बैंजामिन गाई हार्निमैन का जीवन परिचय – जिस प्रकार श्रीकृष्ण की पालनहार माता का यश भी इनकी जन्मदात्री मां से कम नहीं है, वैसे ही भारत मां के उन बेटों का यश भी सीमित नहीं किया जा सकता है, जिन्होंने भारतभूमि से पैदा होने का सौभाग्य नहीं पाया था, किंतु, जो भारतभूमि में रहे व भारत को अपना देश स्वीकार करके इसके स्वाभिमान व देश को लोगों के हित के लिए आजीवन संघर्ष करते रहे। बैंजामिन उन्हीं लोगों में शामिल किए जाते हैं उपनिवेशवादी इंग्लैंड में जन्म लेने पर भी भारतीय धरा और भारत की जनाकांक्षाओं की पैरवी करने वालों में बैंजामिन गाई हार्निमैन एक बड़ा नाम रहा है। इनका जन्म 1873 में इंग्लैंड में हुआ था। शिक्षा पूर्ण करने के पश्चात् ये कई वर्षों तक इंग्लैंड के अलग-अलग अखबारों में कार्य करते रहे। 1906 में ये भारत आए तथा कोलकाता के अंग्रेजी दैनिक ‘स्टेट्समैन’ में उप संपादन कार्य करने लगे। ये इस अखबार में भारत की स्थानीय समस्याओं के बारे में लिखा करते थे।
1913 में सर फीरोजशाह मेहता मुंबई से एक अखबार निकालना चाहते थे। उसके संपादन के लिए तब सुरेंद्रनाथ बनर्जी ने हार्निमैन का नाम ही इन्हें सुझाया था।
“इस तरह ‘बांबे क्रॉनिकल’ के संपादक स्वरूप 1913 में हार्निमैन मुंबई पहुंच गए। ‘स्टेट्समैन’ जहां अंग्रेजों का अखबार था, वहीं ‘बांबे क्रॉनिकल’ भारतीय आकांक्षाओं का परिचायक था। इसमें हार्निमैन ने भारतीय आजादी की भावनाओं की पैरवी करना भी आरंभ कर दिया। ब्रिटिश हुकूमत को यह बर्दाश्त नहीं था, लेकिन वह चाह कर भी हार्निमैन पर देशद्रोह का अभियोग नहीं चला सकी, क्योंकि ये अपने लेख कानूनी मर्यादाओं में रहते हुए लिखा करते थे। तब सरकार ने 1919 में ‘भारत रक्षा कानून’ के अंतर्गत उन्हें भारत-भूमि से निष्कासित कर दिया। 1926 तक ये इंग्लैंड में रहे और तब पुनः भारत लौटकर ‘बांबे क्रॉनिकल’ का संपादन करने लगे ।
1933 में इन्होंने संपादक का पद त्याग दिया। उस समय तक पत्र के पूर्व संपादक अब्दुल्ला बरेलवी जेल से रिहा होकर आ चुके थे। हार्निमैन ने खुद को पूरी तरह से भारतीय भावनाओं के अनुरूप ढाल लिया था। जलियांवाला बाग तथा अमृतसर में हुए अत्याचारों के बारे में लिखी इनकी पुस्तकें इसका साक्ष्य हैं। 1948 में हार्निमैन का निधन हो गया।
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