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बेंथम के विचारों की आलोचना। Criticism of Bentham। बेंथम का महत्व। Importance of Bentham
बेंथम के विचारों की आलोचना – इस पोस्ट में राजनीति विज्ञान के महत्वपूर्ण टॉपिक प्रसिद्ध उपयोगितावादी विचारक बेंथम के विचारों की आलोचना। Criticism of Bentham। बेंथम का महत्व। Importance of Bentham के विचारों की आलोचना तथा राजनीतिक चिंतन के क्षेत्र में उसके योगदान और महत्व के बारे में बताया गया है…
बेंथम के विचारों की आलोचना-
बेंथम 18 वीं शताब्दी का महत्वपूर्ण विचारक है उसकी विचारधारा यथार्थवादी है, को मानव जीवन के दो प्रेरक तत्व बताकर उसने एक मनोवैज्ञानिक औ सुख सत्य का उद्धाटन किया है, लेकिन बहुत अधिक सरल और यथार्थवादी बनने के प्रयास में बेंथम का दर्शन कुछ सीमा तक एकपक्षीय, विरोधाभासी और भौतिक हो गया है.
बेंथम के दर्शन की मुख्य आलोचनाएं इस प्रकार हैं-
1. बेंथम ने अपने उपयोगितावाद को बहुत अधिक भौतिकवादी बना दिया है और उसमें उसने नैतिकता और अन्य भाव और प्रवृत्तियों का पूरी तरह से त्याग कर दिया है. प्रत्येक चीज को सुख-दुख के पैमाने पर नापना किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है. भौतिक सुख को महत्व देने के क्रम में उसने अंतःकरण, धर्म-अधर्म, सत्य-असत्य, उचित-अनुचित को कोई स्थान नहीं दिया है, जबकि ऐसी स्थिति समाज में घोर अव्यवस्था और अनैतिकता फैलाने में सहायक होगी.
2. बेंथम का उपयोगितावाद यह मानता है कि सुखों में केवल मात्रा का अंतर होता है गुणों का नहीं, यह स्थिति अत्यंत ही विरोधाभासी है क्योंकि ऐसे में कोई जीवन की श्रेष्ठ प्रवृत्तियों को नहीं समझ सकता. ताश खेलने या सिनेमा देखने में वही आनंद नहीं प्राप्त हो सकता जो शेक्सपियर या कालिदास की रचनाओं के अनुशीलन से होता है,
3. इसके अलावा बेंथम ने नैतिकता की घोर अवहेलना की है बेंथम का दर्शन ठीक उसी प्रकार से है जैसे भारतीय चार्वाक दर्शन, यह केवल भौतिक सुख को ही आनंद का सर्वोच्च लक्ष्य मानता है. बेंथमवादी दर्शन को अपना लेने में एक समस्या यह आएगी कि जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में भौतिकता हावी हो जाएगी, नैतिक अनैतिक कार्यों में कोई भेद नहीं रहेगा और व्यक्तियों की अंतरात्मा का कोई महत्व नहीं रह जाएगा.
4. बेंथम अपने सिद्धांत में यह घोषित करता है कि जो कार्य अधिक सुख देता है वह उचित और मान्य हैं और जो कार्य दुख देता है वह अनुचित और अमान्य है, लेकिन सुख और जो पैमाना बेंथम द्वारा बनाया गया है वह कहीं से भी दुख की गणना करना इतना आसान नहीं है. सुखो और दुखों को मापने का सुख-दुख को नहीं माप सकता क्योंकि गणित जैसी निश्चितता से मनोवृत्तियों को नहीं मापा जा सकता.
5. बेंथम का यह मानना कि मनुष्य द्वारा कोई भी कार्य सुखों की प्राप्ति और सुख को बढ़ाने के लिए किया जाता है पूरी तरह से उचित नहीं है, क्योंकि मनुष्य किसी कार्य को रुचि, सूत्र – “अधिकतम व्यक्तियों का अधिकतम हित” है जिसमें वह प्रत्येक व्यक्ति के आनंद का नहीं बल्कि बहुसंख्यक वर्ग के आनंद पर बल देता है जिसके कारण यह सिद्धांत कहीं न कहीं बहुसंख्यक वर्ग द्वारा अपने हितों की वृद्धि और हित संवर्धन के बदले अल्पसंख्यकों पर अत्याचार को बढ़ावा देता है. इस कारण बेंथम का उपयोगितावाद कहीं न कहीं अल्पसंख्यकों के हितों पर भी आघात करता है.
7. बेंथम का सिद्धांत जितना सरल और स्पष्ट दिखता है उतना है नहीं. वह अपने सिद्धांतों के प्रतिपादन में व्यवहारिक बन जाता है और जब वह यह मान लेता है कि प्रकृति ने मानव जाति को दो प्रभुत्वपूर्ण शक्तियों सुख और दुख के नियंत्रण में छोड़ रखा है तो व्यक्ति का अपना कोई अस्तित्व और उसका कोई स्वतंत्र चिंतन नहीं रह जाता है. क्योंकि मनुष्य केवल इन्हीं दो शक्तियों लगता है और यदि बेंथम के इन विचारों को सही भी मान लिया जाए तो उसका मापदंड और सिद्धांत दोनों निरर्थक हो जाते हैं.
8. मनोवैज्ञानिक दृष्टि से भी बेंथम का उपयोगितावादी सिद्धांत अत्यंत ही भ्रामक है, क्योंकि मनुष्य की इच्छाएं और आकांक्षाएं विभिन्न परिस्थितियों में भिन्न-भिन्न होती हैं और सुख दुख भी बराबर ना होकर भिन्न भिन्न होता है., दो मनुष्यों की अनुभूतियां एक समान नहीं हो सकती हैं और इस कारण यह भी हो सकता है कि जो बात एक व्यक्ति को सुखदाई लग रही हो वह बात दूसरे व्यक्ति के लिए दुखदाई हो.
9. केवल और केवल सुख और आनंद पर बल देने के कारण बेंथम यह भूल जाता है कि सुख या आनंद आनंद प्राप्त की इच्छा कभी न खत्म होने वाली इच्छा है और एक व्यक्ति जितना ही इच्छाओं की पूर्ति में लगा रहता है वह उतनी ही बढ़ती जाती हैं और इस क्रम में वह कभी-कभी अनैतिक और अनुचित कार्य भी करने लगता हैं.
10. बेंथम का विचार और दर्शन अनेक प्रकार की त्रुटियों से भरा हुआ है. उसके विचारों में परस्पर अंतर्विरोध पाया जाता है. बेंथम राज्य और सरकार के बीच कोई भेद नहीं करता है, वह राज्य और व्यक्ति के संबंधों पर भी कोई बात नहीं करता है, स्वतंत्रता और समानता को वह उचित महत्व नहीं देता है और बेंथम की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि उसने मानव जीवन को इतनी आसानी से व्याख्यायित कर दिया की ना तो वह मानव जीवन की समस्याएं समझ पाया और ना ही उन समस्याओं के निराकरण का ही कोई प्रयास कर पाया.
बेंथम की देन और महत्व-
- बेंथम की विचारधारा में अनेक दोष और अंतर्विरोधों होने के बावजूद राजनीतिक चिंतन के इतिहास में उसे अत्यंत सम्मानित और महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है, अपनी यथार्थवादिता और सुधारवादी प्रयासों के आधार पर उसने व्यावहारिक राजनीति को एक नई दिशा प्रदान की. एक विधि सुधारक और समाज सुधारक के विचारक के रूप में बेंथम के महत्व को कभी भुलाया नहीं जा सकता.
- बेंथम की एक महत्वपूर्ण देन यह है कि उसने आदर्शवाद के स्थान पर व्यावहारिकता और यथार्थवाद को महत्व दिया और माना कि राज्य के कार्यों का मापदंड अधिकतम व्यक्तियों का अधिकतम सुख होना चाहिए.
- इसके अलावा बेंथम ने कानून और न्याय व्यवस्था शिक्षा और दंड व्यवस्था के क्षेत्र में सुधार का भी प्रयास किया. इस क्षेत्र में जितना कार्य बेंथम ने किया संभवत: उतना किसी अन्य व्यक्ति ने नहीं.
- बेंथम ने प्रेस की स्वतंत्रता, गुप्त मतदान, वयस्क मताधिकार के साथ-साथ स्वस्थ लोकतंत्र और लोकतांत्रिक संस्थाओं का समर्थन किया साथ ही उसके विचारों से लोगों के मन में यह धारणा विकसित हुई कि राज्य को कुछ लोगों के स्वार्थ सिद्धि का साधन नहीं बल्कि उसे जनकल्याण का साधन बनाया जाना चाहिए.
- इसके अलावा राजनीतिक चिंतन के क्षेत्र में बेंथम की एक अत्यंत महत्वपूर्ण देन खोज और अनुसंधान की प्रवृत्तियों का विकास करना था. बेंथम ने सार्वजनिक नीति के क्षेत्र में अनुभववादी व्यवहारपरक और आलोचनात्मक पद्धति का सूत्रपात किया और बेंथम के विचार आगे के अनेक राजनीति शास्त्रियों के लिए प्रेरणा के स्रोत रहे.
- इस प्रकार कहा जा सकता है कि राजनीतिक चिंतन के क्षेत्र में बेंथम का स्थान बहुत ही महत्वपूर्ण है उसने अपनी प्रतिभा से केवल इंग्लैंड को ही नहीं बल्कि रूस, पुर्तगाल, स्पेन, मेक्सिको और दक्षिण अमेरिका के विभिन्न देशों को प्रभावित किया. अंतरराष्ट्रीय क्षेत्र में बेंथम को बहुत सम्मान मिला और बेंथम की इन्हीं देनों को ध्यान में रखकर मिल ने लिखा है कि- उसे मानव जाति के सर्वाधिक बुद्धिमान और महान शिक्षकों में स्थान दिया जाना चाहिए क्योंकि उसमें मानव को शाश्वत मूल्य के विचार प्रदान किए हैं.
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