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मैथिलीशरण गुप्त का जीवन परिचय
मैथिलीशरण गुप्त का जन्म सन् 1886 ई० में चिरगाँव जिला झांसी (उत्तर प्रदेश) के एक वैश्य परिवार में हुआ। इनके पिता सेठ रामचरण भगवान राम के परम भक्त थे और कनकलता में उपनाम से काव्य-रचना किया करते थे। कहा जा सकता है कि कविता एवं वैष्णव भक्ति भावना गुप्त जी को विरासत में मिली थी। गुप्त जी के भाई सियारामशरण गुप्त जी भी हिन्दी के अच्छे कवि थे। मैथिलीशरण गुप्त बचपन से ही काव्य-रचना किया करते थे। इनकी प्रारम्भिक कविताएँ कलकत्ता (कोलकाता) से प्रकाशित होने वाली ‘वैश्योपकारक पत्रिका’ में प्रकाशित हुईं। बाद में जब इनका परिचय महावीर प्रसाद द्विवेदी से हुआ तो इनकी रचनाएँ ‘सरस्वती’ में प्रकाशित होने लगीं। गुप्त जी की काव्य-प्रतिभा के विकास क्रम में महावीर प्रसाद द्विवेदी का विशेष योगदान रहा है। स्वयं गुप्त जी ने भी उसे स्वीकार किया है।
“करते तुलसीदास भी कैसे मानस नाद ।
महावीर का यदि उन्हें मिलता नहीं प्रसाद ।।”
गुप्त जी की प्रथम काव्य-रचना थी- ‘रंग में भंग’, परन्तु ‘भारत-भारती’ के प्रकाशन ने इनकी ख्याति को चार-चाँद लगा दिए। इस रचना में हिन्दुओं के अतीत गौरव एवं वर्तमान की हीनता का वर्णन कर कवि ने जन-मानस में देश-प्रेम की भावना का जो संचार किया, उससे हिन्दी जगत् बहुत प्रभावित हुआ। प्रेम, भक्ति और राष्ट्रीयता इनकी कविता के प्रमुख स्वर रहे हैं। इनकी राष्ट्रीय भावना एवं उसकी सफल अभिव्यक्ति के कारण भारत के राष्ट्रपति ने इन्हें राज्यसभा का सदस्य मनोनीत किया। गुप्त जी ‘राष्ट्रीय कवि’ के रूप में विख्यात हैं। इनकी मृत्यु सन् 1964 ई0 में झाँसी में हुई।
मैथिलीशरण गुप्त की रचनाएँ
गुप्त की रचनाएँ मौलिक और अनूदित दोनों ही हैं। मौलिक रचनाएँ- गुप्त जी की मौलिक रचनाएँ इस प्रकार हैं- ‘रंग में भंग’, ‘जयद्रथ-वध’, ‘पद्य-प्रबन्ध’, ‘भारत-भारती’, ‘शकुन्तला’, ‘पत्रावली’, ‘वैतालिक’, ‘पद्यावली’, ‘किसान’, ‘अनघ’, ‘चन्द्रहास’, ‘तिलोत्तमा’, ‘पंचवटी’, ‘स्वदेश-संगीत’, ‘गुरु तेग बहादुर’, ‘हिन्दू शक्ति’, ‘सैरन्ध्री’, ‘वन वैभव’, ‘वक संहार’, ‘झंकार’, ‘साकेत’, ‘यशोधरा’, ‘द्वापर, ‘सिद्धराज’, ‘नहुष’, ‘वकट-भट’, ‘मौर्य-विजय’, ‘मंगलघट’, ‘त्रिपथगा’, ‘गुरुकुल’, ‘विश्ववेदना’, ‘काबा और कर्बला’, ‘कुणाल’, ‘अर्चन और विसर्जन’, ‘अजित’, ‘प्रदक्षिणा’ एवं ‘राजा और प्रजा’ ।
अनूदित रचनाएँ- ‘विरहिणी ब्रजांगना’, ‘मेघनाद-वध’, ‘प्लासी का युद्ध’, ‘स्वप्नवासवदत्त’, ‘उमर खैय्याम की रुबाइयाँ’ ।
काव्य-विमर्श – गुप्त जी का काव्य-फलक विशद् एवं विस्तृत है। यह लगभग 50 वर्ष की अवधि में फैला हुआ है। इनके विपुल काव्य-भण्डार को विषय की दृष्टि से इतिवृत्तात्मक और भाव-प्रधान भागों में बाँटा जा सकता है, जबकि शैली की दृष्टि से गीतिकाव्य, खण्डकाव्य, महाकाव्य और मुक्तक काव्य भेदों में विभाजित किया जा सकता है। गुप्त जी प्रबन्धकार के रूप में अपेक्षाकृत अधिक प्रसिद्ध हुए। इनकी ‘भारत-भारती’ राष्ट्रीयता का संचार करने वाली अविस्मरणीय रचना है। ‘साकेत’ तुलसी के रामचरितमानस के बाद हिन्दी में राम-कथा का महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। वास्तव में ‘साकेत’ गुप्त जी का अमर काव्य है। ‘यशोधरा’ एक महत्त्वपूर्ण रचना है। इसमें विरह एवं वात्सल्य का उन्होंने मनोवैज्ञानिक चित्रण किया है। इन दोनों रचनाओं में (‘साकेत’ और ‘यशोधरा) भारतीय वाङ्मय के दो उपेक्षित स्त्री-पात्रों- उर्मिला तथा यशोधरा का अपूर्व चरित्रांकन किया है। ये दोनों रचनाएं कवि की संवेदनशीलता को सजीव करती हैं। इनमें मार्मिक सन्दर्भों का उद्घाटन बड़ी कुशलता से किया गया है। खण्ड-काव्यों में ‘पंचवटी’, ‘अनघ’, ‘सिद्धराज’, ‘जयद्रथ वध’ आदि उल्लेखनीय हैं। ‘जयद्रथ वध’ वीररस प्रधान काव्य रचना है। ‘झंकार’ एक सराहनीय गीतिकाव्य हैं।
मैथिलीशरण गुप्त की काव्यगत विशेषताएँ
गुप्त जी की काव्यगत विशेषताएँ इस प्रकार हैं-
(1) विविधतापूर्ण काव्य
गुप्त जी का काव्य विविधतापूर्ण है। इनकी रचनाओं में वर्तमान एवं अतीत दोनों को वस्तु रूप में अपनाया गया है। एक ओर इन्होंने ख्यातिप्रधान पात्रों अभिमन्यु आदि का चित्रण किया है तो दूसरी ओर साहित्य में उपेक्षित पात्रों- उर्मिला, यशोधरा आदि का सजीव वर्णन कर विशेष ख्याति अर्जित की है। इस दृष्टि से इन्हें अमर चरित्र सृष्टा भी कहा जा सकता है। नयी कल्पनाएँ, नयी उद्भावनाएँ एवं प्रभावपूर्ण प्रसंगों की पहचान इनके काव्य-सौन्दर्य की विविधता का उल्लेखनीय अंग हैं।
(2) जीवन से सम्बन्धित
गुप्त जी का काव्य-भाषा एवं भाव की दृष्टि से जीवन से सम्बन्धित है। खंडकाव्य जीवन के अधिक निकट है। इन्होंने सरल, सुबोध एवं व्यवहारानुकूल भाषा का प्रयोग किया है। तत्कालीन जीवन की प्रमुखताओं का वर्णन कर इन्होंने काव्य को जीवन से जोड़ने का प्रयास किया है। राष्ट्रीयता इस प्रवृत्ति का सर्वप्रमुख अंग है।
(3) कालानुसार काव्य
क्षमता- कालानुसरण क्षमता गुप्त जी की एक अन्य विशेषता है। अपने समय की सभी प्रवृत्तियों को अपने में आत्मसात् कर अपनी रचनाओं में उनका प्रणयन करना गुप्त जी की निजी विशेषता है। इनके काव्य में एक ओर भारतेन्दुयुगीन देश-प्रेम है तो दूसरी ओर छायावाद की प्रेम-प्रतीति। कहीं राष्ट्रीय आन्दोलनों का प्रभाव है तो कहीं रहस्यवादिता। समय के साथ बदलती हुई भावनाओं का वर्णन कर गुप्त जी ने अपनी अद्भुत काव्य क्षमता का परिचय दिया है।
(4) समन्वयवादी कवि
गुप्त जी समन्वयवादी कवि हैं। मूलतः राम-भक्त होकर भी इन्होंने अन्य धर्मों के प्रति अपने छन्द सुमन अर्पित किए हैं। ‘साकेत’ इनकी राम-भक्ति का प्रतीक है, जबकि द्वापर में इन्होंने कृष्ण के प्रति अपनी मधुर भावना का निरूपण किया है। ‘काबा और कर्बला’ में इस्लाम धर्म तथा ‘गुरुकुल’ में सिक्ख-मत के प्रति इसकी सहानुभूति एवं उदारता का उल्लेख हुआ है। इनके काव्य में भारतेन्दु युग, द्विवेदी युग, छायावाद, रहस्यवाद आदि का समन्वित रूप दिखायी देता है।
(5) ऐतिहासिक काव्य
गुप्त जी के काव्यं का ऐतिहासिक महत्त्व भी है। इस विषय में उन्होंने खड़ी बोली को अपनाकर उसकी काव्योपमुक्तता सिद्ध की है तथा अन्य कवियों को इस भाषा के प्रति आकृष्ट किया है। खड़ी बोली की प्रकृति के सहज-सौन्दर्य का उद्घाटन कर उसे काव्य-भाषा के पद पर प्रतिष्ठित करने वालों में गुप्त जी अग्रगण् य हैं।
(6) सभी रसों की योजना
गुप्त जी के काव्य में प्रायः सभी रसों की योजना मिलती है। ‘साकेत’ में शृंगार, करुण आदि है तो ‘यशोधरा’ में शृंगार, करुण, वात्सल्य आदि ‘जयद्रथ-वध’ में वीर, रौद्र आदि उल्लेखनीय हैं । तुलसीदास के समान गुप्त जी ने रसों का मर्यादापूर्ण वर्णन किया है।
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