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परामर्शदाताओं के लिये नैतिक सिद्धान्त

परामर्शदाताओं के लिये नैतिक सिद्धान्त
परामर्शदाताओं के लिये नैतिक सिद्धान्त

परामर्शदाताओं के लिये नैतिक सिद्धान्त

परामर्शदाता को कुछ नैतिक सिद्धान्तों का पालन करना आवश्यक है। ये सिद्धान्त परामर्शदाता को उपबोध्य के साथ सम्बन्ध स्थापित करने में मार्गदर्शन प्रदान करते हैं। विभिन्न स्थितियों में परामर्शदाता द्वारा उठाये जाने वाले कदमों को भी निर्देशित करते हैं। ई.सी. रोयबर ने परामर्शदाता के नैतिक अनुशासन के निम्नलिखित सिद्धान्तों का उल्लेख किया है-

1. निष्ठा- परामर्शदाता की निष्ठा का क्रम इस प्रकार होता है कि वह प्राथमिक रूप से अपने उपबोध्य के प्रति उत्तरदायी होता है। वह अपने विद्यालय एवं साधारणतः समाज के प्रति भी उत्तरदायी होता है। समाज की एक संस्था के रूप में परामर्शदाता अन्य संस्थाओं की अपेक्षा विद्यालय को प्राथमिकता प्रदान करता है। निष्ठा का यह क्रम उस समय भी विद्यमान रहता है जब वह छोटे छात्र समूहों के बीच कार्य करता है।

2. स्थिति से अवगत कराना- जब उत्तरदायित्व के इस क्रम में अपवाद की स्थिति आवश्यक हो तो परामर्श से पूर्व अथवा उस समय जब सामान्य प्रक्रिया से हटना हो, तो उपबोध्य की स्थिति से अवगत करा दिया जाये।

3. गोपनीयता – परामर्शदाता उपबोध्य के सम्पर्क से प्राप्त जानकारी को किसी अन्य व्यक्ति या अभिकरण, जैसे—माता-पिता, परिवार, चिकित्सक, सामाजिक अभिकरण, रोजगारदाता आदि के सम्मुख तब तक प्रकट नहीं करेगा जब तक कि वह उपबोध्य की पूर्व अनुमति नहीं प्राप्त कर लेगा और तब वह उस जानकारी की केवल वृत्तिक स्थितियों में तथा उन लोगों से जो उपबोध्य के लिये महत्त्वपूर्ण हैं, प्रकट करेगा।

4. आपातकालीन उपायों की जानकारी- जब परामर्शदाता की हालत ऐसी हो कि किसी अन्य व्यक्ति को उसकी जिम्मेदारी सँभालना आवश्यक हो गया हो अथवा समस्या से उसे तथा अन्य लोगों को स्पष्ट तथा तुरन्त खतरे की सम्भावना हो तब परामर्शदाता से यह अपेक्षित है कि वह उचित जिम्मेदार अधिकारी को इस तथ्य की सूचना दे अथवा ऐसे आपत्तिकालीन उपाय करे जिनकी उस परिस्थिति में आवश्यकता हो ।

5. सक्षम व्यक्ति से विचार-विमर्श- परामर्शदाता अपने इस अधिकार को सुरक्षित रखता है कि वह अपने उपबोध्य के सम्बन्ध में वृत्तिक रूप से सक्षम व्यक्ति से विचार-विमर्श करे। यह विचार विमर्श वृत्तिक परिवेश में आयोजित किया जाये तथा केवल तभी किया जाये जब परामर्शदाता के भले के लिये आवश्यक हो।

6. निर्णय-शक्ति – अन्य वृत्तिक कार्यकर्ताओं को जब परामर्शदाता परामर्श से प्राप्त जानकारी प्रदान करता है तो अपने विवेक एवं अच्छी निर्णयात्मकता का उपयोग करता है। उसका निर्णय सूचना प्राप्त करने वाले के चरित्र, प्रशिक्षण तथा प्राप्त जानकारी को समझ सकने एवं उपबोध्य के लिये उसका अच्छे ढंग से उपयोग कर सकने की शक्ति पर आधारित रहता है। परामर्शदाता अन्य वृत्तिक कर्मचारियों से भी ऐसी आशा रखता है कि उसके द्वारा प्रदत्त सूचनाओं को प्रकट करने में वे वैसे ही विवेक एवं निर्णय का प्रयोग करेंगे।

7. उत्तरदायी स्थितियों का पता लगाना- जब कभी परामर्श सम्बन्ध के द्वारा परामर्शदाता को ऐसी दशाओं का पता लगता है जो उसके विद्यालय के उत्तरदायित्व के अन्तर्गत आने वाले अन्य लोगों को हानि पहुँचा सकती हैं तो उन्हें उपयुक्त जिम्मेदार अधिकारी को उपबोध्य का परिचय गोपनीय रखते हुये सूचित करता है।

8. मनोवैज्ञानिक सूचनायें- परामर्शदाता मनोवैज्ञानिक सूचनाओं जैसे- परीक्षण परिणाम, नैदानिक अर्हता एवं स्कूल अभिलेखों के अन्य आँकड़ों की व्याख्या इस ढंग से करता है जो उपबोध्य एवं उसके माता-पिता दोनों के लिये रचनात्मक हो। कानून की सीमाओं में वह इस विश्लेषण का न तो एक पक्ष ही है और न किसी आवृत्ति कर्मचारी को विद्यालय अभिलेखों को देखने की स्वीकृति दे सकता है जब तक कि उसने आँकड़ों की वृत्तिक व्याख्या करने का अधिकार सुरक्षित न कर रखा हो।

9. अभिलेखों की उपयोगिता – परामर्श साक्षात्कारों के अभिलेख एवं नोट्स परामर्शदाता के व्यक्तिगत उपयोग के लिये वैयक्तिक याद्दाश्त की चीजें हैं, वे विद्यार्थी के स्कूल के अभिलेखों के अंग नहीं हैं।

10. सन्दर्भ प्रदान करना- आवश्यकता पड़ने पर परामर्शदाता उपबोध्य को पूरी तरह से योग्य व्यक्ति या अभिकरणों को सन्दर्भित करता है, किन्तु ऐसा वह सही माध्यम से अथवा माता-पिता की स्वीकृति से ही करता है। सुझाये हुये व्यक्ति या अभिकरण के पास जाने से यदि उपबोध्य या माता पिता सहमत न होते हों तो परामर्शदाता परामर्श सम्बन्धों को जारी रखने के लिये प्रतिबद्ध नहीं है।

11. अक्षमता का प्रदर्शन- अपेक्षित योग्यता के अभाव अथवा व्यक्तिगत कमजोरियों के कारण यदि परामर्शदाता उपबोध्य को वृत्तिक सहायता प्रदान नहीं करता है तो वह परामर्श के कार्य की शुरुआत करने से मना कर सकता है अथवा चल रहे परामर्श-सम्बन्धों को समाप्त कर सकता है।

12. विभिन्न संगठनों से सम्पर्क – उपबोध्य, माता-पिता तथा अन्य सम्बन्धित व्यक्तियों के साथ परामर्श-सम्बन्ध एवं विचार-विमर्श के दौरान परामर्शदाता व्यवस्थित संगठनों तथा संस्थाओं अथवा वृत्तिक व्यक्तियों की आलोचना नहीं करता है।

13. दूसरे परामर्शदाता की आलोचना नहीं – उपबोध्य के साथ परामर्श में जब पहले परामर्शदाता का स्थान दूसरा परामर्शदाता लेता है तो उनमें से किसी भी परामर्शदाता को दूसरे की आलोचना नहीं करनी चाहिये और न दूसरे के कार्य एवं कार्यक्षमता पर आक्षेप ही करना चाहिये।

इन नैतिक सिद्धान्तों के आधार पर परामर्शदाता को एक निष्ठावान व्यक्ति होना चाहिये। उसमें अपने उपबोध्य का विश्वास प्राप्त करने की शक्ति होनी चाहिये। परामर्शदाता को कोई ऐसा कार्य नहीं करना चाहिये जिससे उस विद्यालय या संस्था की प्रतिष्ठा को ठेस लगे जहाँ पर वह कार्य करता है। वस्तुतः परामर्शदाता को अपनी वृत्तिक उन्नति के लिये निरन्तर प्रयत्न करना चाहिये जिससे उसकी कार्यक्षमता में अभिवृद्धि हो सके।

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shubham yadav

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