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भारत में सामाजिक विघटन के कारण/कारक
भारत जिन परिस्थितियों एवं परिवर्तनों से होकर गुजर रहा है उसे देखते हुए अनेक समाजशास्त्रियों एवं विद्वानों का मत है कि आधुनिक भारतीय समाज विघटित हो रहा है। अपने विचारों की पुष्टि मे ये समाजशास्त्री एवं विद्वान भारतीय समाज में व्याप्त दुराचार, भ्रष्टाचार, गरीबी, बेकारी, अपराध, बाल-अपराध, धर्म का ह्रास आचरण का पतन, नवीन मूल्यों का जन्म, पाश्चात्यीकरण, संस्कृतिकरण, व्यक्तिवाद, संयुक्त परिवार का विघटन, बढ़ते हुए संघर्ष एवं प्रतिस्पर्धा, तनाव एवं हड़तालें, साम्प्रदायिकता, क्षेत्रीयतावाद, भाषा-वाद, अलगाववाद आदि तथ्यों की ओर संकेत करते हैं। ये सभी ऐसे कारण हैं जो भारतीय समाज को विघटित कर रहे हैं। जहाँ तक भारत का प्रश्न है, यह विविधताओं का देश विविध राज्यों, भाषाओं, रीति-रिवाजों, परम्पराओं, मूल्यों, विश्वासों, धर्मो, नास्तिकों, आस्तिकों का रहा है। सम्पूर्ण देश में एक जैसी समानता नहीं दिखाई पड़ती है। इस देश की सबसे बड़ी विशेषता है अनेकता में एकता। पर यह अनेकता विविध प्रकार की एकताओं से जुड़ी हुई है और जब यह एकता के बंधन ही लचीले और परिवर्तित होने लगे तो सम्पूर्ण देश विघटन की ओर अग्रसर होने लगता है।
भारत विविधताओं का देश है। इसलिए इस देश में सामाजिक विघटन भी किसी एक कारण से नहीं बल्कि अनेक कारणों से जन्म ले रहे हैं। इन कारणों की सबसे बड़ी विशेषता यह भी है कि ये भारत के किसी राज्य में उदय होती है किन्तु यह स्वतः दूसरे राज्यों में फैल जाते हैं और वहाँ भी विघटनकारी कार्य आरम्भ कर देते हैं। उदाहरण क्षेत्रीयतावाद का जन्म कहीं हुआ किन्तु वह एक राज्य से होता हुआ अनेक राज्यों तक फैल गया है। तेलगांना इसका उदाहरण है।
उपरोक्त तथ्य इस बात की पुष्टि करते हैं कि भारतीय समाज में काफी तीव्रता से परिवर्तन, समाज में नवीन मान्यताओं, मूल्यों, विचारों एवं दृष्टिकोणों, मनोवृत्तियों आदि को उत्पन्न कर रहे हैं।
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सामाजिक विघटन के कारक केवल अपने देश से ही उत्पन्न नहीं होते हैं बल्कि विदेशों का प्रभाव भी पर्याप्त रूप से पड़ता है। आज भारतीय समाज में जितने प्रकार के परिवर्तन हो रहे हैं वे सब भारत में ही नहीं उत्पन्न हुए हैं बल्कि विदेशों से हमारे देश में आए हैं। पाश्चात्य सभ्यता और संस्कृति इसका र उदाहरण है। भारतीय नैतिकता, धर्म, सादगी, रहन-सहन, मूल्य- विचार, आर्थिक, सामाजिक ढाँचा सब कुछ इस तरह से बदल दे रहा है कि जिसकी न कोई निश्चित दिशा दिखाई दे रही है और न कोई स्पष्ट उद्देश्य केवल सम्पूर्ण भारत में एक भ्रमपूर्ण स्थिति बन गयी है जिसमें भारतीय व्यक्ति भ्रमित हैं। स्वार्थो में लीन व्यक्ति घर, बाहर, पड़ोस, राज्य देश से अलग होकर कुछ पृथक् सोच रहा है। यह अलग-अलग सोचने एवं विचारने का ढंग, भारतीय समाज में प्रतिस्पर्धा, संघर्ष, स्वार्थ आदि का बीजारोपण कर रहा है जिसने सम्पूर्ण देश के ताने-बाने को परिवर्तित कर दिया है। भारत में सामाजिक विघटन के अनेक कारण हैं जो निम्नवत हैं-
(1) जातिवाद
जातिवाद के दो रूप हमारे सम्मुख उभर कर आए हैं। प्रथम, औद्योगीकरण के प्रभाव से जातिवाद समाप्त होता जा रहा है। आज विभिन्न जाति के व्यक्ति एक साथ कार्य करते हैं। एक होटल में बैठकर भोजन करते हैं। द्वितीय, जाति के अनुसार गुटबन्दी भी होती जा रही है। विभिन्न जातियों में और विशेषकर पिछड़ी हुई जातियों में चेतना आने से उन्होंने अपने अधिकारों को प्राप्त करने के लिए अपना गुट बना लिया है। इसका परिणाम यह हुआ कि एक जाति दूसरी जाति की आलोचना करने लगी जिससे विभिन्न जातियों के मध्य स्पर्धा, संघर्ष, ईर्ष्या और कटुता में वृद्धि हुई है।
(2) सामाजिक जीवन में अव्यवस्था
सम्पूर्ण भारत में सामाजिक जीवन एक प्रकार का नहीं है। इस देश में अनेक धर्म, रीति-रिवाज, भाषा, लोक-विश्वास आदि हैं जिनके आधार पर क्षेत्रीय संगठनों की स्थापना होती है। आधुनिक युग में सामाजिक मूल्यों तथा सांस्कृतिक विश्वासों में तीव्रता से परिवर्तन हो रहे हैं। प्राचीन काल में आने वाले विश्वासों एवं सामाजिक मूल्यों को व्यक्ति त्यागता जा रहा है। इस प्रकार की स्थिति में व्यक्ति यह भी सोचता है कि कौन से मूल्यों को ग्रहण किया जाए और किन्हें त्यागा जाए। इस प्रकार का भ्रम जब समाज में उत्पन्न होने लगता है तब सामाजिक जीवन तथा समाज में अव्यवस्था होने लगती है।
(3) सहयोग और एकता की भावना का नष्ट होना
एक व्यक्ति सभी के लिए और सभी व्यक्ति एक के लिए की भावना दिन-प्रतिदिन क्षीण होती जा रही है। गाँव के व्यक्तियों के झुण्ड सामूहिक पूजा, मेले, हाट, नृत्य आदि कार्यों में भाग लेते थे। ये सभी कार्य पारस्परिक सहयोग पर निर्भर करते थे किन्तु आज न वह सहयोग की भावना है और न एकता की आज व्यक्ति अपने में ही लीन है और केवल अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए प्रयास करते हैं। जिस समाज में सहयोग की भावना समाप्त हो जाएगी उस समाज में असामंजस्यता जन्म लेने लगी।
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(4) धर्म का ह्रास
हजारों वर्षों से भारतीय धर्म और कर्म-काण्डों का समाज पर दबदबा रहा है। धर्म के साथ जुड़े ये असंख्य अंधविश्वास और इन अंधविश्वासों के कारण व्यक्ति अपनी संकीर्ण परिधि में ही कैद था। हमारे देश के पुरोहितों ने ज्ञान का कुछ ऐसा चक्र चलाया कि धार्मिक ज्ञान तो दूर रह गया और उससे जुड़े हुए अंधविश्वासों का पिटारा उसके हिस्से में पड़ा, जो टोने टोटके, जादू, अनुष्ठानों और आने किन-किन चीजों में देखे जा सकते हैं। यह कर्म-काण्ड किसी समय भारतीयों के ऊपर लादा और थोपा गया था। व्यक्ति को धर्म और शास्त्र के अनुसार कार्य करने के लिए बाध्य किया जाता था नहीं तो वह प्रायश्चित का भागी तो होता था साथ ही उसको नरक का भागी माना जाता था। आज का व्यक्ति धर्म की आलोचना करने में नहीं हिचकता है। आज के व्यक्ति को स्वर्ग की चिन्ता कम है। वह इस भू-लोक पर ही स्वर्ग चाहता है। वह अपना समय पूजा-पाठ में नहीं लगाना चाहता। फलस्वरूप धार्मिक उपदेश, प्रवचन, संस्कार, स्वर्ग और नरक, मोक्ष का दर्शन ये सब बातें आज के समाज में उपेक्षित हो रही हैं।
(5) शिक्षा पद्धति एवं मानवीय जीवन के चिन्तन में परिवर्तन
आरम्भ में शिक्षा पद्धति की मौखिक प्रणाली थी। लिपि के आविष्कार के पश्चात पुस्तकों के माध्यम से दी जाने लगी। प्रारम्भ में हमारी शिक्षा पद्धति में धार्मिक पुस्तकों की आधिकाधिक महत्ता थी। इसलिए व्यक्ति के व्यवहार धार्मिक अधिक थे। कालान्तर में शिक्षा के क्षेत्र में काफी विस्तार एवं प्रसार हुआ जिससे व्यक्तियों को धर्म के अतिरिक्त विभिन्न प्रकार का ज्ञान प्राप्त हुआ। स्वतंत्रता के पश्चात भारत ने शिक्षा के क्षेत्र में काफी उन्नति की। लाखों की संख्या में प्राइमरी स्कूल खोले गए। इसका परिणाम यह हुआ है कि सम्पूर्ण भारतवर्ष में शिक्षित व्यक्तियों की संख्या बढ़ने लगी। ये व्यक्ति परम्परात्मक तथा संकीर्ण दृष्टिकोण के ऊपर उठने लगे।
प्रगतिवादी दृष्टिकोण के व्यक्ति अंधविश्वासों, रूढ़ियों, परम्पराओं आदि की कटु आलोचना करने लगे। इस तरह समाज में परम्परात्मक तथा प्रगतिशील विचारों एवं कार्यों के मध्य संघर्ष उत्पन्न हो गया है जो विभिन्न ढंग से समाज के अन्दर परिवर्तन ला रहे हैं। यह परिवर्तन सम्पूर्ण समाज को विशृंखलित भी कर रहा है। शिक्षा का प्रभाव निम्नलिखित क्षेत्रों पर विशेष तौर से पड़ा है-
1. स्त्रियों की समानता की भावना का जन्म।
2. स्वतंत्र अधिकारों के लिए व्यक्ति संघर्ष करने लगा।
3. जातियाँ अपने परम्परात्मक कार्यों को त्यागने लगी हैं।
4. व्यक्ति के विचारों में परिवर्तन आ रहे हैं जिससे वह रूढ़िवादी पथ से हटकर प्रगतिवादी की और अग्रसर हो रहा है।
5. शिक्षा ने नवीन प्रकार के उद्योगों को विकसित करने में सहायता की है तथा प्राचीन कार्य करने की पद्धति का नवीनीकरण किया है।
(6) जनसंख्या में वृद्धि
जनसंख्या की वृद्धि से अनेक समस्याओं का जन्म हुआ है। ग्रामीण भूमि पर दबाव बढ़ने के कारण ग्रामीण कृषि व्यवसाय को त्यागकर नगर की ओर बढ़ने लगा। यहाँ उसे कार्य के अनेक विकल्प मिले, किन्तु नगर में बढ़ती हुई जनसंख्या के दबाव से प्रतिस्पर्धा और संघर्ष में तीव्रता आई।
(7) औद्योगीकरण
औद्योगीकरण ने समाज में नवीन आर्थिक सामाजिक व्यवस्था को जन्म दिया। इसने सम्पूर्ण परम्परात्मक ढाँचे को परिवर्तित कर दिया है। सामाजिक सम्बन्धों का पतन हो रहा है। संयुक्त परिवार के स्थान पर एकांकी जीवन का उदय हो रहा है। संकीर्णता और परम्परात्मकता के स्थान पर विशालता और प्रगतिवाद अग्रसर है। धर्म का ह्रास हुआ है। स्त्रियों का कार्य क्षेत्र परिवार के अतिरिक्त बाहर का भी हो गया है। वह आज गृहणी ही नहीं वरन वह समाज में अनेक स्थानों पर अनेक पदों पर कार्य कर रही हैं। ये समस्त घटनाएँ इस तथ्य की घोतक हैं कि समाज की कार्य प्रणाली एवं व्यवस्था में आमूल परिवर्तन हो रहे हैं। ये परिवर्तन समाज के स्थायित्व में बाधक हैं।
(8) सम्पत्ति से लगाव और व्यक्तिवाद
भारतीय संस्कृति में सम्पत्ति अथवा धन का महत्व न के समान था । व्यक्ति अच्छे कार्यों को करके स्वर्ग और मोक्ष की कामना करता था किन्तु समय ने यह धारणा परिवर्तित कर दी है। आज के व्यक्तिवाद का लक्ष्य भौतिक सुख प्राप्त करना है। स्वर्ग और मोक्ष में उसकी आस्था घट रही है। उसका विश्वास है कि नरक और स्वर्ग सब यहीं है जो कष्ट के भागीदार है उनके लिए नरक यहीं है और विलासिता का जीवन व्यतीत कर रहे हैं उनका स्वर्ग यहीं है। यह सब सम्पत्ति के अभाव अथवा प्राप्ति पर निर्भर है जिससे उसे धन प्राप्ति हो। धन के प्रलोभन ने व्यक्ति की अपनी बनाई हुई महत्वाकांक्षाएँ और आदर्श जो किसी से मेल नहीं खाती, अपना मार्ग स्वतः बनाना चाहती हैं। यह व्यक्तिवादी दृष्टिकोण विघटन उत्पन्न करता है।
(9) वर्गों का संघर्ष
जहाँ जाति प्रथा समाप्त हो रही है वहाँ वर्गवाद में हो रही है। नगरों में विभिन्न व्यवसायों में कार्य करने वालों का अपना संगठन है। इस संगठनों में जातिगत बंधन नहीं है। ये वर्ग – निर्मित संगठन अपने वर्ग के व्यक्तियों के हितों की रक्षा के लिए निरन्तर संघर्ष करते हैं। नगर और नगर के विभिन्न भागों में अनेक वर्ग हैं जैसे डॉक्टर, अध्यापक श्रमिक, पूँजीपति, इंजीनियर आदि। ये सभी वर्ग अपने अधिकारों की माँग के हेतु संघर्ष करते हैं। इसलिए यह हड़ताल, घेराव, तालेबंदी, जुलूस, जेल भरो, काम रोको आदि का नारा देते हैं। इससे नगर में अशांति और अव्यवस्था उत्पन्न होती है।
(10) बेरोजगारी
बेरोजगारी एक सामाजिक रोग है। भारतीय समाज में शिक्षित, अशिक्षित, कुशल, अकुशल श्रमिक से लेकर डॉक्टर, इंजीनियर तक के क्षेत्र में बेकारी है, कहावत है, खाली मस्तिष्क शैतान का घर है।
इतनी बड़ी संख्या में बेकारी जिस देश में होगी वह देश संगठित रूप से कैसे कार्य कर सकता है। आखिर व्यक्ति की आवश्यक आवश्यकताओं की पूर्ति होनी चाहिए और न होने पर वह असामाजिक कार्यों को करता है। सत्य यह है कि जिस देश में जितनी तीव्रता से बेकारी बढ़ेगी उस देश में उतनी ही तीव्रता से भ्रष्टाचार, अपराध, विभिन्न प्रकार के संगठन, आंदोलन, हड़ताल, तोड़-फोड़ की क्रियाएँ, हिंसात्मक कार्य, दलबंदी आदि की क्रियाएँ पनपेंगी। यह सब विघटन उत्पन्न करती हैं।
(11) स्थिति और कार्य में परिवर्तन
हमारे देश की संरचना परम्परात्मकता है। यहाँ प्रत्येक व्यक्ति की स्थिति और कार्य परम्पराओं के द्वारा निश्चित होते थे। विभिन्न जातियों के व्यक्तियों की क्या स्थिति होगी यह जन्म के आधार पर निर्भर था।
ऊँची जाति में जन्मा व्यक्ति आदर, सम्मान का अधिकारी था किन्तु निम्न जाति का नहीं। इसलिए ब्राह्मण और क्षत्रिय का अन्य जातियों की अपेक्षा कहीं अधिक सम्मान किया जाता था किन्तु भौतिकवादी संस्कृति ने परम्परात्मक ढाँचे को परिवर्तित कर दिया। इस युग में व्यक्ति अपने प्रयत्न से ऊँचे स्थान को प्राप्त कर सकता है। उदाहरण- एक हरिजन मंत्री, आई.ए.एस. अधिकारी उस ब्राह्मण अथवा क्षत्रिय से अधिक सम्मान प्राप्त करता है जो निम्न स्थानों पर हैं। सत्य यह है कि ऊँची जाति के व्यक्ति उनके सेवक बन जाते हैं। अस्तु जितनी तेजी से स्थिति और कार्य की भूमिका में अंतर आता जाएगा उतनी ही तेज़ी से सामाजिक संरचना में परिवर्तन भी होता जाएगा।
(12) संस्कृतिकरण
श्री. एम. एन श्रीनिवास ने बताया है कि आधुनिक युग में निम्न जाति के व्यक्ति ऊँची जातियों के संस्कारों का अनुकरण कर रहे हैं। इस अनुकरण से समाज तथा निम्न जातियों के संस्कारों में काफी परिवर्तन आ रहा है। व्यक्तियों के उद्देश्य रहन-सहन, भाषा, रीति-रिवाज आदि में इस प्रक्रिया के फलस्वरूप परिवर्तन हो रहे हैं।
(13) पश्चिमीकरण
एम. एन. श्रीनिवास ने संस्कृतिकरण की तरह पश्चिमीकरण की प्रक्रिया पर भी विचार किया है। इनका मत है कि अंग्रेजी शासन ने भारत में अनेक प्रकार के परिवर्तन किए हैं। यह शासन अपने साथ अपनी विचारधारा पोशाक और रंग-ढंग भी लाया और उस रंग-ढंग में भारतीय रंगने लगे। भारतीयों ने अपनी परम्परा को त्यागना प्रारम्भ कर दिया और पाश्चात्य देश की संस्कृति का अनुकरण करने लगे। इस प्रक्रिया ने सम्पूर्ण भारतीय संरचना को परिवर्तित कर दिया। पाश्चात्य देश का प्रभाव हमारे रहन-सहन, विचार-आदतों, रीति-रिवाज, दृष्टिकोण, मनोवृत्ति आदि में देखा जा सकता है। पश्चिमीकरण के प्रभाव ने भारतीय सामाजिक सम्बन्धों का ताना-बाना ही परिवर्तित कर दिया।
(14) आधुनिकीकरण
आज के समाज की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वह आधुनिक होता जा रहा है। आधुनिकता प्रगति की ओर संकेत करती है। यह प्रगति किस दिशा में हो रही है, इस सम्बन्ध में हम यह कह सकते हैं कि समाज तथा व्यक्ति से सम्बन्धित प्रत्येक वस्तु नवीन रूपों में प्रकट हो रही है। वस्तु को देखने, समझने का प्राचीन परिप्रेक्ष्य वर्तमान समाज में नाम मात्र को ही रह गया है। कम-से कम नगर की सभ्यता और संस्कृति में तो दिन-प्रतिदिन घटता ही जा रहा है। आधुनिकता ने व्यक्ति के विचारों का कायाकल्प कर दिया है।
(15) मुक्त समाज
आधुनिक समाज प्राचीन बन्द समाज के घेरे से स्वतंत्र हो गया है। इस समाज में कोई बंधन नहीं है। इस समाज में व्यवहारों के नवीन प्रतिमान बनते और बिगड़ते हैं। प्रत्येक व्यक्ति चाहे वह किसी भी जाति का क्यों न हो जैसा चाहे कर सकता है। किसी भी स्थान पर जा सकता है, घूम सकता है। मुक्त समाज में व्यक्ति को प्राचीन आदर्शों, धर्म के सिद्धांतों, परम्पराओं, नैतिकता और रीति-रिवाजों के भूत से मुक्ति दे दी है। इस समाज ने व्यक्ति को प्राचीन बन्धनों से मुक्त तो कर दिया है, किन्तु व्यवहार के नवीन प्रतिमान को स्थापित करने में असमर्थ रहा है। परिणामस्वरूप व्यक्ति दिशाहीन इधर-उधर भटक रहा है।
(16) राजनीतिक दलों की भूमिका
भारतीय लोकतंत्र पद्धति में राजनीतिक दलों की बाढ़ आ गई है। संसार के किसी भी देश में इतने राजनैतिक दल नहीं पैदा हुए होंगे जितने भारत में हुए है और होते जा रहे हैं। जिस देश में इतने अधिक राजनैतिक दल होंगे क्या उस देश में कोई ठोस कार्य नहीं हो सकता है। शासक अपनी नीति अनुसार कार्य करना चाहते हैं और विरोधी दलों की बटालियन अलग ढंग से सरकार से कार्य कराना चाहती। विरोधी दल सरकार विरोधी कार्य में लीन रहते हैं और सरकार भी उन्हें मात देने के लिए अपनी भरसक चेष्टा करती रहती है।
(17) मनोरंजन के साधन
ग्रामीण मनोरंजन के साधन जो गाँव की चौपाल पर बैठकर प्राप्त किए जाते थे, जैसे- लोकगीत, लोकनृत्य, नौटंकी आदि ये सब परिवर्तित होते जा रहे हैं। नगर के व्यवसायिक मनोरंजन के साधनों जैसे सिनेमा, क्लब आदि ने मनुष्यों के विचारों को परिवर्तित करने में बहुत बड़ी भूमिका अभिनीत की है।
(18) बदलती हुई योजनाएँ और दृष्टिकोण
पंचवर्षीय योजनाओं के द्वारा हम समाज मे पुनरुत्थान लाना चाहते हैं। इन योजनाओं में अनेक छोटी- छोटी योजनाएँ गाँव व नगर के लिए होती है। इन योजनाओं का उद्देश्य है गाँव व नगर की आर्थिक-सामाजिक, राजनैतिक गतिविधियों में परितर्वन लाना। योजनाएँ परिवर्तन लाती हैं। योजनाओं के कार्यकाल में जाने कितने प्रकार के परिवर्तन होते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि व्यक्ति एक कार्य में अभ्यस्त हो ही नहीं पाया था कि उसे दूसरे प्रकार के कार्य करने पड़ते हैं। अस्तु नित्य परिवर्तन समाज को एक गति में नहीं रहने देता है और न उसकी एक कार्यप्रणाली बन जाती है।
(19) विद्यार्थियों के बदलते हुए विचार
आधुनिक विद्यार्थी सरल जीवन एवं उच्च विचार में विश्वास नहीं रखता है। आज का विद्यार्थी प्रगतिवादी, उत्साही, क्रान्तिकारी, राजनैतिक गतिविधियों में हलचल करने वाला है। वह इतना आधुनिक और प्रगतिवादी है कि किसी भी बात को सरलता से स्वीकार नहीं करता है। सामान्यतः आज यह अनुभव किया जाता है कि वह छोटी बातों को लेकर एक लम्बी माँगों की सूची, प्रधानाचार्य अथवा उपकुलपति के सामने रखते हैं। माँगों के पूर्ण न होने पर विद्यार्थी नेता विद्यार्थियों को गुमराह करके, जुलूस, तोड़-फोड़, आग लगाना, ईंटे, गुम्मे चलाना, धारा 144 को भंग करना, नगर बन्द का नारा देना आदि विघटनकारी कार्य करते हैं।
(20) साम्प्रदायिकता
साम्प्रदायिकता को जब संकीर्ण अर्थों में प्रयोग किया जाता है तब उसे हिन्दू और मुस्लिम धर्मों की परिधि में सीमित कर दिया जाता है। धर्म में उच्चता एवं निम्नता की भावना है। एक धर्म को छोटा समझा जाता है और दूसरों को बड़ा, यहीं पर साम्प्रदायिकता की भावना उत्पन्न हो जाती है। हिन्दू-मुस्लिम और ईसाई धर्म में साम्प्रदायिकता की भावना है। इस धर्म से सम्बंधित व्यक्तियों में भी लड़ाई है। साम्प्रदायिक दंगे और फसाद विभिन्न जातियों और धर्मों के मध्य अलगाव, कटुता, तनाव, द्वेष आदि को फैलाते हैं। इससे समाज में विघटन उत्पन्न होता है।
(21) राष्ट्रीय भाषा की समस्या
भाषा की समस्या किसी एक राज्य की समस्या न होकर सम्पूर्ण देश की समस्या है। प्रत्येक राज्य अपनी भाषा को महत्व देता है। इसका परिणाम यह होता है कि अहिन्दी और हिन्दी राज्यों के मध्य तनाव उत्पन्न हुआ। राष्ट्रीय भाषा की समस्या केवल हिन्दी और अहिन्दी राज्यों के मध्य अलगाव, कटुता, प्रतिस्पर्धा, संघर्ष की भावना ही नहीं उत्पन्न की बल्कि एक राज्य के व्यक्तियों में ‘अलगाव विकसित करने में भी सफल हुई है। अस्तु भाषा समस्या ने देश को अनेक भागों में विभाजित किया। व्यक्ति को अनेक भाषाओं की परिधि में रखकर भाषायी आंदोलन चलाने के लिए बाध्य किया है।
(22) स्त्रियों की स्थिति में परिवर्तन
आधुनिक युग की स्त्री परिवार की दास नहीं है। वह पुरुष की सहगामी है। यह पुरुष की तरह प्रगतिवादी है। आज स्त्री अनेक रूपों में हमारे सम्मुख आ रही है। डॉक्टर, इंजीनियर, समाज-सेवक, मंत्री, अधिकारी आदि हैं। केवल इतना ही नहीं वह सारी विशेषताएँ जो स्त्री समाज की संकीर्णता, रूढ़िवादिता और कट्टरता से सम्बंधित थी उसने त्याग दिया है। वह नवीन मूल्यों के अनुसार अपने को ढाल रही है। स्त्री की इस नवीन भूमिका ने परिवार और समाज के अनेक क्षेत्रों में उथल-पुथल मचा दी। स्त्री की इस बदलती हुई भूमिका ने परिवार और समाज में अनेक परिवर्तन ला दिए हैं। स्त्री के बाह्य कार्यों में प्रवेश करने से परिवार विघटित होते जा रहे हैं। परिवार और समाज में अशांति ही नहीं फैल रही है वरन् स्त्री समाज में भी अनेक प्रकार के असामाजिक कार्य उत्पन्न हो गए हैं जो समाज को विघटित कर रहे हैं।
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