राजनीति विज्ञान (Political Science)

पाश्चात्य राजनीतिक सिद्धान्त की प्रकृति और महत्व

पाश्चात्य राजनीतिक सिद्धान्त की प्रकृति और महत्व
पाश्चात्य राजनीतिक सिद्धान्त की प्रकृति और महत्व

पाश्चात्य राजनीतिक सिद्धान्त की प्रकृति और महत्व

वर्तमान युग वैज्ञानिक आविष्कारों का यगु है। इस युम में औद्योगिक क्रांति जैसी घटना घटित हुई। इस कारण विश्व के सभी देशों में समाज और अर्थव्यवस्था में तेजी से परिवर्तन होने लगा। बहुत से नवीन तथ्य और घटनाएँ जिनका सम्बन्ध राजनीति से था राजनीति विज्ञान की प्रगति में सहायक सिद्ध हुईं। विश्व के अनेक देशों में परम्परावाद के विरूद्ध असन्तोष प्रकट किया गया। असन्तोष अमेरिका में अधिक दिखाई दिया। अमेरिका ने इसी सन्दर्भ में राजनीति विज्ञान का वैज्ञानिक अध्ययन करना उचित समझा।

सन् 1856 में सर्वप्रथम कोलम्बिया विश्वविद्यालय में फ्रांसिस लाइबर की अध्यक्षता में राजनीति विज्ञानकी प्रथमं शाखा स्थापित की गई। इसका विकास 19वीं सदी तक बहुत कम हुआ।, सन् 1903 में अमेरिकन राजनीति विज्ञान ऐसोसियेशन तथा सोसल साइंस रिसर्च काउंसिल की स्थापना के बाद ही इसमें गति आयी। वर्तमान में अमेरिका इस विषय में बहुत आगे हैं। राजनीति विज्ञान की अमेरिकी शाखा के पेरैटो, मोस्का, मिचेल्स, ऑरेन्ट, ऑकशॉट, आदि का इसमें विशेष योगदान है।

राजनीतिक सिद्धान्त की वैज्ञानिक प्रकृति

राजनीति एक विज्ञान है,, राजनीति विज्ञान के अध्येताओं में इस तरह की मान्यता ने बहुत जोर पकड़ा लिया है, अतः इस धारणा के समर्थकों ने राजनीति विज्ञान का वैज्ञानिक ढंग से अध्ययन करने पर जोर दिया है। वह उसे विधिवत और विश्लेषण का वह रूप देना चाहते हैं। जो एक प्राकृतिक विज्ञान – जैसे कि भौतिकी और जीव विज्ञान की तरह तथ्यों का पता लगाने और उनमें परस्पर सहसंबंध स्थापित करने के उद्देश्य से करना चाहिए, अर्थात् इसके अंतर्गत राजनीतिक तथ्यों के संबंध में सामान्य नियमों का निरूपण होना चाहिए ताकि उनके आधार पर यथार्थ राजनीति की व्याख्या की जा सके। जैसे भौतिकी इस बात की व्याख्या देती है कि वर्षा क्यों होती है, या कभी-कभी आकाश में इंद्रधनुष क्यों दिखाई देता है, वैसे ही राजनीतिविज्ञान को यह ‘ व्याख्या देनी चाहिए कि सरकारें स्थिर या अस्थिर क्यों सिद्ध होती हैं, लोग किन्हीं राजनीतिक दलों को वोट क्यों देते हैं, या कहीं-कहीं संवैधानिक सरकार को गिराकर सैनिक शासन क्यों स्थापित हो जाता है?

राजनीति के वैज्ञानिक अध्ययन के लिए वैज्ञानिक पद्धति का प्रयोग आवश्यक है। संक्षेप में वैज्ञानिक पद्धति के अंतर्गत इस प्रक्रिया का अनुसरण करते हैं

(क) निरीक्षण – इसका अर्थ यह है कि हमें वस्तुस्थिति की जांच अपनी ज्ञानेन्द्रियों (आँख, कान, नाक, जिह्वा और त्वचा) से करनी चाहिए। इसके लिए कुछ उपकरणों की सहायता ली जा सकती है, परंतु जो बातें हमारी ज्ञानेन्द्रियों की पहुँच से बाहर हों, उन पर विचार न किया जाए। अतः हमें केवल अनुभवमूलक विषयों से सरोकार रखना चाहिए; अलौकिक और अतीन्द्रिय विषयों पर कोई ध्यान नहीं देना चाहिए। उदाहरण के लिए, विज्ञान में किसी घटना को ईश्वर की इच्छा, दिव्य चमत्कार, ग्रह-नक्षत्रों के प्रभाव या किसी के पूर्वजन्म के कर्मों का फल मानकर विचार नहीं किया जा सकता।

(ख) सामान्यीकरण- इसका अर्थ यह है कि हमें अपने निरीक्षण के आधार पर भिन्न भिन्न तथ्यों में परस्पर संबंध या सहसंबंध का पता लगाना चाहिए, और इसे सामान्य नियमों के रूप में व्यक्त करना चाहिए— विशेषतः कार्य-कारण संबंध के रूप में। जहाँ तक संभव हो, इस संबंध को ऐसे परिणामों के रूप में व्यक्त करना चाहिए जिनका विश्वस्त परिमापन किया जा सकता है।

सामान्यीकरण की निम्न दो मुख्य विधियाँ है:

(1 ) आगमन पद्धति — इसमें ‘विशेष से सामान्यकी ओर अग्रसर होते हैं, अर्थात् एक जैसी बातों का निरीक्षण करने के बाद सामान्य नियम स्थापित करते हैं; और

( 2 ) निगमन पद्धति — इसमें ‘सामान्य से विशेष की ओर अग्रसर होते हैं, अर्थात् सामान्य अनुभव के आधार पर कोई सामान्य नियम सोच लेते हैं; फिर निरीक्षण के आधार पर उसकी पुष्टि या खंडन करते हैं। यह आवश्यक है कि सामान्य नियमन सब जगह लागू होता हो और प्रयोग द्वारा उसका सत्याप किया जा सकता हो। यदि किसी नए तथ्य के निरीक्षण से सामान्य नियम की पुष्टि नहीं होती तो उसका संशोधन आवश्यक हो जाता है।

(ग) व्याख्या – इसका अर्थ है, प्रस्तुत घटना, स्थिति या प्रवृत्ति के कारणों पर प्रकाश डालना। हो सकता है, कुछ तत्वों का सहसंबंध संयोग मात्र हो । व्याख्या के स्तर पर तर्कबुद्धि के द्वारा केवल तर्कसंगत सहसंबंध को मान्यता दी जाती है और उसे स्पष्ट किया जाता है। वस्तुतः व्याख्या के द्वारा ही हमारे सामान्य नियम और उनके अपवाद दोनों सार्थक हो जाते हैं।

(घ) भविष्यावाणी और निर्देशन- इसका अर्थ यह है कि नई स्थिति के उपस्थित होने पर या ज्ञात तथ्यों का ध्यान में रखते हुए हम उपर्युक्त सामान्य नियम के आधार पर उसके परिणाम की भविष्यावणी कर सकते हैं, और निर्दिष्ट लक्ष्य की पूर्ति के लिए-जैसे कि कार्य कुशलता, स्थिरता, संतुष्टि, इत्यादि को बढ़ाने के लिए उपयुक्त उपाय सुझा सकते हैं। परन्तु स्वयं लक्ष्य निर्धारित करना वैज्ञानिक प्रक्रिया का अंग नहीं है।

राजनीति के अध्ययन में वैज्ञानिक पद्धति के प्रयोग की कठिनाइयां

क्या हम भौतिकी और रसायन की तरह राजनीति विज्ञान में भी वैज्ञानिक पद्धति का सही सही प्रयोग कर सकते हैं? राजनीति विज्ञान एक सामाजिक विज्ञान है। यह नहीं भूलना चाहिए कि सामाजिक विज्ञानों में प्राकृतिक विज्ञानों जितनी यथातथ्यता की आशा नहीं की जा सकती। इसके अनेक कारा हैं। प्राकृतिक विज्ञानों में प्राकृतिक घटनाओं का निरीक्षण करते हैं जो प्रकृति के निर्विकार नियमों से संचालित होती है। परंतु सामाजिक विज्ञानों में मनुष्यों के व्यवहार का निरीक्षण किया जाता है जो भौतिक जगत् की तरह केवल बाह्य नियमों से नियमित नहीं होता। मनुष्य विचारशील प्राणी है; उनकी व्यक्तिगत और समूहगत अधिमान्यताएँ उनके व्यवहार में विविधता ला देती हैं। दूसरे, भौतिक प्रक्रियाओं की तरह सामाजिक प्रक्रियाओं का सूक्ष्म निरीक्षण नहीं किया जा सकता, क्योंकि प्रत्येक सामाजिक प्रक्रिया किसी व्यापक प्रक्रिया का अंग होती है-इसे उससे पृथक् करके देखना संभव नहीं होता। फिर, मानवीय संबंधों के प्रतिमान देश-काल के साथ बदल जाते हैं, और (शुद्ध ऑक्सीजन या शुद्ध गंधक की तरह) ऐसा कोई भी प्रतिमान शुद्ध रूप में नहीं पाया जाता। इसके अलावा, निरीक्षक की उपस्थिति ही निरीक्षत व्यक्तियों के व्यवहार को प्रभावित कर देती है जिससे उसके सही-सही निरीक्षण में बाधा पैदा हो जाती है। दूसरी ओर, स्वयं निरीक्षक अपने पूर्वाग्रह के कारण किसी घटना के कुछ पक्षों पर आवश्यकता से अधिक या आवश्यकता से कम ध्यान दे सकता है। तीसरे, सामाजिक घटनाओं के निरीक्षण की तकनीकें और उपकरण लगातार विकसित तो हो रहे हैं, परंतु फिर भी वे प्राकृतिक विज्ञानों में प्रयुक्त तकनीकों और उपकरणों जितने उन्नत नहीं हो सकते। अंततः सामाजिक संगठन भौतिक जगत् को तरह अटल और अपरिवर्तनीय नहीं है; अतः सामाजिक वैज्ञानिक तथ्यों का अन्वेषण करके संतुष्ट नहीं हो जाता बल्कि वह अपनी मान्यताओं और सूझ-बूझ के अनुसार सामाजिक संगठन में सुधार देने को तत्पर होता है, और इस तरह वह एक वैज्ञानिक के सीमा क्षेत्र का अतिक्रमण कर जाता है। राजनीति विज्ञान के मामले में सामाजिक संगठन के रूपांतरण की अभिलाषा और भी प्रखर होती है। अतः इसमें वैज्ञानिक पद्धति का निर्वाह और भी कठिन सिद्ध होता है।

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shubham yadav

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