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पारिस्थितिकीय तन्त्र का असन्तुलन (पतन) एवं पर्यावरण प्रदूषण
जब मनुष्य ने अन्य जीवों के साथ इस पृथ्वी पर रहना प्रारम्भ किया, उसका पर्यावरण (वायु, जल, मिट्टी, ऊर्जा) स्वच्छ एवं प्रदूषण रहित था। विभिन्न प्राकृतिक साधनों एवं घटनाओं में पूर्ण सन्तुलन था। धीरे-धीरे अपने अति विकसित मस्तिष्क के कारण मानव जीव जगत की प्रमुख जाति के रूप में शिखर पर पहुँच गया और उसने अपनी इच्छानुसार अपने वातावरण में फेर बदल करने की शक्ति भी प्राप्त कर ली। धीरे-धीरे यह शक्ति इतनी प्रबल हो गयी कि आदिमानव से विकसित आधुनिक मानव ने प्रकृति के सन्तुलन को अपने अनुसार परिवर्तित करने का प्रयास किया जबकि इसके पूर्वज उस सन्तुलन के अनुकूल अपने को ढाल लेते थे। पिछले 100 वर्षों में आधुनिक मानव ने अपने आर्थिक, भौतिक व सामाजिक जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उत्तरोत्तर उन्नति हेतु पर्यावरण में इतना परिवर्तन ला दिया कि इससे पर्यावरण का संतुलन बिगड़ गया। वर्तमान मानव के क्रिया-कलापों से प्राकृतिक पारिस्थितिकी तन्त्र कृत्रिम पारिस्थितिकी तन्त्र में बदलता चला जा रहा है जिसके परिणाम उसे भुगतने पड़ रहे हैं। मनुष्य ज्यों-ज्यों पर्यावरण से स्वतन्त्र होने का प्रयास कर रहा है, त्यों-त्यों वह उस पर अधिक निर्भर होता चला जा रहा है।
आज के मानव के प्रगति से नयी समस्याएँ जैसे प्रदूषण, वन्य जीवों की संख्या में कमी, पारिस्थितिक असन्तुलन, प्राकृतिक सम्पदाओं का दुरुपयोग, जनसंख्या में वृद्धि, समष्टि घनत्व में वृद्धि आदि उत्पन्न हो गयी हैं। इन्हीं कारणों से अब यह प्रश्न किया जाने लगा है कि किस प्रकार हम अपने बिगड़े हुए प्राकृतिक सन्तुलन को सुधार सकते हैं।
अत्यन्त प्राचीन काल से ही मनुष्य अपने आस-पास की प्रकृति को जानने एवं समझने के लिए प्रयासरत रहा है। मानव जीवन की अनेकानेक समस्याएँ प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से पारिस्थतिकी से जुड़ी हुई हैं और उनके समाधान के लिए पारिस्थितिकी का ज्ञान आवश्यक है।
“पारिस्थितिकी” शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम अर्नेस्ट हेकेल जर्मन के एक जन्तु वैज्ञानिक द्वारा 1866 में किया गया था। पारिस्थितिकी शब्द का अंग्रेजी रूपान्तर E cology है जो ग्रीक भाषा के शब्द ओइकोस (Oikas) अर्थात् ‘गृह’ अथवा ‘आवास’ और Logos अर्थात् ‘अध्ययन’ शब्द से मिलकर बना है। इस प्रकार इकोलॉजी का अर्थ “घर अथवा आवास का अध्ययन” है।
अर्नेस्ट हैकेल के अनुसार “जीवधारियों के कार्बनिक तथा अकार्बनिक वातावरण और पारस्परिक सम्बन्धों के अध्ययन की पारिस्थितिकी कहते है।”
फिलीप हेण्डर के अनुसार- “पारिस्थितिकी जीवों तथा उनके पर्यावरण के परस्पर सम्बन्धों का विज्ञान है।”
उपयुक्त परिभाषाओं से निष्कर्ष निकलता है कि पारिस्थितिकी एक सुव्यवस्थित विज्ञान है जिसके अन्तर्गत समस्त जीवधारियों, उनके विभिन्न पर्यावरण और पर्यावरण के साथ उनके सम्बन्धों का अध्ययन किया जाता है।
पारिस्थितिकी पतन
पारिस्थितिकी तंत्र जैविक तथा अजैविक संघटकों का समूह है जिसमें दोनों घटक परस्पर अन्योन्याश्रित रहकर समाकलित होते हैं। इसलिए किसी घटक में होने वाले परिवर्तन पर प्रकृति के अन्य घटक भी प्रभावित होते हैं जिससे पारिस्थितिकी तन्त्र में असन्तुलन पैदा हो जाता है। यह असन्तुलन पारिस्थितिकी संकट या पारिस्थितिकी पतन कहलाता है। यह संकट या पतन पारिस्थितिकी तन्त्र में उपस्थित तथा अनुकूलित स्थिति में विद्यमान घटकों में से किसी एक घटक की मात्रा में आवश्यकता से अधिक वृद्धि अथवा कमी होने पर होता है।
पर्यावरण
पर्यावरण उन सभी दशाओं का योग हैं जिन्होंने प्राणी के जीवन को प्रभावित किया है और कर ही है। शाब्दिक रूप से पर्यावरण दो शब्दों से मिलकर बना है, परि + आवरण। परि का अर्थ है ‘चारा ओर’ आवरण का अर्थ है ‘घेरे हुए। इस प्रकार पर्यावरण का तात्पर्य उन सभी दशाओं और परिस्थितियों की सम्पूर्णता से है जो एक प्राणी के जीवन को चारों ओर घेरे हुए हैं। इस दृष्टिकोण से किसी भी जीवित वस्तु के अस्तित्व पर जितनी दशाओं का प्रभाव पड़ता है, वह सब उसका पर्यावरण होगा। मानव अपने चारों ओर से घेरे हुए हैं। इस दृष्टिकोण से किसी भी जीवित वस्तु के अस्तित्व पर जितनी दशाओं का प्रभाव पड़ता है, वह सब उसका पर्यावरण होगा। मानव अपने चारो ओर अनेक प्राकृतिक शक्तियों एवं पदार्थों जैसे- चाँद तारे, सूरज, पृथ्वी, हवा, नदी, पहाड़, जंगल, जलवायु एवं ताप आदि से तथा अनेक सामाजिक सांस्कृतिक तथ्यों जैसे समाज, समूह, संस्था, प्रथा, परम्परा, लोकाचार, नैतिकता, धर्म, सामाजिक मूल्यों, मनोवृत्तियों आदि से घिरा हुआ है। इन सबके सम्मिलिक रूप को ही उसका पर्यावरण कहा जायेगा। इस प्रकार की प्राकृतिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक दशाओं की सम्पूर्णता ही उसका पर्यावरण कहलाती है।
जिसबर्ट के अनुसार “पर्यावरण वह सब कुछ है जो किसी वस्तु को चारों ओर से घेरे और उसे प्रत्यक्ष रूप से प्रभावी कर रहा है।” हुए हैं
फिटिंग के अनुसार “जीवों के पारिस्थितिकी कारकों का योग पर्यावरण है।” स्पष्ट है कि पर्यावरण में वे सभी भौतिक व अभौतिक, प्राकृतिक एवं मानव निर्मित वस्तुएँ सम्मिलित हैं जो प्राणी को चारों ओर से घेरे हुए हैं और उसे प्रभावित करती हैं।
प्रदूषण- जब भौतिक, रासायनिक तथा जैविक परिवर्तनों द्वारा हवा, जल तथा भूमि अपनी नैसर्गिक गुणवत्ता खो बैठते हैं और जीवधारियों के लिये हानिकारक सिद्ध होने लगते हैं तो ऐसी स्थिति को प्रदुषण कहते हैं।
राष्ट्रीय पर्यावरण अनुसन्धान परिषद् के अनुसार “मनुष्य के क्रियाकलापों से उत्पन्न अपशिष्ट उत्पादों के रूप में पदार्थों एवं ऊर्जा के विमोचन से प्राकृतिक पर्यावरण में होने वाले हानिकारक परिवर्तनों को प्रदूषण कहते है।
ओडम के अनुसार “वातावरणीय जल, वायु तथा मिट्टी के भौतिक, रासायनिक तथा जैविक गुणों में अवांछनीय एवं हानिकारक परिवर्तन को प्रदूषण कहते हैं।”
उपरोक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि पर्यावरण प्रदूषण मानवजनित विकृति है जिसके कारण पर्यावरण में पैदा होता है और इस असन्तुलन से पर्यावरण की गुणवत्ता में ह्रास होता है।
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