अनुक्रम (Contents)
प्रयोजनमूलक हिन्दी के विविध रूप
आज की प्रयोजनमूलक हिन्दी के अनेक रूप हैं, जैसे-
(अ) सर्जनात्मक भाषा (CREATIVELANGUAGE)
चिन्तक, विचारक, लेखक, कवि अपने विचार या चिन्तन को रूपायित करने हेतु भाषा के जिस रूप को माध्यम बनाता है, उसे ही सर्जनात्मक भषा कहते हैं। दूसरे शब्दों में यों कहें कि जो तत्त्व भाषा की सपाट भित्ति को कलात्मक कलेवर और रूपात्मक सम्पृक्ति प्रगदान करते हैं, उनकी संशलिष्टि सर्जनात्मक भाषा कहलाती है। संक्षेपतः जिस भाषा-रूप को रचना का माध्यम स्वीकार कर लिया जाता है, उसे सर्जनात्मक भाषा कहते हैं। रचनाकार की विचाराभिव्यक्ति के लिए यह स्वतः बढ़ने और फैलने वाले विशाल वन के समान होती है। साहित्यिक भाषा की तरह इसमें भी रचनाकार भाव, विचार, विमर्श, रस, छन्द, अलंकार तथा अनुरूप वर्णविन्यास-सृजन के साथ-साथ सुन्दरता, मधुरता एवं रोचकता का विशेष ध्यान रखता है।
आवश्यकतानुसार साहित्यिक भाषा की भाँति इस भाषा-रूप में थोड़ी-बहुत शब्द शक्ति, वक्रोक्ति विधान, बिम्ब-विधान, प्रतीक योजना और ध्वन्यात्मक संवेदना के साथ मिथकों की संयोजना भी रहती है। इसमें संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण, क्रिया आदि रूप मात्र व्याकरणिक न होकर भावावबोध के साथ जुड़े रहते हैं। इसीलिए इसमें सृजन की अपूर्व शक्ति एवं क्षमता सन्निहित रहती है। “भक्ति, रहस्य, दर्शन, राजनीति एवं विविध लोक-ज्ञान के निमित्त पृथक्-पृथक् शब्द-सृष्टि, भाव-सृष्टि एवं समग्रतः आकार-सृष्टि सर्जनात्मक भाषा के गुण हैं। अर्थवान् साहित्य-सृजन सर्जनात्मक भाषा के कर्त्तव्य क्षेत्र होते हैं। व्याकरणिक-नियमोपनियम सर्जनात्मक भाषा की शक्ति परिधि है।” सर्जनात्मक भाषा में गद्य और पद्य की भाषा के अलग-अलग गुण हैं। सृजन की भाषा में ध्वनि और रूप तत्त्व मनोवैज्ञानिक आधार भी धारण करते हैं। वहाँ अर्थतत्त्व सर्जक की मनोवृत्ति का भी उपबृंहण करते हैं।
अस्तु, सर्जनात्मक भाषा का प्रतिफलन साहित्यिक भाषा के रूप में होता है। यह भाषा सभ्य, परिष्कृत और समाजोपयोगी होती है। भाषा का सर्जक ऐसी पद्धति से स्थायित्व लाभ पाता है। हिन्दी का एक रूप सर्जनात्मक भी है। आज इसमें विविध ज्ञान-विज्ञान के उच्चकोटि के साहित्य का सृजन हो रहा है। भविष्य में हिन्दी के इस भाषा से निरन्तर विकास एवं समृद्धि की संभावनाएँ अधिक हैं, क्योंकि सर्जनात्मक भाषा के रूप में हिन्दी की अभिव्यक्ति क्षमता का इस बीच पर्याप्त विस्तार हुआ है और हो रहा है।
(ब) संचार-भाषा
जन-संचार के व्यापक माध्यमों को अब संक्षेप में संचार माध्यम कहा जाने लगा है। यह अँगरेजी के ‘मास-मीडिया’ या ‘मीडिया’ का समानार्थक है। इसी प्रकार, इन माध्यमों में प्रयुक्त भाषा संचार भाषा कहलाने लगी है। आज ये माध्यम – समाचार पत्र पत्रिकाएँ, रेडियो, टी.वी., फिल्में, मोबाइल, इंटरनेट आदि तकनीकी विकास के साथ-साथ और अधिक व्यापक, क्षिप्र तथा प्रभावी होते जा रहे हैं। अतः संचार-भाषा के दो सर्वाधिक आवश्यक तत्त्व हैं- सहज-पैना संप्रेषण और क्षिप्रता। इन माध्यमों द्वारा लक्षित जनता के भाषिक स्तर, रुचि और विशेषज्ञता में अत्यधिक अन्तर होने से संचार भाषा का सहज, सरल और सर्वग्राह्य होना अनिवार्य है। फलतः उसे विशिष्ट पारिभाषिक या स्थानीय शब्दावली से मुक्त और सामान्यीकृत भी होना चाहिए। मोबाइल के समस (एस.एम.एस.) या ई मेल तथा टी.वी. जैसे दृश्य-श्रव्य माध्यमों में जहाँ उसका अत्यन्त संक्षिप्त होना आवश्यक है, वहीं लियों के आँखों देखे हाल आदि में उसका सटीक पर विस्तृत ब्यौरों से युक्त होना लाभप्रद होता।
(स) माध्यम भाषा
हिन्दी माध्यम भाषा अंगरेजी ‘मीडियम लैंग्वेज’ का प्रतिरूप है। जिस भाषा द्वारा पठन-पाठन और शिक्षण-प्रशिक्षण की व्यवस्था की जाती है, उसे माध्यम भाषा कहते हैं। आज देश में खासकर मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, हरियाणा, दिल्ली और हिमाचल प्रदेश के साहित्य सृजन का माध्यम हिन्दी है। इन प्रदेशों की शिक्षा-दीक्षा, पठन-पाठन, प्रशासन, शिष्ट-सुशिक्षित समाज के बोल-चाल, प्रचार-प्रसार, रेडियो, दूरदर्शन, प्रतियोगी परीक्षा, दैनिक, पाक्षिक, साप्ताहिक समाचार पत्र तथा वाणिज्यिक, वैज्ञानिक, साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन एवं प्रसारण की एक मात्र माध्यम भाषा हिन्दी ही है।
डॉ. नारायणदत्त पालीवाल ने अपनी पुस्तक ‘आधुनिक हिन्दी का प्रयोग में लिखा है कि “समाज की नयी आवश्यकताओं की पूर्ति के साधन के रूप में और भारतीय जन-जन के चिन्तन तथा भावनाओं और संवेदनाओं की अभिव्यंजना के माध्यम के रूप में हिन्दी को राजभाषा के रूप में अंगीकार किया गया तथा सभी भारतीय भाषाओं को इस भाषा के पोषक के रूप में संविधान में समुचित स्थान दिया गया है।”
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 351 में हिन्दी के विकास के लिए यह निर्देश दिया गया है “हिन्दी भाषा की प्रसार वृद्धि कर उसका विकास करना ताकि वह भारत की सामाजिक संस्कृति के सब तत्वों की अभिव्यक्ति का माध्यम हो सके।” इसीलिए देश के सार्वजनिक कार्यक्षेत्रों, प्रशासन, शिक्षा और प्रतियोगितात्मक परीक्षाओं के माध्यम के रूप में हिन्दी के प्रयोग को बढ़ाने के लिए शासन स्तर पर अनेक प्रकार के प्रयास किये जा रहे हैं। इन प्रयासों को सफल बनाने के लिए सभी का सहयोग अपेक्षित है। भारत की प्रधानमंत्री स्वर्गीया श्रीमती इन्दिरा गाँधी ने कहा था कि- “हिन्दी देश की एकता की ऐसी कड़ी है, जिसे मज़बूत करना प्रत्येक भारतीय का कर्तव्य है।”
(द) मातृभाषा
मातृभाषा का कोशगत अर्थ है- ‘अपने जन्म स्थान, अपने घर में बोली जाने वली भाषा, स्वभाषा। अर्थात् मूल-परिवेशगत पारस्परिक बोलचाल की भाषा को मातृभाषा कहते हैं। दूसरे शब्दों में विचारों, भावनाओं तथा अनुभूतियों के सम्प्रेषण हेतु ‘जन्म काल से ही’ अपने पारिवारिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक परिवेश में सहज-स्वाभाविक रूप से सीखी गयी भाषा व्यक्ति की मातृभाषा कहलाती है। मातृभाषा वस्तुतः सांस्कृतिक विरासत के रूप में व्यक्ति को प्राप्त होती है। आरम्भ में बालक इस भाषा को स्वतः प्रयास, अभ्यास तथा अनुकरण द्वारा सीखता तथा व्यवहार में लाता है। हिन्दी उत्तर भारत में प्रायः मातृभाषा के रूप में प्रतिष्ठित है। मातृभाषा के रूप में हिन्दी आज लगभग 50 करोड़ भारतीयों के माध्य प्रचलित है। इसके सहारे सैकड़ो-हजारों व्यक्ति किसी-न-किसी रूप में देश-देशान्तर में अपना वैचारिक आदान-प्रदान करते हैं।
हिन्दी का मातृभाषा रूप अपनी सरलता, सहजता, सुगमता, बोधगम्यता और रोचकता के लिए विख्यात है। इसमें लोक-जीवन की सहज स्वर-लिपियाँ हैं। भारतीय कृषक एवं ग्राम्य संस्कृति की अनुगूंज है और संस्कृत से लेकर पालि, प्राकृत और अपभ्रंश की भाषिक परम्परा के जीवन्त संस्कार हैं। विदेशी भाषाओं तथा विभिन्न भारतीय भाषाओं ने भी इसे सजाया-सँवारा है। इसलिए मातृभाषा हिन्दी जन-जन का कण्ठहार बनी हुई है।
(य) राजभाषा (Official Language)
किसी देश, प्रदेश या राज्य के शासन तथा राजकीय कार्य व्यवस्था के लिए जिस भाषा का प्रयोग किया जाता है, उसे राजभाषा कहते हैं। अर्थात् जो भाषा सरकार या राज्य के कार्यों के लिए प्रयुक्त होती है, वह राजभाषा है। कहने का तात्पर्य यह कि राजकाज की भाषा ‘राजभाषा’ कहलाती है। केन्द्र सरकार विभिन्न राज्यों से तथा एक राज्य दूसरे राज्यों एवं केन्द्र सरकार से जिस भाषा में पत्र-व्यवहार करता है, वही राजभाषा होती है। ऐसा ही आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी ने भी लिखा है– “राजभाषा उसे कहते हैं, जो केन्द्रीय और प्रादेशिक सरकारों द्वारा पत्र-व्यवहार, राज-कार्य और अन्य सरकारी लिखा-पढ़ी के काम में लायी जाये।” डॉ. भोलानाथ तिवारी का कहना है कि– “राजभाषा वह है जिसका प्रयोग राज्य के कामों में होता है।” राजभाषा की प्रयोग परिधि का निर्धारण करते हुए प्रो. देवेन्द्रनाथ शर्मा ने लिखा है- “राजभाषा का प्रयोग मुख्यतः चार क्षेत्रों में अभिप्रेत है शासन, विधान, न्यायपालिका और कार्यपालिका। इन चारों में जिस भाषा का प्रयोग हो, उसे राजभाषा कहेंगे।”
सरकारी आदेश एवं राजाज्ञाएँ इसी भाषा में मुद्रित प्रकाशित होती हैं और केन्द्र एवं प्रदेशों के मध्य सम्पर्क स्थापित करने का कार्य भी इसी भाषा के द्वारा होता है। भारतीय संविधान में हिन्दी भारत राष्ट्र की राजभाषा है, इसका अभिप्राय यह है कि “केन्द्र अपना कार्य हिन्दी में करे, साथ ही विभिन्न प्रदेश शासन सम्बन्धी आपसी पत्र व्यवहार या केन्द्र के साथ पत्र-व्यवहार हिन्दी के माध्यम से करें।” राज-भाषा का अर्थ है “राज चलाने की भाषा।” भारत में पहले संस्कृत राजभाषा रही, फिर प्रकारान्तर से पालि, प्राकृत, अपभ्रंश, फारसी तथा अंगरेजी को राजभाषा का गौरव प्राप्त हुआ और भारत राष्ट्र के स्वतन्त्र होते ही हिन्दी को राजभाषा घोषित किया गया।
- पत्राचार से आप क्या समझते हैं ? पत्र कितने प्रकार के होते हैं?
- पत्राचार का स्वरूप स्पष्ट करते हुए कार्यालयीय और वाणिज्यिक पत्राचार को सोदाहरण स्पष्ट कीजिए।
- प्रयोजनमूलक हिन्दी के प्रमुख तत्त्वों के विषय में बताइए।
- राजभाषा-सम्बन्धी विभिन्न उपबन्धों पर एक टिप्पणी लिखिए।
- हिन्दी की संवैधानिक स्थिति पर सम्यक् प्रकाश डालिए।
- प्रयोजन मूलक हिन्दी का आशय स्पष्ट कीजिए।
- प्रयोजनमूलक हिन्दी के विषय-क्षेत्र की विवेचना कीजिए। इसका भाषा-विज्ञान में क्या महत्त्व है?
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