B.Ed./M.Ed.

भारत में विभिन्नता- भाषागत विभिन्नता, सामाजिक विभिन्नता, जनजातीय विभिन्नता

भारत में विभिन्नता
भारत में विभिन्नता

भारत में विभिन्नता

क्षेत्रीय या भौगोलिक दृष्टि से भारत में अनेक विविधताएँ व्याप्त हैं। इसमें 8000 मीटर की ऊँचाई पर स्थित हिमालय की चोटियों से लेकर दक्षिण में सपाट मैदान है। भूमि क्षेत्र के भी कई प्रकार है- द्वीप, उष्णकटिबन्धीय वन, गर्म रेगिस्तान व बड़े डेल्टा आदि हैं।

इसमें उत्तर का पर्वतीय क्षेत्र है, दक्षिण का पठार है, राजस्थान का मरुस्थल है तो गंगा-सिन्धु का मैदान व समुद्र का तटीय मैदान भी है। इसी कारण यहाँ की जलवायु में भी विभिन्नता पायी जाती है। परंतु यहाँ के निवासी अपने में अलग रहते हुए भी एकता का अनुभव करते रहे हैं। जब कभी भी बाह्य संस्कृतियों से सम्पर्क और युद्ध का मौका आया है तब देश के निवासियों ने अपने आपको सदैव एक समझा है।

भारतीय संस्कृति में व्याप्त यह भौगोलिक एकता प्राचीन काल से भारतीयों में अपने देश के प्रति अनुभूति से जुड़ी हुई है। ‘मातृभूमि’ मातृदेवी के रूप में पूजनीय रही है । हिन्दुओं की सांस्कृतिक परम्पराओं में भी इसके प्रमाण मिलते हैं। प्रत्येक धार्मिक पूजा करने वाला व्यक्ति ‘भरतखण्डे जम्बूद्वीपे’ आदि से अपना नाम और गोत्र लेकर पूजा प्रारम्भ करता है अर्थात् वह यह घोषणा करता है कि मैं जम्बूद्वीप में भारतवर्ष का निवासी अमुक नाम का व्यक्ति यह संस्कार सम्पन्न कर रहा हूँ। इसी प्रकार प्रति दिन प्रातःकालीन पूजा में पाँच पवित्र नदियों के नाम लिये जाते हैं—सिन्धु, सरस्वती, गंगा-यमुना, नर्मदा तथा कावेरी । रामायण में भी भगवान राम ने कहा है कि जननी जन्मभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर होती है। इससे पता चलता है कि भारतीयों के मस्तिष्क में भारतवर्ष का नक्शा पहले से ही है और वे इसकी सन्तान होने पर गर्व करते हैं, इसकी धूल को माथे पर लगाकर अपने को धन्य समझते हैं।

महान सम्राट अकबर ने भी फतेहपुर सीकरी के बुलंद दरवाजे पर लिखवा दिया था कि स्वर्ग यदि कहीं है तो यहीं है। ऐसा आभास होता है कि भारतीयों को प्राचीनकाल से ही इस भौगोलिक एकता का ज्ञान था। कोई भी ऐसा कवि, साहित्यकार, वैयाकरण, नीतिकार व राजनीतिज्ञ नहीं हुआ जिसने भारत के किसी भाग को दूसरे देश का समझा हो। हमारे प्राचीनतम महाकाव्यों में भी इस देश का नाम ‘भारतवर्ष’ ही मिलता है। ‘विष्णुपुराण’ के एक श्लोक में तो स्पष्ट रूप से उल्लिखित है-“समुद्र के उत्तर और हिमालय के दक्षिण का सारा प्रदेश भारत है और उसके निवासी भारत की सन्तान हैं।”

भाषागत विभिन्नता (Linguistic Diversity)

भाषा मनुष्य की अभिव्यक्ति का सबसे शक्तिशाली माध्यम है। प्राकृतिक विभिन्नता के कारण इस देश में प्रायः दस मील में भाषा और बोली में अंतर आ जाता है । सन् 1991 की जनगणना के अनुसार देश में 1652 भाषायें बोली जाती थीं। वैसे भारतीय संविधान में केवल 15 भाषाओं का ही उल्लेख किया गया है, इसके अतिरिक्त तीन भाषाओं को 1992 में मान्यता दी गयी है। इन 18 भाषाओं का प्रयोग केवल सरकारी कार्य में किया जाता है। वर्तमान में 22 भाषाओं को मान्यता मिल चुकी है। इन भाषाओं का उपयोग साहित्य अकादमी द्वारा साहित्यिक सम्मान के लिए भी मान्यता मिल चुकी है। इन भाषाओं का उपयोग साहित्य अकादमी द्वारा साहित्यिक सम्मान के लिए भी नहीं किया जाता है। इसके अतिरिक्त भारत में अनेक भाषायें व बोलियाँ हैं, जिनका कुछ-न-कुछ साहित्य है, जैसे— हिन्दी में अवधी, बघेली, भोजपुरी, ब्रज, बुन्देली छत्तीसगढ़ी, हाड़ौती, मगही, मालवी, निमाड़ी, पहाड़ी, राजस्थानी भाषायें और अनेक बोलियाँ सम्मिलित हैं। इस प्रकार हमारे देश व समाज में भाषागत विविधता भी बहुत है। इरावती कर्वे के अनुसार भारतीय समाज में तीन भाषायी परिवारों की भाषाएँ बोली जाती हैं-

(अ) इण्डो-यूरोपीय भाषायी परिवार – भारत में 78.4 फीसदी लोग आर्य भाषा समूह की बोली बोलते हैं। इसमें पंजाबी, सिन्धी, हिन्दी, बिहारी, बंगला, असमिया, राजस्थानी, गुजराती, मराठी, उड़िया, कश्मीरी इत्यादि भाषाएँ सम्मिलित हैं।

(ब) द्रविड़ भाषायी परिवार- भारत में 20.6 फीसदी लोग द्रविड़ भाषा बोलते हैं। इसमें तेलुगु, कन्नड़, तमिल, मलयालम, कोडगू, गोंडी इत्यादि भाषाएँ आती हैं।

(स) आस्ट्रो एशियाई परिवार- इसमें मुंडारी, बौन्दो, जुआंग, भूमिया, संथाली, खासी इत्यादि भाषाएँ आती हैं।

इतनी अधिक भाषायी विविधता के कारण भाषाओं का वर्गीकरण में निश्चित नहीं रह पाता है। मंगोल जाति के लोग तिब्बती-चीनी परिवार की भाषाएँ बोलते हैं। इस भाषा पर आर्य भाषाओं का प्रभाव भी देखने को मिलता है। तमिल, तेलुगु, कन्नड़ और मलयालम द्रविड़ परिवार की मुख्य भाषाएँ हैं जो तमिलनाडु, आन्ध्र प्रदेश, कर्नाटक और केरल में बोली जाती हैं। द्रविड़ भाषाओं के अनेक शब्द और प्रयोग आर्य भाषाओं में आ गये हैं, जबकि संस्कृत के अनेक शब्द द्रविड़ भाषाओं में मिल गये हैं। फिर भी भारत के दक्षिणी राज्यों में उक्त चार भाषाएँ ही प्रचलित हैं। दक्षिण भारत से बाहर भी दो जगहों पर द्रविड़ भाषा बोले जाने का सबूत है। यह इस बात का सबूत है कि द्रविड़ लोग कभी भारत के दूसरे हिस्सों में भी फैले थे। उदाहरणार्थ- बलूचिस्तान की ब्रहुई भाषा द्रविड़ समूह की भाषा मानी जाती है, जबकि झारखण्ड के प्रमुख आदिवासी ओराव जो भाषा बोलते हैं, वह भी द्रविड़ों से मिलती-जुलती है। भाषाशास्त्रियों में इस बात को लेकर भी विवाद है कि बहुई और ओरांव भाषाएँ सच में द्रविड़ परिवार की भाषाएँ हैं या किसी और परिवार की। आदिवासियों के बीच और भी कई बोलियाँ प्रचलित हैं जो वर्गीकरण की दृष्टि से ओष्ट्रिक एवं आग्नेय भाषा समूह में रखी जाती हैं।

धर्म के आधार पर सामाजिक विभिन्नता (Social Diversity on the Basis of Religion)

भारतीय समाज और जनजीवन में धार्मिक विविधता भी बहुत है। विश्व के सभी प्रमुख धर्मों के अनुयायी भारत में रहते हैं और अपनी धार्मिक विशेषताओं को कायम करने का प्रयास करते रहे हैं इसी कारण यह समाज धर्म की दृष्टि से अनेक वर्गों में विभक्त होता गया। 1991 की जनगणना के अनुसार भारत में सात धर्म माने गये हैं— हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई, सिक्ख, बौद्ध, जैन व अन्य धर्म इन धर्मों को मानने वाले लोगों का प्रतिशत 1991 व 2001 की जनगणना के अनुसार निम्नवत् हैं-

धार्मिक समूह जनसंख्या प्रतिशत 1991 जनसंख्या प्रतिशत 2001
हिन्दू 81.53% 80.46%
मुस्लिम 12.61% 13.43%
ईसाई 2.32% 2.34%
सिक्ख 1.94% 1.87%
बौद्ध 0.77% 0.77%
जैन 0.40% 0.41%
पारसी 0.08% 0.06%

हिन्दु धर्म को मानने वालों की संख्या अन्य धर्मों को मानने वालों की तुलना में अत्यधिक है। हिन्दू धर्म में अनेक देवी-देवताओं की आराधना, धार्मिक उत्सव, दान, यज्ञ, व्रत व तीर्थयात्रा आदि का विशेष महत्त्व है। हिन्दू प्रमुख रूप से शैव, वैष्णव, शाक्त और स्मार्त के रूप में विभक्त हैं जो शिव, विष्णु और देवी के उपासक हैं। इनमें भी अनेक उपशाखाएँ हैं जो अनेक मतों, धार्मिक अनुष्ठानों के सिद्धांत पर भिन्न-भिन्न हैं। हिन्दूवाद में विभिन्न मठ और पंथ हैं जो हिन्दू धर्म को जटिल बनाते हैं, जैसे—कबीरपंथी, सतनामी और लिंगायत हैं जो अलग-अलग धर्म का दावा करते हैं। इसी प्रकार वैष्णव सम्प्रदाय मोक्ष प्राप्ति के तीन मार्ग मुख्य रूप से मानता है— कर्म मार्ग, ज्ञान मार्ग और भक्ति मार्ग। कर्म मार्ग में कर्मकाण्ड और यज्ञ आदि की विधियों का उल्लेख किया गया है। ज्ञान मार्ग में ज्ञान प्राप्ति को मोक्ष का माध्यम बनाया गया है। शैव सम्प्रदाय में शिव को परमात्मा माना गया है और कहा गया है कि शंकर वैदिक देवता रुद्र ही हैं और अनादिकाल से आर्यों के देवता हैं। शंकर तथा रुद्र वस्तुतः अमित देवता के ही रूप हैं। शाक्त सम्प्रदाय में मातृदेवी की पूजा का प्रचलन है। बिना शक्ति के शिव शव के समान है। शक्ति को उसके कल्याणकारी रूप में उमा, दुर्गा, भवानी, अन्नपूर्णा आदि नाम से जाना जाता था। शक्ति की पूजा सबसे अधिक बंगाल में आज भी होती है। बंगालियों की इष्ट देवी भी दुर्गा ही हैं। पूर्वी भारत में भी शक्ति पूजा बहुत लोकप्रिय है।

भारतीय मुसलमान दो सम्प्रदायों में बँटे हैं—शिया और सुन्नी। शिया ईरान के बाहर सबसे बड़े समूह में भारत में है, वैसे सुन्नी की तुलना में इनकी संख्या कम है। भारत के सुन्नी हनीफी सम्प्रदाय को मानते हैं जो मुस्लिम कानून के चार सम्प्रदायों में से एक दक्षिण में विशेष रूप से मापिला और लक्षद्वीप टापू में शफी सम्प्रदाय को माना जाता है।

गुजरात के सुन्नी माल्लकी को मानते हैं। चौथा सम्प्रदाय हनवाली भारत में नहीं माना जाता। शियाओं का अपना स्वयं का एक सम्प्रदाय है। ये बारह इमामों में विभाजित हैं जो सात इमामों के अनुयायी हैं।

भारत के ईसाई रोमन कैथोलिक और प्रोटेस्टेण्ट दो भागों में विभाजित हैं । ईसाई और मुसलमानों में यद्यपि स्पष्ट वर्ण विभाजन नहीं है, किन्तु इनमें उच्च जाति और निम्न जाति धर्म परिवर्तन के कारण अंतर को मानती है। उच्च जाति वाले स्वयं को ब्राह्मण, ईसाई, नायर ईसाई अथवा राजपूत या त्यागी मुसलमान कहते हैं । अनुसूचित ईसाई जाति धर्म परिवर्तन के बाद भी सामाजिक, शैक्षिक और आर्थिक दृष्टि से पिछड़ी है।

सिक्ख धर्म के अनुसार सिक्खों के दशम गुरु श्री गुरु गोविन्दसिंह जी महाराज ने हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए ही इस पंथ का निर्माण किया था। सिक्खों के पाँच कार कंघा, केश, कच्छा, कृपाण और कड़ा भी इन्होंने ही प्रचलित किये थे। सन्त गुरु नानकदेव को इस पंथ का संस्थापक माना जाता है । गुरु गोविन्दसिंह स्वयं भी कवि थे और शान्तिस्वरूप माँ दुर्गा के उपासक थे । सिक्ख धर्म में कुल 10 गुरु हुए हैं— 1. गुरु नानकदेव, 2. गुरु अंगददेव, 3. गुरु अमरदास, 4. गुरु रामदास, 5. गुरु अर्जुनदेव, 6 गुरु हरगोविन्द, 7 गुरु हरिराय, 8. गुरु हरिकिशन, 9. गुरु तेगबहादुर और 10 गुरु गोविन्दसिंह।

सिक्ख धर्म एकेश्वरवादी धर्म है, जिसमें एक ही ईश्वर को परम सत्ता माना गया है। यह धर्म-कर्म में आस्था रखता है तथा इसके अनुसार मुक्ति का अर्थ मनुष्य का ईश्वर से साक्षात्कार है। ‘गुरुग्रन्थ साहिब’ में मुक्ति मार्ग का वर्णन गुरु नानकदेव द्वारा किया गया है। तथा पाँच खण्डों-धर्म खण्ड, ज्ञान खण्ड, शरण खण्ड, कर्म खण्ड व सुच खण्ड का वर्णन है। इस प्रकार सिक्ख धर्म गुरु के प्रति असीम श्रद्धा व्यक्त करता है तथा आदिग्रन्थ ‘गुरुग्रन्थ साहिब’ को गुरु का स्थान देता है।

बौद्ध धर्म पहले भारत में पर्याप्त रूप से फैला था, किन्तु वैदिक हिन्दूवाद के बाद यह कुछ स्तरों तक ही सीमित हो गया। अम्बेडकर ने इसे पुनः जागृत किया, किन्तु इसके अनुयायी विशेष रूप से महार जाति के, अपनी परिस्थिति को नहीं सुधार पाये। बाद में बौद्ध धर्म हीनयान व महायान दो भागों में विभक्त हो गया। बौद्ध धर्म अनात्मवाद (The doctrine of no-self) के सिद्धांत में विश्वास करता । जब विश्व की प्रत्येक वस्तु क्षणिक है तो चिरस्थायी सत्ता के रूप में आत्मा को मानना भूल है। बौद्ध धर्म के अनुसार आत्मा पाँच स्कन्धों – रूप, संज्ञा, वेदना, संस्कार और विज्ञान या चेतना का योग है और ये पाँचों स्कन्ध अनित्य हैं, क्षणिक हैं. और सतत् परिवर्तनशील हैं । इसी प्रकार बौद्ध धर्म क्षणिकवाद (The Doctrine of momentariness) पर भी विश्वास करता है जिसके अनुसार प्रत्येक वस्तु का अस्तित्त्व क्षणमात्र के लिए ही रहता है। संसार की प्रत्येक वस्तु . केवल अनित्य ही नहीं है वरन् झणभंगुर भी है।

जैन धर्म से अभिप्राय ‘जिन’ द्वारा प्रणीत धर्म से है । जिस प्रकार विष्णु के अनुयायी ‘वैष्णव’ और शिव के उपासक ‘शैव’ कहलाते हैं, उसी प्रकार ‘जिन’ के उपदेशों को मानने वाले जैन तथा उनके धर्म को जैन धर्म कहा जाता है। ‘जिन’ का अर्थ है-जीतने वाला अर्थात् जिसने राग-द्वेष आदि अपने आत्म-विकारों पर विजय प्राप्त कर ली हो।

जैन धर्म किसी समय भारत में बहुत फैला हुआ था, किन्तु आज उसके अनुयायी बहुत कम हैं और दक्षिण राज्यों में रहते हैं। इसके दो प्रमुख विभाग हैं- (1) दिगम्बर (निर्वस्त्र) और (2) श्वेताम्बर (श्वेत वस्त्रधारी)। दार्शनिक दृष्टि से जैन धर्म यथार्थवादी, सापेक्षवादी व अनेकान्तवादी हैं। यह आत्मा के अस्तित्त्व को स्वीकार करता है और भौतिकवादी दृष्टिकोण से परहेज करता है। जैन धर्म यह भी स्वीकार करता है कि आत्मानुभूति (Self realization) केवल त्याग के द्वारा ही प्राप्त की जा सकती है।

पारसी एक लघु समुदाय है। भारत में इनका आगमन 8वीं शताब्दी में पर्सिया से हुआ और ये भारत की जनसंख्या में घुल-मिल गये। भारत में इनकी जनसंख्या के आकार की तुलना में योगदान अधिक रहा है। धार्मिक कृत्यों के लिए उन्होंने अपने क्षेत्र के व्यापारी समुदायों की जीवन शैली को अपनाया है। ये वंशानुगत पुरोहित अपनों में ही विवाह करते हैं।

इस धर्म के संस्थापक जरथुस्त्र ( Zarathustra) थे। यह धर्म भी वैदिक धर्म की भाँति प्राचीन धर्म है। कुछ विद्वानों के अनुसार महात्मा जरथुस्त्र का जन्म ईसा से 5000 वर्ष पूर्व हुआ था। किसी जमाने में इसका प्रचार मिस्र, रोमन साम्राज्य और ब्रिटेन तक था। भारत की दृष्टि से देखा जाये तो इस धर्म का बहुत महत्त्व है, क्योंकि इस धर्म के इतिहास और वैदिक धर्म के इतिहास से पता चलता है कि ये दोनों मौलिक रूप से आर्य कबीले थे। किसी कारणवश इनमें मतभेद हुआ और ये अलग हो गये। ऋग्वेद और उनकी धार्मिक पुस्तक ‘अवेस्ता’ (Avasta) में अनेक बातों पर साम्य है। इस धर्म के अनुसार ‘आहुर्मजदा’ ही एकमात्र ईश्वर है। वही सारे विश्व का स्रष्टा है । जीवन दो विरोधी शक्तियों के बीच संघर्ष का ही रूप है। ये विरोधी शक्तियाँ नेकी (God) तथा बदी (Evil) हैं। इस पुण्यात्मा (स्पेन्तामैन्यु) और पापात्मा (अंग्रमैन्यु) के तत्त्वों के संघर्ष के द्वारा ही प्रकृति का विकास होता है, समाज का विकास होता है। अन्त में विजय पुण्यात्मा तत्त्व की होती है और पापात्मा तत्त्व पराजित हो जाता है।

ए. आर. वाडिया (A. R. Wadia) ने इस धर्म की ऐतिहासिक भूमिका पर प्रकाश डालते हुए कहा है-” वर्षों से इस धर्म ने अन्य लोगों को अपना नैतिक और आध्यात्मिक उत्साह खुले दिल से हस्तान्तरित किया है। अच्छे विचार, अच्छे वचन और अच्छे कर्म जर स्त्रियों के ही एकाधिकार नहीं हैं। अति प्राचीनकाल में जरथुस्त्र ने यही सीख दी थी और उनका पुरस्कार यह है कि आज यह धर्म समस्त मानवता की विरासत बन गया है।”

ईसाई और जरथुस्त्रों की भाँति यहूदी धर्म भी भारत में एक हजार वर्ष से पहले स्थापित हो चुका था। यहूदियों की प्रमुख दो छोटी-छोटी बस्तियाँ कोचीन (केरल) और महाराष्ट्र में थी। सत्रहवीं शताब्दी में कोचीन में यहूदियों की संख्या करीब 2200 थी। ये लोग गोरे और काले रंग के थे। कालों से गोरे विवाह नहीं करते थे और इनके साथ खाना भी नहीं खाते थे । महाराष्ट्र में इनकी संख्या 14,020 थी। इनका प्रमुख व्यवसाय तेली का था । इनके साथ हिन्दू तेलियों जैसा व्यवहार किया जाता था। इनमें भी गोरे-काले का विभाजन था तथा इनमें परस्पर विवाह और खान-पान के प्रतिबन्ध थे, लेकिन ये सभी लोग एक ही यहूदी उपासना-गृह में प्रार्थना करते थे। अनेक यहूदी बम्बई में जाकर रहने लगे क्योंकि यहाँ पर जाति प्रतिबन्ध नहीं था।

यह धर्म भी अति प्राचीन धर्म है। उनका विश्वास है कि उनके पैगम्बर मूसा (Mousa), जो उनके प्रथम धर्मवेत्ता माने जाते हैं, से पहले भी उनके अन्य पैगम्बर हुए हैं। उनके प्रथम ऐतिहासिक महापुरुष अब्राहम (Abraham) र्न ईसा से 2000 वर्ष पहले यहूदी कबीले के साथ अपना मूल स्थान उर (Ur) छोड़ दिया था और वे अरब के रेगिस्तानों में भटकते हुए अन्त में मिस्र में जा बसे थे। हजरत मूसा ने ईश्वरीय आदेश के अनुसार उन्हें दासता की बेड़ियों से मुक्त कराया और उन्हें पुनः उस भूमि पर ला बसाया जो दूध और शहद से भरपूर थी।

यहूदी धर्म एक सरल धर्म है जो प्रमुखतया नैतिक जीवन पर जोर देता है। यहूदियों के अनुसार, सम्यक् आस्था से अधिक महत्त्वपूर्ण सम्यक् आचरण है। प्रत्येक वह व्यक्ति जो सम्यक् आचरण वाला है, उसके लिए स्वर्ग में स्थान सुरक्षित है। यहूदी धर्म संवेगवाद से मुक्त है और स्व- आरोपित कठोर तप द्वारा आत्म-पीड़ा तथा संन्यासवाद के भी विरुद्ध है।

जातिगत सामाजिक विभिन्नता (Casteism and Social Diversity)

भारतीय समाज में जाति के आधार पर भी विविधता दिखाई देती है। यद्यपि यह विविधता प्राकृतिक या बाह्य कारणों से नहीं वरन् हिन्दू संस्कृति की ही देन है, परंतु सामाजिक जीवन के खण्डात्मक विभाजन की दृष्टि से बड़ी महत्त्वपूर्ण है। भले ही जाति व्यवस्था को भारत में मुख्यतः हिन्दू धर्म से जोड़कर देखा जाता है, लेकिन भारतीय उपमहाद्वीप में अन्य कई धर्म जैसे कि मुस्लिम (Muslim) और ईसाई धर्म के कुछ समूहों में भी इस प्रकार की व्यवस्था देखी गयी है । आज बड़े शहरों में तो ये जातिगत बंधन कुछ ढीले हो गये हैं, परंतु ग्रामीण क्षेत्रों में ये बन्दिशें आज भी विद्यमान हैं। सामान्य तौर पर जाति के आधार पर प्रमुख विभाजन निम्न प्रकार देखने को मिलते हैं-

ब्राह्मण- ‘विद्वान समुदाय’, जिसमें याजक, विद्वान, विधि विशेषज्ञ, मंत्री और राजनयिक शामिल हैं।

क्षत्रिय- ‘उच्च और निम्न मान्यवर या सरदार’, जिनमें राजा, उच्च पद के लोग, सैनिक और प्रशासक भी शामिल हैं।

वैश्य’- व्यापारी और कारीगर’ समुदाय, जिनमें सौदागर, दुकानदार, व्यापारी और खेत के मालिक शामिल हैं।

शूद्र- ‘सेवक या सेवा प्रदान करने वाली प्रजाति’ में अधिकतर गैर-प्रदूषित कार्यों में लगे शारीरिक और कृषक श्रमिक शामिल हैं।

इससे पहले भारत में एक अतिरिक्त जाति को ‘अछूत’ के रूप में भी जाना जाता था, हालांकि इस प्रणाली को हिन्दू धर्म के कानून के अनुसार अब गैर-कानूनी घोषित कर दिया गया हैं।

आज हम देखते हैं कि यह जातीय भेद-भाव देश की राजनीति पर भी हावी होता जा रहा है। आज जातियों के अखिल संघ बने हैं। राजनीतिक दल भी चुनाव के दौरान जातिवाद का उपयोग करते हैं। इस समय उत्तर प्रदेश की राजनीति में जातिवाद के आधार पर ही सत्ता के लिए प्रतियोगिता स्पष्ट देखी जा सकती है। दक्षिण में तमिलनाडु की राजनीति को जातिवाद, साम्प्रदायिकता के रूप में समझा जा सकता है। इतना ही नहीं, बिहार में सवर्ण जातियों द्वारा दलितों पर होने वाले क्रूर अत्याचार जातिवाद के ही परिणाम हैं। अतः जातिवाद की यह भावना सांस्कृतिक एकता की भावना को आघात पहुँचाती है जिसे रोका जाना चाहिए

जनजातीय विभिन्नता (Racial Diversity)

भारतवर्ष में आज भी अनेक ऐसे मानव समूह निवास करते हैं जो आज भी आधुनिक सभ्यता के प्रभावों से कोसों दूर हैं। इन्हीं को जनजाति अथवा वन्य जाति कहा जाता हैं। सन् 1991 की जनगणना के अनुसार भारत में 6.78 करोड़ जनजातीय लोग रहते हैं । कुछ जनजातियाँ आदिम अवस्था में ही रहती हैं, जबकि कुछ ने आधुनिक सुख साधनों को अपना लिया है। इन सभी जनजातियों की भाषा अलग है, पूजा विधि अलग है और संस्कृति भी अलग है । इन सभी जनजातियों में सांस्कृतिक विविधता पाई जाती है। भारतीय संविधान में इनकी संख्या 216 है, परंतु इसके अतिरिक्त भी बहुत से ऐसे समुदाय हैं जो जनजातीय जीवन बिता रहे हैं। सम्पूर्ण भारत को जनजातियों की दृष्टि से चार क्षेत्रों में बाँटा जा सकता है मध्य क्षेत्र में मध्य प्रदेश, बिहार व उड़ीसा तथा पश्चिमी बंगाल की जनजातियाँ (जैसे कि संथाल, मुण्डा, उराँव, हो, भूमीज, कोया, खोण्ड, भूइयाँ, बैगा आदि) आती हैं। उत्तर पूर्वी क्षेत्र में हिमालय की तराई, असम और बंगाल की जनजातियाँ (जैसे कि गद्दी, गुज्जर, किन्नउरा, थारू, कुकी, गारो, खासी, नागा आदि) आती हैं। दक्षिणी क्षेत्र में केरल, मैसूर, मद्रास, तथा पूर्वी पश्चिमी घाटों पर रहने वाली जनजातियाँ (जैसे कि गोंड, कोण्डा, डोरा, इरुला, टोडा, पनीयाने इत्यादि) आती हैं। पश्चिमी क्षेत्र में राजस्थान, गुजरात और महाराष्ट्र में रहने वाली जनजातियाँ (जैसे कि मीना, भील, गामीत, कोकना आदि) आती हैं। इस प्रकार देश के सभी भागों, जैसे—उड़ीसा, बिहार, गुजरात, राजस्थान, महाराष्ट्र, आन्ध्र प्रदेश और असम आदि में ये जनजातियाँ रहती हैं, जिससे कि मध्य प्रदेश में इन जातियों का प्रतिशत सर्वाधिक है। जनजातियों की कुल जनसंख्या का इन चार क्षेत्रों में प्रतिशत वितरण इस प्रकार है— (i) हिमालय का क्षेत्र (11.35), (ii) मध्य भारत क्षेत्र (56.88), (iii) पश्चिमी भारत क्षेत्र (24.86) तथा (iv) दक्षिणी भारत क्षेत्र (6.21)।

इन जनजातियों के व्यवसाय, खानपान, रहन-सहन, वैवाहिक सम्बन्ध और रीति-रिवाजों में अनेक विविधतायें मिलती हैं। ये लोग अपनी सामाजिक व्यवस्था का निर्वाह करते हुए समूहों में रहते हैं। इस समय भारत की अनेक जनजातियों पर संस्कृतिकरण की प्रक्रिया से गुजर रही हैं और इस कारण अनेक समस्याओं से ग्रस्त भी हैं। अतः जनजातीय संस्कृतियों के अस्तित्व को बनाये रखने हेतु इन्हें विकास के उचित अवसर दिये जाने चाहिए तथा इन्हें भारतीय संस्कृति की मुख्य धारा में आने का अवसर भी दिया जाना चाहिए।

संक्षेप में, यदि देखा जाये तो भारत की जनजातीय सांस्कृतिक विविधता निम्न रूपों में देखने को मिलती है-

(1) कुछ जनजातियाँ जनसंख्या की दृष्टि से काफी बड़ी हैं, जैसे—गोंड, मुण्डा, भील तथा संथाल । दूसरी ओर कुछ जनजातियाँ जनसंख्या की दृष्टि से इतनी छोटी हैं कि उनकी गणना सौ व्यक्तियों से अधिक नहीं है, जैसे— ओंग (Onge) तथा टोटो (Toto)।

(2) सामाजिक संगठन की दृष्टि से भी कुछ जनजातियाँ जटिल सामाजिक संगठन रखती हैं तथा कई उपविभागों तथा वर्गों में विभाजित हैं। इसके विपरीत कुछ जनजातियों का सामाजिक संगठन अव्यक्त सरल है।

(3) पारिवारिक स्वरूप की दृष्टि से भी जनजातियों में विभिन्नता है। अधिकांश जनजातियाँ पितृसत्तात्मक, पितृस्थानीय एवं पितृवंशीय हैं, परंतु ऐसी जनजातियाँ भी पायी जाती हैं जो मातृसत्तात्मक, मातृस्थानीय एवं मातृवंशीय हैं, जैसे—कुकी, गारो आदि।

(4) विवाह सम्बन्धी प्रथाओं की दृष्टि से भी जनजातियों में विभिन्नता पायी जाती है । उदाहरणार्थ, जौनसर बाबर की खस जनजाति एवं नीलगिरी पहाड़ी की टोडा जनजाति में बहुपत्नी विवाह प्रथा पायी जाती है।

(5) धार्मिक विश्वासों, देवी-देवताओं एवं जादू-टोनों की दृष्टि से भी प्रत्येक जनजाति में भिन्नता है । कुछ जनजातियों में टोटमवाद प्रचलित है तथा अनेक धार्मिक निषेध भी पाये जाते हैं।

(6) आर्थिक विकास की दृष्टि से भी जनजातियों में विविधता पायी जाती है। कुछ जनजातियाँ आज भी वनों में खाद्यान्न संग्रह एवं शिकार पर निर्भर हैं तो कुछ जनजातियाँ पशुपालक एवं चारागाही पर हैं। कुछ जनजातियाँ आज भी झूम खेती कर रही हैं तो कुछ ऐसी जनजातियाँ भी हैं जो स्थायी खेती कर रही हैं।

इस प्रकार भारत में व्याप्त जनजातिगत विभिन्नता एक रंग-बिरंगा चित्र प्रस्तुत करती है। सारांशतः बाह्य रूप में भारतीय समाज, संस्कृति और जनजीवन में विविधता के होते हुए भी भारत मौलिक रूप से एक है। इसी सांस्कृतिक, सामाजिक और राजनीतिक चेतना के आधार पर राधाकृष्णन् का यह कथन उचित ही है” भारत की संस्कृति में एकता के चिह्न पाये जाते हैं। यद्यपि परीक्षण करने पर वे विभिन्न प्रकार के रंगों में बिखरे हुए दिखते हैं। यह भिन्नता पूर्ण रूप से समाप्त नहीं हो सकी है यद्यपि सभ्यता के उदय से लेकर अब तक देश के नेताओं के मस्तिष्क में एकता के विचार घूमते रहे हैं।”

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shubham yadav

इस वेब साईट में हम College Subjective Notes सामग्री को रोचक रूप में प्रकट करने की कोशिश कर रहे हैं | हमारा लक्ष्य उन छात्रों को प्रतियोगी परीक्षाओं की सभी किताबें उपलब्ध कराना है जो पैसे ना होने की वजह से इन पुस्तकों को खरीद नहीं पाते हैं और इस वजह से वे परीक्षा में असफल हो जाते हैं और अपने सपनों को पूरे नही कर पाते है, हम चाहते है कि वे सभी छात्र हमारे माध्यम से अपने सपनों को पूरा कर सकें। धन्यवाद..

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