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रविन्द्रनाथ टैगोर के अनुसार शिक्षा का अर्थ, उद्देश्य, शिक्षण-विधि एवं पाठ्यक्रम

विन्द्रनाथ टैगोर के अनुसार शिक्षा का अर्थ
विन्द्रनाथ टैगोर के अनुसार शिक्षा का अर्थ

टैगोर के अनुसार शिक्षा का अर्थ (Meaning of Education According to Tagore)

टैगोर ने शिक्षा का अर्थ अत्यन्त व्यापक रूप में लिया है। उनका मत है कि शिक्षा व्यक्ति के शारीरिक, बौद्धिक और नैतिक विकास में सहायक होती है। अपनी पुस्तक ‘पर्सनालिटी’ (Personality) में टैगोर ने लिखा है- “उच्चतम शिक्षा वह है जो हमारे जीवन के सभी अस्तित्वों के साथ सामंजस्यपूर्ण सम्बन्ध बनाती है।”

“”The highest education is that which makes one life in harmony with all existence.’ “

सभी अस्तित्वों अर्थात् जीवों और वस्तुओं के साथ सामंजस्य एवं समरसता तभी सम्भव हो सकती है जबकि व्यक्ति की समस्त शक्तियाँ पूर्ण रूप से विकसित हो जाएँ। इस स्थिति को ही टैगोर पूर्ण मनुष्यत्व मानते हैं और उनका कथन है कि इस पूर्ण मनुष्यत्व की प्राप्ति ही शिक्षा का उद्देश्य है। टैगोर यह कहते हैं कि केवल ज्ञानार्जन ही शिक्षा नहीं है बल्कि शिक्षा के द्वारा बालक में समस्त क्षमताओं का विकास होना चाहिए।

टैगोर के अनुसार शिक्षा के उद्देश्य (Objectives of Education According to Tagore)

यद्यपि टैगोर ने रूसो या स्पेन्सर की भाँति शिक्षा पर कोई पुस्तक नहीं लिखी, परन्तु उनके लेखों, साहित्यिक रचनाओं, व्याख्यानों आदि के द्वारा उनकी शिक्षा के उद्देश्य पूर्ण रूप से स्पष्ट हो जाते हैं। टैगोर शिक्षा का उद्देश्य मनुष्य का सर्वाङ्गीण विकास मानते हैं। यहाँ हम इसी तथ्य को अधिक विस्तार से स्पष्ट करेंगे।

(1) शारीरिक विकास- टैगोर यह मानते है कि शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य बालक का शारीरिक विकास है। बालक का शारीरिक विकास तभी हो सकता है, जब उसे प्रकृति के स्वच्छन्द वातावरण में खेलने-कूदने, उठने-बैठने और अध्ययन करने की सुविधा प्रदान की जाय। टैगोर किताबी शिक्षा के शारीरिक विकास को अधिक महत्त्व प्रदान करते हैं। उन्होंने लिखा है, ‘पेड़ों पर चढ़ने, तालाबों में डुबकियाँ लगाने, फूलों को तोड़ने और बिखेरने और प्रकृति माता के साथ नाना प्रकार की शैतानियाँ करने से बालकों को शरीर का विकास, मस्तिष्क का आनन्द और बचपन के स्वाभाविक आवेगों की संतुष्टि प्राप्ति होती है।”

इससे स्पष्ट है कि टैगोर की शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य शारीरिक विकास है क्योंकि शारीरिक विकास के बिना मानसिक विकास व्यर्थ है।

(2) मानसिक अथवा बौद्धिक विकास-टैगोर के अनुसार शिक्षा का उद्देश्य शारीरिक विकास के साथ ही मानसिक या बौद्धिक विकास है। पुस्तकों से सहायता प्राप्त करना मानसिक विकास का केवल एक अंग मात्र है। वास्तविक मानसिक विकास प्रकृति एवं जीवन की वास्तविक परिस्थितियों से प्रत्यक्ष रूप से ज्ञान प्राप्त करना ही हो सकता है। टैगोर ने लिखा था, “पुस्तकों की बजाय प्रत्यक्ष रूप से जीवित व्यक्तियों को जानने का प्रयास करना शिक्षा है। इससे न केवल कुछ ज्ञान प्राप्त होता है, बल्कि इससे जानने की शक्ति का विकास होता है, जितना कक्षा में सुने जाने वाले व्याख्यानों से होना असम्भव है। यदि हमारे मस्तिष्क संवेगों और कल्पना की वास्तविकता से पृथक कर दिये जाते हैं, तो वे निर्बल तथा विकृत हो जाते हैं।”

(3) संवेगात्मक विकास- टैगोर शिक्षा का उद्देश्य शरीर और मन के विकास के साथ ही संवेगों का विकास भी मानते हैं। उनका मत था कि संगीत, चित्रकला और कविता आदि के द्वारा बालक को संवेगात्मक प्रशिक्षण प्रदान किया जाना चाहिए, जिससे उसमें सहानुभूति, प्रेम, दया, परोपकारिता आदि की भावना उत्पन्न हो सके।

(4) जीवन से सामंजस्य की क्षमता का विकास- टैगोर का मत था कि शिक्षा इस प्रकार की होनी चाहिए कि बालक जीवन की परिस्थितियों के साथ पूर्ण सामंजस्य स्थापित कर सके। यदि शिक्षा जीवन की वास्तविक परिस्थितियों से सामंजस्य स्थापित कराने में समर्थ नहीं है तो वह व्यर्थ है। टैगोर ने लिखा था, “इस समय हमारा ध्यान चाहने वाली प्रथम और महत्त्वपूर्ण समस्या हमारी शिक्षा और हमारे जीवन में सामंजस्य स्थापित करने है।”

(5) सामाजिक विकास – टैगोर शिक्षा का उद्देश्य बालक के वैयक्तिक विकास के साथ ही उसका सामाजिक विकास भी मानते हैं। यद्यपि वह प्रकृति के स्वतन्त्र वातावरण में शिक्षा प्रदान करने के समर्थक हैं, परन्तु इसके साथ ही वह यह भी कहते हैं कि बालक में सामाजिक गुणों का विकास करना भी शिक्षा का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण उद्देश्य है। शिक्षा बालक में इस प्रकार सामाजिक गुणों का विकास करने में समर्थ नहीं होती यह वास्तविक शिक्षा नहीं है।

(6) नैतिक एवं आध्यात्मिक विकास- टैगोर ने शिक्षा के नैतिक एवं आध्यात्मिक उद्देश्य को भी महत्त्व प्रदान किया है। उनका कथन है कि शिक्षा बालकों में नैतिक गुणों का विकास करने में समर्थ होनी चाहिए। टैगोर सही नैतिक शिक्षा उस शिक्षा को मानते हैं, जिसमें आध्यात्मिकता का भी पुट हो। अनुशासन, शान्ति और धैर्य आदि मानव के अन्तर्गत आवश्यक हैं। उसमें आत्म-निर्णय और आत्मानुशासन की क्षमता होनी चाहिए। यह बातें शिक्षा के द्वारा ही लाई जा सकती हैं। टैगोर का मत था कि नैतिकता और आध्यात्मिकता ही व्यक्ति की उन्नति की कसौटी है और इन गुणों का विकास शिक्षा के द्वारा ही होना चाहिए। मानव, मानव इसीलिए है कि इसमें नैतिकता और आध्यात्मिकता की भावना होती है। यदि शिक्षा बालकों में नैतिक गुणों का विकास करने में समर्थ न हो और उनमें आध्यात्मिक भावना न ला सके, तो वह शिक्षा व्यर्थ है।

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टैगोर की शिक्षण विधि (Teaching Methods of Tagore)

टैगोर ने अपनी शिक्षण विधि में उपर्युक्त शिक्षण सिद्धान्तों को मान्यता प्रदान की है। टैगोर का यह विश्वास था कि शिक्षण विधि वास्तविक मान्यताओं पर आधारित होनी चाहिए। वह लिखते हैं. “वास्तविक वस्तुओं के सम्पर्क में आने से जो छात्रों के सामने उपस्थित हैं, उनकी निरीक्षण तथा तर्क शक्ति का विकास होता है।”

“In contact which the real object that are present before the pupils their powers of observation and reasoning will develop.” -Tagore

टैगोर ने आधुनिक युग की शिक्षण पद्धति की तीखी आलोचना की है और कहा है कि हमारे विद्यालय बालकों के सर्वांगीण विकास में सहायक नहीं हैं। वास्तव में हमारे विद्यालय शिक्षण फैक्टरियाँ है जहाँ जीवन की आवश्यकताओं, रुचियों, अभिव्यक्तियों आदि पर ध्यान दिये बिना शिक्षण प्रदान किया जाता है और छात्रों को स्वप्रयास और स्वचिन्तन का अवसर प्रदान नहीं किया जाता है वहाँ क्रिया द्वारा सीखने पर बल दिया जाता है। टैगोर स्व-प्रयास और स्व-चिन्तन द्वारा सीखने पर बल देते हैं। उन्होंने अत्यन्त स्पष्ट शब्दों में लिखा है कि शिक्षण पद्धति में इस प्रकार की दस्तकारी को सिखाना आवश्यक मानते हैं। ‘करके सीखने’ की मान्यता प्रदान करते हुए वह भ्रमण द्वारा सीखने को भी महत्त्व प्रदान करते हैं। उनके अनुसार, “भ्रमण करते हुए पढ़ाना शिक्षा की सर्वोत्तम विधि है।”

Teaching while walking is the best method of teaching.” – Tagore

भ्रमण द्वारा जब छात्र स्वयं प्रत्यक्ष अनुभव द्वारा सीखता है तो उसे स्थायी ज्ञान की प्राप्ति होती है।

टैगोर केवल मात्र शिक्षण के पाठ्य पुस्तक विधि को उचित नहीं मानते, वे वाद-विवाद एवं प्रश्नोत्तर विधि को मान्यता प्रदान करते हैं। उसके अनुसार व्याख्या विधि उपयोगी नहीं है। छात्रों को स्वतन्त्र वातावरण में प्रश्नोत्तर एवं वाद-विवाद विधियों के माध्यम से सिखलाया जाना चाहिए।

टैगोर के पाठ्यक्रम सम्बन्धी विचार (Tagore’s Views on Curriculum )

टैगोर शिक्षा का उद्देश्य मानव का पूर्ण विकास मानते हैं और इसी आधार पर पाठ्यक्रम का चयन करना चाहते हैं। भारतीय विद्यालयों में प्रचलित पाठ्यक्रमों के विरुद्ध उनकी बहुत बड़ी शिकायत थी। उनका कहना था कि इस पाठ्यक्रम में केवल सैद्धान्तिक ज्ञान पर बल दिया जाता है। वह केवल मात्र छात्रों को दण्डित करने की ओर प्रेरित करता है।

टैगोर का विचार था कि पाठ्यक्रम जीवन के सम्पूर्ण अनुभवों से सम्बन्धित होना चाहिए। उसमें केवल कुछ सीमित क्रियाओं को स्थान नहीं देना चाहिए, बल्कि उसके अन्तर्गत अनेक क्रियाएँ आनी चाहिए। पाठ्यक्रम के निर्धारण में पाठ्य पुस्तक को विशेष महत्त्व दिया जाना चाहिए। यथार्थवादी दृष्टिकोण को अपनाते हुए टैगोर ने कहा था कि पाठ्यक्रम बालक के ज्ञान की जिज्ञासा की पूर्ति तो करेगा ही, साथ ही बालक के प्रतिदिन के जीवन के साथ सम्बद्ध होना चाहिए। पाठ्यक्रम का चयन राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय आधारों पर होना चाहिए। उसका लक्ष्य मानवीय एकता को बनाये रखना होना चाहिए। पाठ्यक्रम में प्रकृति की शिक्षा और मनुष्य की शिक्षा में सन्तुलन स्थापित किया जाना चाहिए। आरम्भ में सात वर्ष तक बालक को प्रकृति की ही शिक्षा दी जानी चाहिए, जिससे वह स्वतंत्र विचरण, निरीक्षण, खेलकूद आदि के द्वारा ज्ञान प्राप्त कर सके। पाठ्यक्रम बालक के भविष्य से सम्बन्धित होना चाहिए। उसका निर्धारण सांसारिक आवश्यकताओं के साथ ही किया जाना चाहिए। पाठ्यक्रम में शुद्ध ज्ञान एवं प्रयोगात्मक ज्ञान का सामंजस्य स्थापित किया जाना चाहिए।

टैगोर ने निम्नलिखित विषयों एवं क्रियाओं को पाठ्यक्रम में सम्मिलित किया-

(1) भाषा एवं साहित्य – मातृ-भाषा, अन्य भारतीय भाषाएँ, अंग्रेजी एवं अन्य विदेशी भाषाएँ तथा चीनी, जापानी, रूसी, लैटिन, ग्रीक, फ्रेन्च, जर्मन आदि।

(2) गणित।

(3) विज्ञान-रसायन, भौतिकी, जीव-जन्तु विज्ञान, प्रकृति विज्ञान, स्वास्थ्य विज्ञान, आदि। (4) सामाजिक विषय- अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, इतिहास, भूगोल आदि ।

(5) कला-संगीत, नृत्य, अभिनय आदि ।

(6) कृषि एवं टेकनिकल विषय। (7) दर्शन, धर्म, मनोविज्ञान आदि।

(8) अन्य क्रियाएँ-बागवानी, भ्रमण, क्षेत्रीय अध्ययन, अजायबघर के लिए वस्तुओं का संग्रह आदि ।

(9) पाठ्यक्रमेत्तर क्रियाएँ-समाज-सेवा, खेलकूद आदि।

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि टैगोर का पाठ्यक्रम विषय प्रधान न होकर क्रिया प्रधान था। डॉ० एच० बी० मुकर्जी ने ठीक ही लिखा है, “इस दृष्टि से टैगोर की शिक्षा संस्थाओं में लागू किया जाने वाला पाठ्यक्रम क्रिया प्रधान पाठ्यक्रम रहा है।”

“From this point of view, the curriculum introduced in Tagore institutions has been activity curriculum.” -H. B. Mukerjee

 यहाँ इस सम्बन्ध में यह भी लिख देना उचित होगा कि टैगोर ने शिक्षा की विभिन्न व्यवस्थाओं पर अलग-अलग पाठ्यक्रम की व्यवस्था की है। प्रारम्भिक, माध्यमिक और प्रौढ़ शिक्षा के लिए उन्होंने अलग-अलग प्रकार के पाठ्यक्रमों का निर्धारण किया है।

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shubham yadav

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