राजनीति विज्ञान (Political Science)

राज्य के उद्देश्य एवं कार्यों के सम्बन्ध में उदारवाद

राज्य के उद्देश्य एवं कार्यों के सम्बन्ध में उदारवाद
राज्य के उद्देश्य एवं कार्यों के सम्बन्ध में उदारवाद

राज्य के उद्देश्य एवं कार्यों के सम्बन्ध में उदारवाद

राज्य के उद्देश्यों और कार्यों के सम्बन्ध में उदारवादियों का सदैव एक ही दृष्टिकोण नहीं रहा है और इस सम्बन्ध में उसकी विचारधारा परिस्थितियों के अनुसार विकसित होती रही है।

इस सम्बन्ध में उदारवाद के प्रमुख रूप से दो बतलाएँ जा सकते हैं- (1) परम्परागत उदारवाद, तथा (2) आधुनिक जनतन्त्रात्मक उदारवाद ।

परम्परागत उदारवाद- मूल रूप में उदारवाद का जन्म स्वेच्छाचारी शासन और व्यवस्था के विरूद्ध एक स्वतन्त्रता आन्दोलन के रूप में हुआ था और परम्परागत उदारवाद का मूल तत्व स्वतन्त्रता की रहा है। जॉन लॉक और जॉन स्टुअर्ट मिल को इस परम्परागत उदारवाद का प्रतिनिधि विचारक कहा जा सकता है। प्रो० हाबहाउस ने अपने ‘उदारवाद’ शीर्षक ग्रन्थ में परम्परागत उदारवाद के नौ मूल सिद्धान्त बतलाएँ हैं, जो इस प्रकार हैं:

(1) नागरिक स्वतन्त्रता – नागरिक स्वतन्त्रता शासकीय स्वेच्छाचारिता का विरोध करती है और इसका कथन है कि व्यक्तियों पर व्यक्तियों को नहीं, वरन् कानूनों को प्रभुत्व प्राप्त होना चाहिए। मध्ययुग की सामन्ती व्यवस्था में सामन्त वर्ग के वर्गीय विशेषाधिकारों का बोलबाला था। व्यक्तियों को अपने जीवन और सम्पत्ति की सुरक्षा प्राप्त नहीं थी, समान्त वर्ग के द्वारा व्यक्तियों को मनमाने तरीके से सताया जाता, उन्हें कारागृह में डाल दिया जाता और उनकी सम्पत्ति को छीन लिया जाता था। नागरिक स्वतन्त्रता के आदर्श द्वारा इस स्वेच्छाचारिता का विरोध किया गया और इस बात का प्रतिपादन किया गया कि व्यक्तियों को अपनी इच्छानुसार जीवन व्यतीत करने का अधिका प्राप्त होना चाहिए।

(2) वित्तीय स्वतंत्रता – मध्य युग के निरंण शासकों द्वारा अनेक बार जनता पर मनमाने कर लगा दिये जाते थे, अतः नागरिक चेतना के उदय के साथ इस बात पर बल दिया गया कि नागरिकों पर उनके प्रतिनिधियों की इच्छा के बिना कोई कर नहीं लगाएँ जाएं। उदारवादी सम्पत्ति को व्यक्तियों का एक पवित्र अधिकार मानते थे, इसीलिए उनके द्वारा यह कहा गया कि नागरिकों पर कर लगाने का अधिकार जनप्रतिनिधियों के बहुमत को ही हो सकता है। इसका अर्थ है उत्तरदायी शासन। 18 वीं सर्दी के अन्त में अमरीकी स्वतन्त्रता संग्राम इसी प्रश्न को लेकर प्रारम्भ हुआ था और उनका प्रसिद्ध नारा था ‘बिना प्रतिनिधित्व के कर नहीं।

(3) व्यक्तिगत स्वतन्त्रता – उदारवादियों के द्वारा सदैव ही व्यक्तिगत स्वतन्त्रता पर बहुत अधिक बल दिया गया है। उनके द्वारा शासकीय और धार्मिक निरंकुशता का विरोध करते हुए इस बात का प्रतिपादन किया गया कि व्यक्ति को अपने जीवन के सभी क्षेत्रों के अन्तर्गत स्वयं अपने सम्बन्ध में निर्णय करने का पूर्ण अधिकार प्राप्त होना चाहिए। व्यक्तियों के जीवन और उनके रहन सहन में राज्य या समाज के अन्य व्यक्तियों द्वारा उस समय तक कोई हस्तक्षेप नहीं किया जाना चाहिए, जब तक कि सामाजिक हित की दृष्टि से इस प्रकार का हस्तक्षेप नितान्त आवश्यक न हो गया हो। व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के अन्तर्गत विचार और भाषण की स्वतन्त्रता, रहन-सहन की स्वतन्त्रता, धार्मिक विश्वास और आराधना की स्वतन्त्रता, आदि विशेष रूप से महत्वपूर्ण हैं। जॉन स्टुअर्ट मिल का तो कहना है कि व्यक्ति को अपने जीवन के साथ तरह-तरह के प्रयोग करने का अधिकार भी प्राप्त होना चाहिए, यदि उसके इन प्रयोगों का समाज के अन्य व्यक्तियों पर विपरीत प्रभाव न पड़े।

(4) सामाजिक स्वतन्त्रता – उदारवादी चिन्तन में सामाजिक स्वतन्त्रता का भी विशेष महत्व रहा है। सामाजिक स्वतन्त्रता का अर्थ यह है कि जन्म, सम्पत्ति, वर्ण, जाति अथवा लिंग के आधार पर व्यक्तियों में कोई भेदभाव नहीं किया जाना चाहिए। समाज के सभी व्यक्तियों को विकास के लिए समान और पर्याप्त अवसर प्रदान किये जाने चाहिए, क्योंकि इसके अभाव में स्वतन्त्रता का उपभोग सम्भव नहीं है। विशेष प्रकार के पद, पेशे, व्यवसाय, उच्च शिक्षा की सुविधाएं और निगम अथवा समुदाय की सदस्यता वंशानुगत गुणों पर आधारित नहीं होनी चाहिए वरन् इसके द्वारा सबके लिए खुले होने चाहिए।

(5) आर्थिक स्वतन्त्रता- परम्परागत उदारवाद के सन्दर्भ में आर्थिक स्वतन्त्रता का अर्थ यह है कि व्यक्तियों के आर्थिक जीवन और उनके द्वारा संचालित उद्योग तथा व्यापार में राज्य के द्वारा हस्तक्षेप नहीं किया जाना चाहिए। मध्य युग के सामन्ती राज्यों ने भूमि, वस्तुओं तथा सम्पत्ति के क्रय-विक्रय, भाड़े पर श्रमिक रखने तथा धन उधान लेने और देने पर अनेक प्रकार के प्रतिबन्ध लगा रहे थे। उदारवादियों ने उन्हें घटाने की मांग की और इस बात पर भी बल दिया कि आर्थिक क्षेत्र में राज्य द्वारा ‘अहस्तक्षेप की नीति” अपनायी जानी चाहिए। राज्य के द्वारा व्यापारिक और औद्योगिक क्षेत्रों में ‘मुक्त प्रतियोगिता’ के विचार को अपना लिया जाना चाहिए। वस्तुओं के मूल्य और उनके उत्पादन की मात्रा स्वयं निर्धारित करने के स्थान पर, मांग और पूर्ति के नियम के द्वारा निर्धारित होने के लिए छोड़ दी जानी चाहिए। व्यक्तियों को आर्थिक क्षेत्र में ‘संविदा की स्वतन्त्रता’ प्राप्त होनी चाहिए। और उन्हें अपनी आर्थिक उन्नति के लिए संघ और समुदाय बनाने की स्वतन्त्रता प्राप्त होनी चाहिए।

(6) पारिवारिक स्वतन्त्रता – इसका अर्थ यह है कि सभी व्यक्तियों को अपने परिवार के गठन और पारिवारिक जीवन बिताने की स्वतन्त्रता प्राप्त होनी चाहिएं। इसके साथ ही स्त्रियों को, विशेषकर विवाह तथा सम्पत्ति के क्षेत्र में पुरूषों के समान ही अधिकार प्राप्त होने चाहिए। बच्चों को भी, विशेष परिस्थितियों के अंतर्गत माता-पिता के दुर्व्यवहार के विरूद्ध सुरक्षा प्राप्त होनी चाहिए। और माता-पिता को उनके शारीरिक, मानसिक तथा नैतिक विकास के लिए उत्तरदायी ठहराया जाना चाहिए।

(7) जातीय और राष्ट्रीय स्वतन्त्रता – उदारवादी विचारक राष्ट्रों के आत्मनिर्णय के सिद्धान्त के प्रबल समर्थक थे और भौगोलिक तथा प्रशासकीय, दोनों क्षेत्रों में स्वशासन के सिद्धान्त का प्रतिपादन करते थे। वे जातीय समानता का भी समर्थन करते थे, किन्तु इस सम्बन्ध में एक विशेष और आपत्तिजनक बात यह देखने में आयी है कि कुछ उदारवादी विचारकों द्वारा किया गया जातीय तथा राष्ट्रीय स्वतन्त्रता का समर्थन यूरोपीय राष्ट्रों तथा गोरी जातियों तक ही सीमित रहा है।

(8) अन्तर्राष्ट्रीय स्वतन्त्रता – उदारवाद एक राज्य द्वारा दूसरे राज्य के विरुद्ध बल प्रयोग का विरोधी रहा है और उसका विचार है कि शान्ति तथा अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग के आधार पर कार्य किया जाना चाहिए।

(9) राजनीतिक स्वतन्त्रता – हाबहाउस के अनुसार, उदारवाद की यह सबसे बड़ी विशेषता और सर्वोच्च देन थी। राज्य के कार्यों में सक्रिय रूप से भाग लेने का नाम ही राजनीतिक स्वतन्त्रता है और इसके अन्तर्गत ये चार चीजें सम्मिलित हैं : नागरिकों को अपने प्रतिनिधि चुनने का अधिकार, निर्वाचित होने का अधिकार, सार्वजनिक पद ग्रहण करने का अधिकार और राजनीतिक मामलों में समुचित जानकारी प्राप्त करने तथा उन पर स्वतन्त्रतापूर्वक विवाद करने का अधिकार। इस प्रकार उदारवाद की राजनीतिक स्वतन्त्रता लोकतन्त्र की पर्यायवाची है।

परम्परागत उदारवाद के इन सिद्धान्तों को दृष्टि में रखते हुए इसे बहुत कुछ सीमा तक ‘व्यक्तिवाद का सहयोगी दर्शन’ कहा जा सकता हैं

आधुनिक जनतन्त्रात्मक उदारवाद

19 वीं सदी के मध्य तक उदारवाद परम्परागत रूप में प्रचलित रहा, लेकिन इसके बाद बदलती हुई परिस्थितियों के अनुसार उदारवाद के स्वरूप में परिवर्तन हो गया। 1860 तक अधिकांश उदारवादी लोकतन्त्र और आर्थिक क्षेत्र में हस्तक्षेप की नीति में विश्वास करते थे, लेकिन इस समय तक परिस्थतियां कुछ तो परिवर्तित हो गयी थीं और कुछ तेजी से परिवर्तित होती जा रही थीं। आर्थिक क्षेत्र में अहस्तक्षेप की नीति को अपनाने के परिणाम निर्धन श्रमिक वर्ग के लिए बहुत ही अधिक बुरे हुए थे और यह बहुत अधिक जरूरी हो गया था कि निर्धन व्यक्तियों के हितों की रक्षा के लिए राज्य द्वारा आर्थिक क्षेत्र में हस्तक्षेप किया जाए। इसके अतिरिक्त दूसरी बात यह थी कि. ब्रिटेन उदारवाद का घर रहा है और ब्रिटेन में मताधिकार क्रमशः व्यापक होते जाने के कारण किसी भी राजनीतिक दल (ब्रिटेन के उदार दल के लिए भी) के लिए यह जरूरी हो गया था कि राजनीतिक प्रभुत्व प्राप्त करने के लिए निम्न वर्गों पर ध्यान केंन्द्रित किया जाए। इनं नवीन उदारवादियों द्वारा यह कहा गया कि निर्धन, साधनहीन और अशिक्षित जनता अपने हितों की रक्षा नहीं कर सकती और धनीमानी वर्ग उनके शोषण का प्रयत्न करता है। अतः जनता के हित के सभी सम्भव कार्य सरकारी क्षेत्र में आ जाने चाहिए। इस दृष्टि से उदारवादियों ने राज्य द्वारा संचालित स्कूलों की व्यवस्था, मद्य-निषेध, बच्चों तथा स्त्रियों के श्रम के अधिकाधिक नियमन, श्रमिकों के लिए क्षतिपूर्ति की व्यवस्था, आदि का समर्थन प्रारम्भ किया। इसके बाद उनके द्वारा इस बात पर बल दिया गया कि राज्य द्वारा व्यापार, वृद्धावस्था के लिए पेंशन योजना तथा बेकारी और बीमारी बीमा योजना को अपनाया जाना चाहिए।

इस प्रकार 19 वीं सर्दी के मध्य तक तो उदारवाद इस पक्ष में था कि राज्य का कार्यक्षेत्र संकुचित होना चाहिए, लेकिन इसके बाद उदारवाद के द्वारा राज्य के कार्यक्षेत्र में क्रमिक वृद्धि का प्रतिपादन किया गया। उदारवादी विचारधारा का यह नवीन रूप थॉमस हिल ग्रीन के साथ प्रारम्भ हुआ और इंग्लैण्ड का उदारवादी दल आज उदारवाद के इस रूप में ही विश्वास करता हैं। उदारवाद का यह नवीन रूप पूंजीवाद की अपेक्षा समाजवाद के ही अधिक समीप है।

ग्रीन को आधुनिक जनतन्त्रात्मक उदारवादी विचारधारा का प्रतिनिधि विचारक कहा जा सकता है। उसके द्वारा राज्य के अहस्तक्षेप पर बल देने वाले परम्परागत उदारवाद और राज्य को दैवीय स्तर प्रदान करने वाले हीगलवादी आदर्शवाद दोनों को ही अस्वीकार करते हुए औद्योगिक क्रान्ति से उत्पन्न परिस्थितियों को दृष्टि में रखते हुए जनतन्त्रात्मक उदारवाद का प्रतिपादन किया गया है।

ग्रीन आदर्शवादी होने के साथ-साथ उदारवादी इस दृष्टि से है कि उसने राज्य को कभी भी एक साध्य नहीं माना है। ग्रीन के मतानुसार राज्य एक साध्य की प्राप्ति का साधन मात्र है— राज्य में रहने वाले व्यक्तियों का पूर्ण नैतिक विकास। ग्रीन बार-बार इस बात पर बल देता है कि संस्थाओं का अस्तित्व व्यक्तियों के लिए होता है, व्यक्तियों का अस्तित्व संस्थाओं के लिए नहीं। ग्रीन की स्वतन्त्रता की धारणा भी हीगल से भिन्न है और उसके अन्तर्गत व्यक्ति के अस्तित्व के विकास की सर्वोपरि महत्व प्रदान किया गया है। ग्रीन का विचार है कि व्यक्ति अपने अन्तःकरण की मांग पर राज्य की सत्ता का भी विरोध कर सकता है। ग्रीन का यह विचार उदारवादी धारणा के ही अनुरूप है।

इस प्रकार ग्रीन एक उदारवादी है, लेकिन वह वैसा परम्परागत उदारवादी विचारक नहीं है। जो राज्य को ‘एक आवश्यक बुराई’ मानते हुए सामाजिक और आर्थिक जीवन में उसके प्रत्येक हस्तक्षेप का विरोध करते हैं। ग्रीन राज्य को एक आवश्यक बुराई मानने के स्थान पर उसे एक नैतिक संगठन मानता है। परम्परागत उदारवादियों मिल आदि का विचार है कि राज्य का कार्य केवल रक्षा करना है, लेकिन ग्रीन के अनुसार राज्य का प्रमुख कर्तव्य व्यक्ति द्वारा उसके व्यक्तित्व का पूर्ण विकास करवाना है। राज्य यद्यपि व्यक्तियों को प्रत्यक्ष रूप से नैतिक नहीं बना सकता, लेकिन उसके द्वारा नैतिक विकास के मार्ग में आने वाली बाधाओं को दूर कर उनके नैतिक विकास में सहायता पहुंचाई जा सकती है। इस दृष्टि से राज्य के द्वारा अज्ञान शराबखोरी और भिखमंगापन, आदि बाधाओं को दूर किया जाना चाहिए और ऐसे कानूनों का निर्माण किया जाना चाहिए जो श्रमिक वर्ग के हितों की अधिकाधिक रक्षा करें और समस्त जनता को स्वास्थ्य तथा शिक्षा के क्षेत्र में अधिकाधिक सुविधाएं प्रदान करें। ग्रीन ने राज्य के द्वारा सद्जीवन के मार्ग की सभी बाधाओं को दूर करने की जो बात कही है उसके आधार पर यह कहा जा सकता है कि उसने बीसवीं सदी के जनकल्याणकारी राज्य की नींव डाली।

उसने उदारवाद और आदर्शवाद दोनों के दोषों को दूर करते हुए एक समन्वयकारी और सन्तुलित विचारधारा का प्रतिपादन किया। ग्रीन की उपलब्धि यह थी कि उसने उदारवाद को एक नया धार्मिक विश्वास प्रदान किया और उसे बदलती हुई परिस्थितियों में जनहित और जनतन्त्रात्मक व्यवस्था के अनुकूल बनाया। उदारवाद को यह नवीन रूप प्रदान कर ग्रीन ने सर्वाधिकारवाद के विरूद्ध उदारवाद की रक्षाकरने का ही कार्य किया है।

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shubham yadav

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