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प्रयोजनमूलक हिन्दी के प्रमुख तत्त्व
प्रयोजनमूलक हिन्दी आधुनिक भाषाविज्ञान की अत्याधुनिक उपशाखा के रूप में विकसित हुई है। प्रयोजनमूलक एक पारिभाषिक शब्द है जो भाषा की अनुप्रयुक्तता और प्रायोगिकता के निश्चित अर्थ में प्रयुक्त होता है। सामान्य रूप से हिन्दी भाषा का प्रयोग तो हम सभी अपने दैनिक जीवन के विचार-विनिमय व कार्य-व्यवहारों में करते हैं, किन्तु प्रयोजनमूलक हिन्दी का प्रयोग विशिष्ट प्रयोजन के लिए ही होता है। इस प्रकार प्रयोजनमूलक हिन्दी की कुछ विशिष्ट विशेषताएँ व तत्त्व हैं, जो इसे सामान्य हिन्दी भाषा से अलग करती हैं।
प्रयोजनमूलक हिन्दी की संरचना, संकल्पना और संचेतना के विश्लेषणोपरान्त उसके कुछ प्रमुख तत्त्व सामने आते हैं, जो निम्नलिखित हैं-
1. पारिभाषिक शब्दावली- यह प्रयोजनमूलक हिन्दी का प्रमुख तत्त्व है। प्रयोजनमूलक हिन्दी की अपनी पारिभाषिक शब्दावली होती है जिसके अन्तर्गत शब्दों के वर्गीकरण, तद्भव, तत्सम, देश, विदेशी और आगत शब्दों का वर्गीकरण किया जाता है। इसमें शब्दों के वर्गीकरण के अनेक आधार हैं, जैसे- नाम और व्यापार के आधार पर संज्ञा और क्रिया- ये दो भेद किये जाते हैं। रचना के आधार पर मूल और यौगिक अन्तर किये जाते हैं। शब्द किस भाषा से आया है, इस आधार पर तद्भव व तत्सम और देशज आदि का वर्गीकरण प्रस्तुत किया जाता है। कुछ विद्वान प्रयोग के आधार पर शब्दों के तीन अन्य भेद भी करते हैं- (i) पारिभाषिक (ii) अर्ध पारिभाषिक (iii) सामान्य ।
2. अनुवाद- अनुवाद, प्रयोजनमूलक हिन्दी का दूसरा मूलतत्त्व है। अनुवाद की प्रक्रिया अनेक स्तरों पर होती है। उसका एक स्तर विज्ञान की तरह विश्लेषणात्मक है जो क्रमबद्ध विवेचन की अपेक्षा रखता है। उसका दूसरा स्तर संक्रमण का स्तर है जो शिल्प के अन्तर्गत आता है और तीसरा स्तर पुनर्गठन अथवा अभिव्यक्ति का स्तर है जो कला के अन्तर्गत माना जाता है।
प्रयोजनमूलक हिन्दी के साथ-साथ वर्तमान समय में एक अत्याधुनिक माध्यम के रूप में अनुवाद की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। विश्व फलक पर आविर्भूत होते ज्ञान-विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी के अनेकविध क्षेत्रों का फैलाव समस्त जगत में तीव्रगति से हो रहा है। ज्ञान-विज्ञान के उक्त सभी क्षेत्रों, देश-विदेशों की संस्कृति तथा देश के प्रशासन आदि को यथाशीघ्र समुचित ढंग से अभिव्यक्ति देने में एक अनिवार्य तत्त्व के रूप में अनुवाद का महत्त्व स्वयंसिद्ध है। इस प्रकार प्रयोजनमूलक हिन्दी के रूप, ज्ञान क्षेत्र, पारिभाषिक शब्द-भण्डार तथा भाषिक संरचना की विशिष्टता आदि की श्रीवृद्धि में अनुवाद की अनिवार्य तथा अहम् भूमिका बनी हुई है।
3. भाषिक संरचना- यह प्रयोजनमूलक हिन्दी का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण तत्त्व हैं। प्रयोजनमूलक भाषा की प्रयुक्ति में विशेष प्रयास, प्रयुक्ति बोध तथा क्षेत्र विशेष का विशेष ज्ञान होना प्रयोक्ता के लिए अनिवार्य होता है, क्योंकि इसकी शब्दावली, भाषिक संगठन तथा प्रयुक्ति के उद्देश्य सामान्य व्यवहार की हिन्दी भाषा से पृथक होते हैं। इन्हीं आवश्यकताओं के आधार पर यह प्रयोजनमूलक भाषा कहलाती है। प्रयोजनमूलक भाषा एकार्थक तथा स्पष्ट होती है जिससे प्रयोक्ता की बात को निश्चित और सही-सटीक अर्थों में समझा जा सके प्रयोजनमूलक भाषा में व्यंग्यार्ध तथा अलंकार आदि का प्रयोग नहीं होता है। इस भाषा की भाषिक अभिव्यक्ति शैली गम्भीर, वाच्यार्थ प्रधान तथा व्यंग्यार्थ रहित होती है। इसका एक मानक रूप निश्चित होता है। प्रयोजनमूलक हिन्दी की भाषिक संरचना में वैज्ञानिक तथा तकनीकी (पारिभाषिक) शब्दावली का प्रयोग बाहुल्य अनिवार्य रूप से विद्यमान रहता है। चूँकि प्रयोजनमूलक हिन्दी माध्यम से विज्ञान, प्रौद्योगिकी विधि, मानविकी तथा प्रशासन जैसे गम्भीर विषयों का विवेचन-विश्लेषण किया जाता है, अतः उसकी भाषा-शैली में भी विचारात्मकता, गम्भीरता तथा दुरूहता का होना स्वाभाविक है। विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी जैसे विषयों के निरूपण हेतु उसकी संकल्पनाओं व प्रतीक चिह्नों आदि के कारण इसकी संरचना में गम्भीरता के साथ-साथ जटिलता एवं दुरूहता आ जाती है। फलतः विभिन्न-ज्ञान-विज्ञान तथा प्रशासन की शाखाओं और उपशाखाओं की अभिव्यक्ति के सन्दर्भ में स्थिति तथा विषयवस्तु के अनुसार प्रयोजनमूलक हिन्दी की भाषा-संरचना में विभिन्नता पायी जाती है, किन्तु इसके बावजूद उसकी भाषिक संरचना की विशिष्टता अनवरत बनी हुई है जिसके कारण प्रयोजनमूलक हिन्दी अपने विकास पथ पर अबाध रूप से अग्रसर होती जा रही है।
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