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राजनीतिक विचारधारा के प्रकार
राजनीतिक विचारधाराओं का वर्गीकरण राजनीतिक व्यवस्था के अन्तर्गत उनकी भूमिका से होता है। इस प्रकार विचारधाराओं के बीच हम इस प्रकार भेद कर सकते हैं: प्रतिक्रियावादी अनुदारवादी, सुधारवादी, उग्रवादी, क्रांतिकारी। इस प्रकार के वर्गीकरण का प्रयोग करने पर सोवियत मार्क्सवाद और अमरीकी उदारवाद को ‘विचारधारा’ जैसे एक ही शीर्षक के नीचे रखकर उनके बारे में बात करने में कोई कठिनाई नहीं होती।
ई. एच. कार ने राजनीतिक विचारधारा के दो प्रकार बतलाएँ हैं:
1. आदर्शत्मक विचारधारा 2. यथार्थवादी विचारधारा
आदर्शवादी विचारधारा भविष्य में ऐसे राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय समाज की तस्वीर पेश करती है जो शक्ति, राजनीति, अनैतिकता और हिंसा से सर्वथा मुक्त हो । राजनीति में आदर्शवादी विचारधारा का सम्बन्ध ‘क्या होना चाहिए’ से है। आदर्शवादी चिन्तक इन प्रश्नों पर विचार करते रहे हैं कि दुनिया में न्याय और शांति कैसे स्थापित की जा सकती है। युद्धों का उन्मूलन कैसे किया जा सकता है, अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग कैसे विकसित हो सकता है।
यथार्थवादी विचारधारा शक्ति, शस्त्र और युद्ध को मानव स्वभाव की विशेषताएँ मानता है। दूसरे शब्दों में यथार्थवाद विचारों का वह समूह है जो सुरक्षा और शक्ति के घटकों के ध्वनितार्थो को अपनी चिन्तन सामग्री बनाता है। यथार्थवादी विचारधारा के अनुसार शक्ति और हित के आधार पर ही राजनीति के वास्तविक अभिनेताओं के कार्यों को समझा जा सकता है।
मॉरगेन्थाऊ ने ‘विचारधारा’ का विश्लेषण विदेश नीति के सन्दर्भ में किया है । वे स्पष्ट लिखते हैं कि “कुछ विशेष प्रकार की विचारधाराएँ कुछ विशेष प्रकार की अन्तर्राष्ट्रीय नीतियों से जुड़ी हुई होती है।” इस दृष्टि से वे तीन प्रकार की विचारधाराएँ मानते है:- (1) यथास्थिति की विचारधारा, (2) साम्राज्यवाद की विचारधारा, (3) अस्पष्ट विचारधाराएँ। पहले प्रकार की विचारधारा को ‘यथास्थिति की विचारधारा’ की संज्ञा प्रदान की है। यथापूर्व स्थिति की नीति में विश्वास करने वाले राष्ट्र अपने व्यवहार को विचारधाराओं के आवरण में छिपाना नही चाहते। मॉरगेन्थाऊ का कथन है कि जो देश यथापूर्व स्थिति की नीति अपनाता है वह उस शक्ति की रक्षा का प्रयत्न करता है जो उसको प्राप्त है। यह बात विशेष रूप से तब होती है जब भूभागीय यथापूर्व संरक्षण नैतिक या कानूनी आक्षेप से मुक्त हो। स्विट्जरलैण्ड, डेनमार्क, नार्वे, स्वीडन जैसे देश अपनी विदेश नीति को यथापूर्व स्थिति में रखने वाली नीति के रूप में व्यक्त कर सकते हैं क्योंकि इनकी यथापूर्व स्थिति को न्यायोचित मान लिया गया है। दूसरी तरफ ब्रिटेन, फ्रांस, यूगोस्लाविया, चैकोस्लोवाकिया और रूमानिया, जो कि दोनों विश्वयुद्धों के दौरान मुख्यत यथापूर्व स्थिति की नीति का अनुसरण करते रहे, अपनी विदेश नीतियों के लिए खुलकर यह घोषणा नहीं कर सकते थे कि वे भविष्य में यथापूर्व स्थिति की विदेश नीति में आस्था रखेंगे। क्योकि सन् 1919 की यथापूर्व स्थिति की कानूनी यथार्थता स्वयं इन राष्ट्रो की आन्तरिक व ब्राह्म क्षेत्रों में चुनौती का शिकार बन चुकी थी, अतः उन्हें उन आदर्श सिद्धान्तों को गढ़ना आवश्यक हो गया, जो कि इन चुनौतियों का सामना कर सकें। इसलिए इन राष्ट्रों ने एक और नयी विचारधारा का निर्माण किया जिसे शान्ति और अन्तर्राष्ट्रीय कानून की विचारधारा कहते हैं। शान्ति व अन्तर्राष्ट्रीय कानून के आदर्श यथापूर्व स्थिति की नीति की सेवा में विशिष्ट रूप की विचार पद्धतियाँ हैं, क्योंकि साम्राज्यवादी नीतियाँ यथापूर्व स्थिति में गड़बड़ी पैदा करके प्रायः युद्ध की ओर अग्रसर होती है और उन्हें युद्ध की सम्भावना को सदा अपने दृष्टिकोण के सम्मुख रखना होता है। अपनी यथापूर्व स्थिति को शान्तिवाद की शब्दावली में घोषित कर एक राजनीतिज्ञ अपने साम्राज्यवादी विरोधियों के ऊपर युद्धप्रियता का कलंक मढ़ देता है। अन्तर्राष्ट्रीय कानून की दुहाई किसी विदेश नीति के पक्ष में सदैव यथापूर्व स्थिति की नीति के वैचारिक आवरण के रूप में प्रयुक्त होती है। कानून साधारणतः और अन्तर्राष्ट्रीय कानून विशेषकर एक स्थिर सामाजिक शक्ति का एक विशेष वितरण निर्धारित करता है तथा उसे विशेष ठोस परिस्थितियों में स्थिर रखने में मानदण्ड तथा पद्धतियाँ प्रस्तुत करता है। यथापूर्व स्थिति की नीति का समर्थन करने के लिए राष्ट्र संघ और संयुक्त राष्ट्र संघ जैसे अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों का भी प्रयोग किया जाता है। यह नीति सामूहिक सुरक्षा व्यवस्था की ओर भी प्रेरित हो सकती है क्योंकि यथापूर्व स्थिति के समर्थक देश इसे बदलने वाले देशों के विरुद्ध संगठित हो सकते हैं।
दूसरे प्रकार की विचारधाराओं को मॉरगेन्थाऊ ने ‘साम्राज्यवाद की विचारधारा’ घोषित किया है। साम्राज्यवादी नीति को सदा ही एक विचारधारा की आवश्यकता होती है। उसे यह प्रमाणित करना होता है कि वह जिस यथास्थिति को पलटना चाहता है वह पलट देने लायक है और इसके बाद शक्ति का जो नये सिरे से वितरण किया जायेगा वह नैतिक एवं न्यायपूर्ण होगा। साम्राज्यवादी विचारधाराएँ अन्तर्राष्ट्रीय कानून की दुहाई न देकर, एक ऐसे उच्च कानून (प्राकृतिक विधि) की दुहाई देती हैं जो कि न्याय की आवश्यकताओं की पूर्ति करता हो। नाजी जर्मनी ने वार्साऊ की सन्धि की यथा- पूर्व स्थिति परिवर्तित करने की माँग मुख्यतः समानता के सिद्धान्त की दुहाई देकर की थी। साम्राज्यवाद को विचारधारा की सबसे अधिक आवश्यकता है क्योंकि उसे राज्यों को जीतने के लिए बहाने की आवश्यकता होती है जो उसके औचित्य का प्रतिपादन कर सके। ‘सफेद लोगों का बोझ ‘राष्ट्रीय कर्तव्य’, ‘पवित्र विश्वास’, ‘क्रिश्चयन कर्तव्य’, आदि साम्राज्यवादी वैचारिक नारों ने सभ्यता कर्तव्य को पुष्ट करने की दुहाई दी या उपनिवेश को पिछड़ेपन से मुक्त कराने की या धार्मिक पूरा करने की दुहाई दी। जापान की पूर्वी एशिया के लिए ‘संयुक्त धन का क्षेत्र’ की विचारधारा मानवतावादी आवरण के वैसे ही आवरणों को द्योतक थी। नेपोलियन का साम्राज्यवाद यूरोप भर में ‘स्वतन्त्रता, समानता व भ्रातृत्व’ की पताका फहराते हुए फेल हो गया था। चार्ल्स डारविन और हर्बर्ट स्पेंसर के प्रभाव में आकर साम्राज्यवाद की विचारधाराओं ने जैविकीय तर्क पेश किये। अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में लागू करने पर ‘सर्वशक्तिशाली की जीवित रहने की उपयुक्तता’ का सिद्धान्त’ एक शक्तिशाली राष्ट्र की दुर्बल राष्ट्र के ऊपर उच्चता में स्वभावतः परिणत हो जाता है। साम्यवाद, फासिस्टवाद, नाजीवाद तथा जापनी साम्राज्यवाद ने इन जीव वैज्ञानिक विचारधाराओं को एक नया क्रान्तिकारी मोड़ दे दिया। जर्मन जनता एक क्षेत्रहीन जनता है जो यदि रहने योग्य स्थान प्राप्त न कर पायी तो उसका दम घुटता रहेगा और यदि उसे कच्चा माल प्राप्त न हो पाया तो भूखों मर जायेंगी।
तीसरे प्रकार की विचारधाराएँ वे हैं जिन्हें मॉरगेन्थाऊँ ‘अस्पष्ट विचारधाराओं’ के नाम से पुकारता है। चूँकि ये विचाराधाराएँ आक्रमणकारी उद्देश्यों की पूर्ति के लिए तथा साथ ही में यथास्थिति को कायम रखने के लिए प्रयोग में लायी जा सकती हैं इसलिए इन्हें अस्पष्ट विचारधाराएँ कहा गया है। हमारे युग में ऐसी तीन विचारधाराएँ पनपी हैं- राष्ट्रीय आत्म-निर्णय की विचारधारा, शान्ति की विचारधारा और संयुक्त राष्ट्र की विचारधारा । राष्ट्रीय आत्मनिर्णय के सिद्धान्त की कल्पना राष्ट्रपति वुडरो विल्सन ने पेश की थी। आपने मध्य यूरोप के राष्ट्रि के समूहों की विदेशी आधिपत्य से मुक्ति को उचित ठहराया था। वैचारिक दृष्टि से यह सिद्धान्त साम्राज्यवाद का विरोधी था । हिटलर को सूझा कि यह राष्ट्रीय आत्म निर्णय का सिद्धान्त अपनी राज्य विस्तार की नीतियों के आवरण के रूप में प्रयोग किया जा सकता है। इस सिद्धान्त पर उसने पोलैण्ड और चेकोस्लोवाकिया के जर्मन अल्पसंख्यकों को उकसाया।
संयुक्त राष्ट्र संघ को द्वितीय विश्वयुद्ध की विजय के उपरान्त स्थापित यथापूर्व स्थिति की रक्षा के क्षेत्र में संगठित किया गया था। किन्तु यह पाया गया कि संयुक्त राष्ट्र संघ की विचारधारा की विभिन्न राष्ट्र अपने-अपने ढंग से व्याख्या करने लगे। प्रत्येक राष्ट्र संयुक्त राष्ट्र संघ का पूर्ण पोषक दृष्टिगोचर होता है और सभी राष्ट्र विदेश नीति के पक्ष में चार्टर की धाराओं की दुहाई देते हैं। इन नीतियों के विरोधाभासी होने के कारण संयुक्त राष्ट्र संघ का सन्दर्भ अपनी स्वयं की नीति को न्यायसंगत प्रमाणित करने के लिए और साथ ही उन नीतियों के वास्तविक चरित्र को ढाँपने के लिए वैचारिक साधन बन जाता है।
इस प्रकार द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद, शान्ति की अस्पष्ट विचारधारा भी अस्तित्व में आयी । शान्तिमय इरादों के बारे में जो घोषणाएँ अक्सर की जाती हैं वे आमतौर से किसी विदेश नीति के बुनियादी उद्देश्य छिपाने के लिए प्रयुक्त मुखौटे ही होती हैं। अपने विरोधियों को बदनाम करने के लिए उन्हें ‘शान्तिविरोधी’, ‘शान्तिघाती’ एवं ‘शन्तिविध्यवंसक’ कहने का रिवाज हो गया है। शान्ति की विचारधारा के आधार पर एक देश दो महत्वपूर्ण राजनीतिक कार्य करता है—प्रथम, वह अपनी वास्तविक नीति के उद्देश्य को छिपाना चाहता है, और द्वितीय, वह अपनी नीतियों के लिए सर्वत्र सद्भावना प्राप्त करना चाहता है।
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