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मैथिलीशरण गुप्त राष्ट्रकवि के रूप में अथवा मैथिलीशरण गुप्त राष्ट्रीय चेतना के कवि हैं
‘साहित्य समाज का दर्पण होता है।’ यह सूक्ति सर्वमान्य और सर्वप्रचलित है। वास्तव में कोई भी रचनाधर्मी अपने समाज और देश की दशा से किसी प्रकार से तटस्थ नहीं रह पाता है। वह अपने देश और समाज की दशाओं और प्रभावों से न केवल प्रभावित होता है, अपितु उनकी प्रतिक्रियार्थ कदम भी उठाता है। उसका यह कदम किसी युगान्तरकारी रचना-सृजन के रूप में आकर अपना अमिट प्रभाव छोड़ जाता है। इस तथ्य की पुष्टि हमें हिन्दी साहित्य के इतिहास के विभिन्न कालों से हो जाती है। आदिकाल के इतिहास में विदेशी आक्रामकों से उत्पन्न हुई देश-समाज की दशा को सुव्यवस्थित करने के लिए उस काल के कवियों की कृतियों का महत्त्व स्पष्टतः दिखाई देता है। इसी प्रकार मध्यकाल की धर्मान्धता के फलस्वरूप राष्ट्रीयता की छवि को धूमिल होते हुए देख तत्कालीन साहित्यकारों ने धार्मिक चेतना, सांस्कृतिक एकता और समानता का अपनी विभिन्न कृतियों के द्वारा जो जन-जागरण किया, वह निःस्संदेह इतिहास का स्वर्णिम अध्याय कहा जाता है। देश को पराधीनता में जकड़ने वाली अंग्रेज सत्ता के भी विरोधी स्वर प्रधान रचनाओं की बाढ़ आती रही। स्वतंत्रता का आह्वान और राष्ट्रीय चेतना का आह्वान पूर्वापेक्षा परम्परा और आधुनिकता के मिले-जुले धरातल करने के पुरजोर प्रयास किए गए। इस दिशा में कविवर मैथिलीशरण गुप्त का नाम उल्लेखनीय है । गुप्त जी की इस विशेषता को हम निम्नलिखित बिन्दुओं से सुस्पष्ट करना चाहेंगे
(1) भाषिक संरचना- गुप्त जी ने अपना काव्य-सृजन ब्रजभाषा से शुरू किया। उस समय की प्रतिष्ठित और परम्परागत चली आती हुई अवधी एवं ब्रजभाषा को गुप्त जी ने सम्मान और समादर प्रदान किया। गुप्त जी ने शनैः शनैः प्रतिष्ठा की ओर बढ़ने वाली नवोन्मेष होने वाली खड़ी बोली से भी अपना सम्पर्क बढ़ाया। इसके लिए उन्होंने तत्कालीन खड़ी बोली के पुरोधा आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी का सान्निध्य प्राप्त कर लिया। उनके सम्पादकत्व में निकलने वाली ‘सरस्वती’ पत्रिका के गुप्त स्थायी रचनाकार (कवि) बन गए। इस प्रकार गुप्त जी की राष्ट्रीय-चेतना और खड़ी बोली काव्य-भाषा की संस्कारमयी कार्य प्रणाली ‘सरस्वती’ पत्रिका के प्रकाशन के साथ-साथ होती रही। इस प्रकार गुप्त की भाषिक रचना तत्कालीन सन्दर्भ में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण दिखाई देती है।
(2) अतीत के समर्थक- इस देश के सृजकों के लिए रामायण और महाभारत प्रेरणा-स्रोत रहे हैं। इनसे प्राप्त विपुल सामग्रियों को समय-समय के रचनाकारों ने अपने काव्य को आधार दिया है। गुप्त जी के काव्य का प्रधान लक्ष्य खोए हुए अतीत के गौरव की वापसी तथा राष्ट्रीय चेतना की अभिव्यक्ति रही है
(3) कर्त्तव्य, अधिकार के उद्बबोधक- कर्त्तव्य और अधिकार की सार्थकता और समरसता मनुष्य की पूर्णता और अस्तित्व का द्योतक होती है। इस तथ्य का स्पष्टीकरण कविवर गुप्त जी की रचनाओं में यत्र तत्र सर्वत्र हुआ है। विदेशी शासकों द्वारा किए जा रहे उत्पीड़न तत्कालीन स्वतंत्रता संग्राम में निराशा का महारूप बन गया था। राष्ट्रीय चेतना के आह्वाहक तत्त्व कमजोर पड़ रहे थे। इस ओर गुप्त जी ने ध्यान दिया। उन्होंने ‘स्वतंत्रता जन्मसिद्ध अधिकार है’ यह ‘मूलमंत्र लोगों में फेंक दिया।
(4) मौलिक द्रष्टा- रचनाकार का महत्त्व तभी सिद्ध होता है, जब वह निष्पक्ष और बिना पूर्वाग्रह के भाव से अपना मंतव्य प्रस्तुत करता है। गुप्त जी इस तथ्य के पूरे प्रतीक और प्रमाण हैं। उनका सम्पूर्ण योगदान मौलिक और बिना किसी पूर्वाग्रह के है। वे परम्परा और नवीन के सूक्ष्मदर्शी और सूक्ष्म पारखी हैं। इस दिशा में अतीत के बड़े हिमायती इसलिए सिद्ध होते हैं कि अतीत में सब कुछ सुखद, मंगलदायक तथा जीवनोपयोगी दिखाई देती है। इसके विपरीत आधुनिक उन्हें सर्वथा अनिष्टकारक, दुःखद और जीवनानुपयोग लगता है।
(5) महान् प्रेरक- गुप्त जी का सम्पूर्ण व्यक्तित्व महान् प्रेरक और उद्बोधक के रूप में दिखाई पड़ता है। इससे न केवल समकालीन अपितु परवर्ती रचनाकारों को सर्वथा ओज, उत्साह और सप्रेरणा मिलती है। वास्तव में गुप्त जी ने अपनी सभी रचनाओं के द्वारा दिव्य युग संदेश दिया, जो सत्प्रेरक सिद्ध होता है।
निष्कर्ष- इस प्रकार कदम से कदम मिलाकर चलती हुई राष्ट्रीयता की अभिव्यक्ति गुप्त जी की सम्पूर्ण साहित्य यात्रा स्वतन्त्रता संग्राम के साथ हुई है। यह यात्रा उत्तर भारत की जनता के दिलो-दिमाग रामायण और महाभारत की कथाओं को मुख्य आधार मानकर चली है तथा सामयिक सन्दर्भों से जोड़कर युगानुकूल बनाने के प्रयास भी पूर्ण रूप से सफल हुए हैं। गुप्त जी पर विकसित हुई है। गुप्त जी स्वतन्त्रता को धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक तथा वैयक्तिक सारे की खरों पर प्राप्त करने के हामी हैं तथा पुरुष प्रधान समाज के समानान्तर नारियों के रचनात्मक स्वतन्त्रता की भावना व्यक्तिगत स्वतन्त्रता से होती हुई राष्ट्रीय स्वतन्त्रता की स्वाभाविक भूमि और सहयोगी समाज को पूरे स्वावलम्बन के साथ खड़ा कर स्वतन्त्रता संग्राम को पूरी तरह से बल प्रदान करते हैं। पूरे देश की भाषा के रूप में विषयानुकूल आंचलिक बोलियों का परित्याग कर हिन्दी को प्रतिष्ठित करने के रचनात्मक अनुष्ठान को कार्यरूप में परिणत करते हैं तथा समाज के उपेक्षितों को पूरी सहानुभूति के साथ खड़ा करके व्यक्ति के स्थान पर देश की सम्पूर्णता, एकता, अखण्डता को व्यावहारिक धरातल पर बल प्रदान करने का भी कार्य करते हैं। यहाँ आकर आदिकाल के विभिन्न दरबारों की अलग-अलग राष्ट्रीयता मध्यकाल की भावात्मक सांस्कृतिक एकता पूरी तौर से राजनीतिक हो गयी है। जो कहानी राजनीतिक स्तर पर देश के धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, जागरण की कहानी गांधी जी लिख रहे थे, उसकी सार्थक परिणति गुप्त जी के काव्य में देखी जा सकती है। राष्ट्रकवि की रचनाओं में देश के लिए देखा गया राष्ट्र-पिता का सपना साकार होकर हमारे सामने पूरे प्रभाव के साथ आया है।
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