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मैथिलीशरण गुप्त के काव्य-वैभव
श्री मैथिलीशरण गुप्त खड़ी बोली के प्रतिनिधि कवि है। उनके काव्य में अनुभूति और अभिव्यक्ति का सुन्दर समन्वय हुआ है। इसीलिए द्विवेदी-युग के कवियों में उन्हें विशिष्ट स्थान प्राप्त है। काव्य-सौष्ठव की दृष्टि से उनका मूल्यांकन करते समय यह सहज ही स्पष्ट हो जाता है कि उनमें सूक्ष्मतम् अनुभूतियों को अभिव्यक्त करने की अनुपम कुशलता थी। उनका भावपक्ष, जितना समृद्ध था, कलापक्ष उतना ही सबल।
भावपक्ष
भावपक्ष के अन्तर्गत कवि के काव्य का वर्ण्य-विषय, उसमें अभिव्यक्त विचार, चरित्र चित्रण, रस-परिपाक, मार्मिक प्रसंगों के सुनियोजन, काव्य का मूल सन्देश, प्रकृति-चित्रण आदि सम्मिलित होता है। श्री मैथिलीशरण गुप्त जी के काव्य में भावपक्ष की यह समस्त विशेषताएँ पूर्णरूप पुष्ट और समृद्ध हैं।
(1) वर्ण्य – विषय – गुप्तजी के काव्य में वर्ण्य विषय जीवन के विविध पक्षों को उद्घाटित करने वाले विभिन्न क्षेत्रों से चुने गये हैं। उनके साकेत, पंचवटी और प्रदक्षिणा रामायण पर आधारित हैं; जयद्रथ वध, शकुन्तला, सैरन्ध्री, तिलोत्तमा, वन-वैभव, वकसंहार, हिडिम्बा, जयभारत आदि हैं; चन्द्रहास, द्वापर नहुष, पृथिवीपुत्र हैं; रंग में भंग-विकट भट, सिद्धराज हैं; यशोधरा-बौद्ध, शक्ति-शाक्त, गुरुकुल – सिख तथा काबा और कर्बला हैं। इनके अतिरिक्त भारत-भारती, अनघ, स्वदेश गीत, हिन्दू, मंगलघट, अर्जन और विसर्जन, अजित, अंजलि और अर्घ्य के उद्घाटन के साथ ही आधुनिक समस्याओं को मौलिक कल्पना के माध्यम से प्रस्तुत – किया है। वर्ण्य विषय के इस व्यापक क्षेत्र में विविध प्रकार के भावों को विस्तार मिला है।
(2) चरित्र-चित्रण- पात्रों के चरित्र के माध्यम से उन्होंने समाज, राजनीति, कला, कर्म आदि सभी क्षेत्रों में आदर्श प्रस्तुत किये। उनका चरित्र आदर्श भावों से ओत-प्रोत है। उनके साकेत की उर्मिला वियोग की अवस्था में भी प्रिय के गौरव का अपकर्ष नहीं देखती। उन्माद के क्षणों में जब उसे लक्ष्मण अपने सामने खड़े से जान पड़ते हैं, तो वह व्याकुल हो उठती है। उसकी भावना को ठेस लगती है। लक्ष्मण का कर्त्तव्य पथ से विचलित होना तो उसका पतन है और वह कह उठती है-
प्रभु नहीं फिरे, क्या तुम्हीं फिरे? हम गिरे अहो! तो गिरे, गिरे।
गुप्त जी के पात्र उदार हृदय के हैं। उर्मिला विरह में सूरदास की गोपियों समान मधुबन को हरे-भरे रहने का उलाहना नहीं देती, वह तो कहती है
‘रह चिर दिन तू हरी भरी।’
गुप्त जी के सभी पात्र उदात्त गुणों से युक्त, तेजस्वी और कर्मठ हैं। पात्रों के माध्यम से गुप्त जी ने लोक-मांगलिक आदर्श प्रस्तुत किया है।
(3) मार्मिक प्रसंगों का सुनियोजन- मार्मिक प्रसंगों के सुनियोजन में गुप्त जी सिद्धहस्त थे। ‘साकेत’ की उर्मिला और ‘यशोधरा’ की यशोधरा के रूप में उनकी भावुकता साकार हो उठी है। इन दोनों ही नारी पात्रों के भावों के अनगिनत चित्र गुप्त जी ने प्रस्तुत किये हैं और इन चित्रों से अनेक मार्मिक प्रसंग अवतरित हो सके हैं। वियोग में रहने वाले अश्रुओं की वास्तविकता तो उर्मिला ही जानती है कि यह अश्रु नहीं हैं, उसके प्रिय पहले आँखों में रहते थे, लेकिन अब उसके मानस में कूद गये हैं। यह अश्रु नहीं मानस-जल के छीटे हैं-
पहले आँखों में थे, मानस में कूद मग्न प्रिय अब थे।
छींटे वही उड़े थे, बड़े-बड़े अश्रु वे कब थे?
कितनी मार्मिक व्यंजना है इस कथन में ? वियोग में तो प्रिय अन्तर में समा जाता है, फिर आँसू कैसे? यशोधरा के रूप में नारी-जीवन की सम्पूर्ण मार्मिकता मानो साकार हो गयी है
अबला- जीवन हाय ! तुम्हारी यही कहानी ।
आँचल में है दूध और आँखों में पानी ।।
इस प्रकार अनेक मर्मस्पर्शी भावों के लिए गुप्त जी ने अपने काव्य में स्थल खोज लिये हैं।
(4) रस-परिपाक- रस-योजना की दृष्टि से भी गुप्त जी का काव्य पर्याप्त समृद्ध है। उनके काव्य में प्रायः सभी रस अपने सम्पूर्ण सौन्दर्य के साथ समाहित हैं। ‘साकेत’ में शृंगार और करुण रस का सुन्दर परिपाक हुआ है। नवम् सर्ग में उर्मिला की विरह-वेदना द्रवित होकर बह निकली है। वियोग-शृंगार की जड़ता-जन्य करुण-दशा की पराकाष्ठा देखिए
हँसी गयी, रो भी न सकूँ मैं अपने इस जीवन में।
तो उत्कण्ठा है, देखूँ फिर क्या हो भाव भुवन में ।।
यशोधरा और द्वापर में वात्सल्य रस के मनोहारी चित्र हैं। देश-प्रेम सम्बन्धी काव्य में वीर, रौद्र और भयानक रसों का वर्णन है।
(5) प्रकृति-वर्णन : प्रकृति के अनेक सुन्दर चित्रों से गुप्त जी का काव्य रँगा हुआ है। उनके काव्य में प्रकृति आलम्बन, उद्दीपन आदि सभी रूपों में वर्णित हुई है। ‘पंचवटी’ में बिछी हुई में चाँदनी का दृश्य देखिए-
चारु चन्द्र की चंचल किरणें खेल रही हैं जल-थल में ।
स्वच्छ चाँदनी बिछी हुई है अवनि और अम्बर तल में ।।
आलंकारिक रूप में प्रकृति-वर्णन के अनेक सुन्दर चित्र गुप्त जी ने प्रस्तुत किये हैं। देखिए नीले आकाश में सूर्योदय काल में तारे विलुप्त हो रहे हैं। कवि कल्पना करता है कि नील सरोवर में में हंस मोती चुगता जा रहा है
सखि नील नभस्सर में उतरा, एक हंस अहा तरता-तरता।
अब तारक मौक्तिक शेष कहाँ, निकला जिनको चरता-चरता।।
उद्दीपन- रूप में प्रकृति का चित्रण उर्मिला के विरह-वर्णन में प्राप्त होता है। संयोग-काल की सुखद वस्तुएँ ही वियोग काल में दुःखद बन जाती हैं।
कलापक्ष
कलापक्ष के अन्तर्गत षा-शैली, अलंकार, छन्द, बिम्ब-विधान, प्रतीक योजना आदि अभिव्यक्ति के माध्यमों पर विचार किया जाता है।
(1) भाषा- गुप्त जी खड़ी बोली के प्रतिनिधि कवि हैं। गद्य के क्षेत्र में खड़ी बोली भारतेन्दु-युग में मान्य हो गयी थी, परन्तु काव्य में उस समय भी ब्रजभाषा का ही प्रचलन था। लोगों का विश्वास था कि खड़ी बोली में ब्रजभाषा का माधुर्य आ ही नहीं सकता है। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के काल में काव्य में खड़ी बोली का महत्त्व स्वीकार किया गया है। द्विवेदी जी के प्रोत्साहन और प्रेरणा से अनेक कवि सामने आये, जो खड़ी बोली को काव्य-जगत में प्रतिष्ठित करने के लिए प्रयत्नशील थे। ऐसे कवियों में अग्रगण्य थे मैथिलीशरण गुप्त जी। उनके जयद्रथ वध की प्रसिद्धि ने ब्रजभाषा के मोह का वध कर दिया।
(2) शैली- गुप्त जी ने विविध काव्य-शैलियों में अपनी काव्य-रचना की है। प्रबन्धात्मक शैली में साकेत, यशोधरा, रंग में भंग, पंचवटी, जयद्रथ वध आदि की रचना की; गीतात्मक शैली में भारत-भारती, स्वदेश प्रेम, हिन्दू, गुरुकुल आदि लिखे । तिलोत्तमा, चन्द्रहास और अनध गीति नाट्य-शैली में हैं तथा झंकार के गीत भावात्मक शैली में रचित हैं। इसके साथ ही उनके गीत मुक्तक-शैली में हैं तथा कुछ कविताओं में उपदेशात्मक-शैली के दर्शन होते हैं। इस प्रकार गुप्त जी ने अपने समय में प्रचलित सभी काव्य-शैलियों का प्रयोग किया है।
(3) अलंकार-निरूपण- गुप्त जी के काव्य में प्रायः सभी अलंकारों का प्रयोग हुआ है। अलंकार भाषा में स्वाभाविक रूप से ही नियोजित है। अतः उनसे काव्य-सौन्दर्य में वृद्धि हुई है। वे पाठक को चमत्कृत नहीं करते, अपितु हृदय में रसोद्रेक करते हैं। यही अलंकार प्रयोग की स्वाभाविकता है। उनकी कविता अलंकारों की अधिकता से बोझिल नहीं है, वरन् अलंकारों ने उसकी गति को चारुता प्रदान की है।
(4) छन्दोविधान- गुप्त जी ने सभी प्रमुख छन्दों का प्रयोग किया है। रोला, दोहा, छप्पय, कवित्त, सवैया, शिखरिणी, मालिनी, आर्या, हरिगीतिका, शार्दूलविक्रीड़ित, घनाक्षरी आदि छन्दों को भाव और विषयानुकूल नियोजित किया। साकेत और यशोधरा में छन्दों की विविधता दर्शनीय है। इस छन्द-वैविध्य से जहाँ काव्य में एकरसता नहीं आ पाती है, वहीं इसके द्वारा कवि के छन्द-ज्ञान का परिचय भी मिलता है। छन्दों की तुकयोजना में गुप्त जी को महारत हासिल है। चाहे जैसा अन्त्यनुप्रास हो, वे उसे खोज ही लाते हैं।
इस प्रकार मैथिलीशरण गुप्त की कविता न तो भारी भरकम जेबरों से लदी मन्दागामिनी प्रासादों की असूर्यम्पश्यसा राजपुत्री ही है और न इस युग की अप-टू-डेट पुरुषोचित आवरण धारण करने वाली रेसकोर्स में घोड़े की संचालिका नर-रूपा नारी ही। उसकी तुलना आधुनिक युग के मध्यवर्ग की सुसंस्कृत-नारी से की जा सकती है, जो प्राचीन युग की संध्याराग को अपनाये हुए भी उषाकाल के नवीन – बालारुण की तरह प्रफुल्लित रहती है।
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