहीं’-माता हैं मेरी वे।
इसके अतिरिक्त, उन्होंने मजदूरिनी, उपेक्षिता एवं विधवाओं के प्रति भी अपरिमित सहानुभूति व्यक्त की है। उनकी ‘तोड़ती पत्थर’ और ‘विधवा’ जैसी कविताएँ इसकी मार्मिक प्रमाण हैं।
(7) शोषितों के प्रति सहानुभूति- छायावादी कवियों में निराला ऐसे हैं जिन्होंने दलितों, पीड़ितों के प्रति सर्वप्रथम अपनी सहानुभूति दिखायी। वे समतामूलक प्रगतिशील दृष्टि रखते थे; अतः जमींदारों एवं महाजनों के शोषण के विरुद्ध उन्होंने अपना स्वर ऊँचा किया
जमींदार की बनी, महाजन धनी हुए हैं,
जग के मूर्त पिशाच धूर्तगण गनी हुए हैं।
(8) रूढ़ियों का विरोध- युगानुरूप निराला पर भी आधुनिक विचारों का प्रभाव पड़ा – था और वे वैज्ञानिक दृष्टि से सम्पन्न थे, इसलिए उन्हें किसी प्रकार की रूढ़ि में विश्वास नहीं था। अपनी जन्म-कुण्डली देखकर उनके मन में ऐसी प्रतिक्रिया हुई कि ज्योतिषियों द्वारा निर्मित कुण्डली में उनका विश्वास न रहा।
पढ़ लिखे हुए शुभ दो विवाह, /हँसता था मन में बढ़ी चाह,
खण्डित करने को भाग्य-अंक,/ देखा भविष्य के प्रति अशंक।।
(9) कल्पनाप्रियता- कल्पना छायावादी कवियों का प्रिय उपकरण है। पंत का कथन है- “मैं कल्पना के सत्य को सबसे बड़ा सत्य मानता हूँ और उसे ईश्वरीय प्रतिभा का भी अंश मानता हूँ।” कल्पना का मूलाधार कवि की अनुभूतियाँ होती हैं। यह कल्पनाप्रियता निराला के काव्य में भरी पड़ी है-
याद जब आया उपवन विदेह का,
प्रथम स्नेह का लतान्तराल-मिलन का
नयनों का नयनों से गोपन, प्रिय संभाषण
डोलते दुमदल किसलय झरते पराग समुदय,
गाते जग नव जीवन-परिचय, तरुमलय- वलय।
(10) प्रकृति-प्रेम- प्रकृति के प्रति निराला के मन बड़ा आकर्षण है। उसके सहज सौन्दर्य से वे अभिभूत हैं। प्रकृति के ऊपर नारीत्व की भावना का आरोप करके उसके कोमल-मनोरम रूपों का हृदयहारी चित्रण उन्होंने किया है। उनकी ‘संध्या-सुन्दरी’ कविता इसका अनुपम उदाहरण है-
दिवसावसान का समय मेघमय आसमान से उतर रही है,
वह सन्ध्या-सुन्दरी परी-सी, धीरे-धीरे धीरे ।।
(11) राष्ट्रीयता एवं देश-प्रेम- अपने देश के स्वर्णिम अतीत एवं उसकी सांस्कृतिक गरिमा के प्रति निराला में बड़ा आदर है। देश-प्रेम के नाते ही वे यहाँ के निवासियों के अज्ञान, शोषण, निर्धनता एवं पीड़ा से पीड़ित होते हैं। उन्हें वे पराधीनता-पाश से मुक्त देखना चाहते हैं-
वर दे वीणा वादिन वर दे ! काट अन्धध उर के बन्धन-स्तर,
बहा जननि ज्योतिर्मय निर्झर,
कलुष भेद, तम हर, प्रकाश भर जगमग जग कर दे।
(12) सूक्ष्म सौन्दर्य-दृष्टि- अन्य छायावादी कवियों की भाँति निराला ने भी जिस सूक्ष्म एवं अतीन्द्रिय सौन्दर्य का वर्णन किया है, उसमें वासना की गंध नहीं मिलती। सौन्दर्य के प्रति एक प्रकार से वे शुभ्र निरपेक्ष दृष्टि रखते हैं, तभी अपनी बेटी सरोज की युवावस्था के सौन्दर्य का जैसा अनूठा वर्णन उन्होंने किया है, वैसा शायद ही कोई कर सका हो
कर पार कुंज-तारुण्य सुघर, आयी लावण्य भार थर-थर,
काँपा कोमलता पर सस्वर, ज्यों भालकोश नव वीणा पर ।
(13) मानवीकरण- नये अलंकारों में मानवीकरण छायावाद का प्राण है। जहाँ भी अचेतन में चेतन का आरोप करना हो, वहाँ इसके बिना काम नहीं चलता। निराला ने भी अनेक जगह अमूर्त्त का मूर्त्तन किया है, अतः वहाँ मानवीकरण स्वाभाविक रूप से आ गया है-
जागो फिर एक बार प्यारे जागते हुए हारे सब तारे तुम्हें,
अरुण-पंख तरुण-किरण खड़ी खोल रही द्वार
(14) गीतात्मकता- रवीन्द्रनाथ ठाकुर से प्रभावित होने के कारण निराला के काव्य में गीतात्मकता भी सहजता आ गयी है। उनकी ‘गीतिका’ गीतों की बहुलता के कारण ‘यथानाम तथागुण’ हो गयी है। ‘वर दे वीणावादिनि वर दे’ उनका प्रथित एवं मनोज्ञ गीत है।
(15) ध्वन्यात्मकता- ‘बादलराग’ निराला की क्रान्ति विधायिनी कविता है। इसमें कवि ने ऐसा अनुहारी शब्द चयन किया है जिससे एक विशिष्ट संगीत उत्पन्न हो गया है। शब्द-ध्वनि से अर्थ स्वतः प्रस्फुटित हो रहा है-
झूम-झूम मृदु गरज-गरज घन घोर
राग अमर, अम्बर में भर निज रोर ।
(16) शृंगारप्रियता – निराला के काव्य में यथास्थान संयोग-वियोग के मनोहर चित्र प्राप्त होते हैं। ‘जूही की कली’ में संयोग- शृंगार का चारु-चित्रण द्रष्टव्य है .
निर्दय उस नायक ने निपट निठुराई की/कि झोंको की झाड़ियों से
सुन्दर सुकुमार देह सारी झकझोर डाली।
विप्रलम्भ- शृंगार का भी एक उदाहरण अवलोक्य है
पिउ-रव पपीहे प्रिय बोल रहे,/सेज पर विरह-विदग्धा वधू
यादकर बीती रातें मन- मिलन की,/मूँद रही पलकें चारु/नयन जल ढल गये,
लघुतर कर व्यथा- भार,/जागो फिर एक बार ।
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