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मीरा की प्रेम साधना
पूर्ण समर्पण- मीरा मानती है कि प्रेम की पीड़ा सहन करना सरल नहीं है। उन्होंने अपने गिरधर के ऊपर तन-मन-धन से सभी न्यौछावर कर दिया था, वे प्रेम दिवाणी होकर जहर का प्याला चरणामृत की तरह पी गई और विषधर को सुमन – हार की तरह धारण कर लिया। कुल लाज और मर्यादा को छोड़कर वे वृन्दावन की कुंज गलियों में फिरी-
लागी सोही जाणौ कठण लगण दी पीर ।
विपत षड्या कोई निकट न आवै। सुख में सबको सीर ।
बाहरि घाव कछु नहीं दीसै रोम-रोम में पीर ।
जन मीराँ गिरधर के ऊपर सदकै करूँ शरीर ।
मीरा का प्रेम-सगुण-साकार अपार्थिव आलम्बन के प्रति है। उनका प्रेम दाम्पत्य प्रणयानुभूति के अन्तर्गत आता है। उनका आराध्य अन्य कृष्ण-भक्तों के आराध्य से भिन्न नहीं है अर्थात् वह सगुण और साकार है। मीरों इसी प्रियतम के प्रति अपना दाम्पत्य-भाव अभिव्यक्त करते हुए जनम-जनम की दासी कहती है। मीराँ की प्रेम-साधना में प्रेम के प्रायः सभी तत्त्व मिलते हैं, जिनका निरूपण निम्न प्रकार किया जा सकता है
उल्लास- मीरा की प्रेम-साधना में इतना अधिक उल्लास है कि वे कृष्ण के प्रेम में सब वे कुछ भूल जाती हैं। उनका गोपाल के अतिरिक्त अन्य कोई नहीं है। वे आनन्दोल्लास में गाकर कहती हैं-
“म्हाँरा तो गिरधर गोपाल दूसराँ न कोई।’ “
ममता- मीराँ के प्रेम-साधना में ममता इतने चरमोत्कर्ष पर पहुँच गई है कि कठोर यातनाएँ और बाधाएँ भी उनको विचलित नहीं कर पातीं। वे सारी परिस्थितियों का हँसकर सामना करती हैं और गोविन्द के गुण में निमग्न रहती हैं-
माई म्हाँ गोविन्द गुण गाणा ।
राजा रूठ्या नगरी त्यागाँ हरि रूठ्याँ कहाँ जाणा ।
राणा भेज्या विषरो प्याला चरणामृत पी जाणा ।
काला नाग पिटर्यों भेजा सालगराम पिछाणा ।
मीराँ तो प्रभु प्रेम दिवांणी साँवलिया वरदाणा ।
विश्वास – मीरों के प्रेम में इतनी अधिक दृढ़ता है कि उसमें शंका का कोई स्थान नहीं है। वे प्रेम के विश्वास पर ही प्रियतम से मिलन- सानिध्य प्राप्त करती हैं
जोसीड़ा णे लाख बधाय आष्यां म्हारो स्याम ।
म्हारे आणंद उमंग भर्यारी जीव लयाँ सुखधाम ।
पाँच संख्या मिल पति रिझावाँ आणंद ठामूँ ठाँम ।
विसरि जावौ दुख निरखाँ पियारो सुफल मनोरथ काम ।
मीराँ के सुख-सागर स्वामी भवण पधार्यों स्याम ।।
अभिमान- मीरों का प्रेम एकांगी है। उसमें विरह ही विरह है। जहाँ कहीं मिलन का चित्रण है, वह अकाल्पनिक न होकर काल्पनिक है। इसलिए मीरा की प्रेम-भावना में ‘मान’ या ‘अभिमान’ को कोई स्थान नहीं है।
द्रवीभाव- मीरा का हृदय अपने गिरधर के प्रेम से इतना अधिक द्रवित है कि वह उसकी स्मृति में सदैव पुलकित बना रहता है। प्रियतम के आने की सूचना मात्र से ही मीरा मंगल-गायन की बेला मान लेती है
बरसां री बदरिया सावन री, सावन री मन-भावन री ।
सावन में उमड़ी म्हारो मनुआं भणक सुनी हरि आवण री।
उमण- घुमण मेघां आयां दामण धण झर लावण री ।
बीजां बूँदा मेहाँ आवाँ बरसा सीतल पवण सुहावण री।
मीराँ के प्रभु गिरधर नागर बेला मंगल गावण री ।।
मीराँ के प्रेम में अतिशय अभिलाषा है। वे किसी न किसी प्रकार अपने गिरधर से मिलने को आतुर हैं। जिस प्रियतम के लिए उन्होंने संसार और कुटुम्ब छोड़ दिया, वह उन्हें क्यों तरसा रहा है, किन्तु वे तो उन्हीं की शरण में हैं और उनकी जनम-जनम की दासी हैं। अतः वे किस प्रकार उसे छोड़ सकते हैं
म्हाणे क्यौं तरसावाँ ।
थारें कारण कुल जग छाड्याँ अब थें क्यों विसरावाँ ।
विरह बिथा ल्याया उर अन्तर में आस्याँ णा बुझावाँ ।
अब छाड्याँ णा बणे मुरारी सरण गह्याँ गड़ जावाँ ।
मीराँ दासी जनम-जनम री मगताँ पेजणि पावाँ ।।
प्रेम-दीवानी मीराँ अपने प्रियतम में नित्य नवीनता के दर्शन करती है। कभी वे कालिया नाग – मर्दन का रूप देखती हैं ( इन चरण कलियाँ नाथ्याँ) और कभी उन्हें अपने प्रियतम कृष्ण में कृष्ण ध्रुव, प्रहलाद, अहिल्या आदि के उद्धार – कर्त्ता का रूप दिखाई पड़ता है। इसी मोहन ने उनके मन को हर लिया है-
माई मेरो मोहन मन हर्यो ।
कहा करूँ कित जाऊँ सजनी प्राण पुरुष सूँ बर्यो । ।
मीराँ की प्रेमातिरेकता उनको प्रेम के उन्माद की अवस्था को पहुँचा देती है। उन्हें वियोग-क्षण कल्प के समान लगने लगते हैं।
दरस बिणा दूखण लागे नैन।
सबद सुनत मेरी छतियाँ काँपे मीठो थारें बैन ।
विरह बिथा कासूरी कह्यौं पैठी करवत लैन ।
कल न परत पल ही मग जावत भई छमासी रैन ।।
निष्कर्ष- उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि मीराँ की प्रेम-साधना में हृदय की पावन और मंजुल धारा प्रवाहित हुई है। उनकी माधुर्य भाव की दाम्पत्य अनुभूति चरमोत्कर्ष पर पहुँची हुई । इस सम्बन्ध में शुक्ल जी का निम्न कथन दृष्टव्य है
“कबीर ने भी ‘राम की बहुरिया बनकर अपने प्रेम-भाव की व्यंजना की है, पर माधुर्य भाव की ऐसी व्यंजना सभी भक्तों द्वारा न हुई है, न हो सकती है। पुरुषों के मुख से वह अभिनय के रूप में निकलती है। उसमें वैसा स्वाभाविक भोलापन, वैसी मार्मिकता और कोमलता आ ही नहीं सकती। पति-प्रेम के रूप में ढले हुए भक्ति-रस ने मीराँ की संगीत-धारा में जो दिव्य माधुर्य घोला है, वह भावुक हृदयों की ओर कहीं शायद ही मिले।”
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