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रूसो का सामान्य इच्छा सिद्धांत- Rousseau’s General Will In HIndi
रूसो के राजनीतिक दर्शन में सबसे महत्वपूर्ण उसका सामान्य इच्छा का सिद्धांत है. सामान्य इच्छा का सिद्धांत राजनीतिक चिंतन के क्षेत्र में रूसो की अमर देन है. रूसो ने अपने इस धारणा में स्वतंत्रता और सत्ता, हित और कर्तव्य, वैयक्तिकता और सर्वव्यापकता में सामंजस्य प्रस्तुत किया है. कुछ विचारको के अनुसार यह लोकतंत्र की आधारशिला है, तथा कांट, हीगल, ग्रीन, बोसंके आदि दार्शनिकों का आइडियलिज्म भी इसी पर आधारित है, लेकिन लोकतंत्र समर्थकों ने जहां इसका स्वागत किया वहीं निरंकुश शासकों ने इसके आधार पर जनता से पर मनमाने अत्याचार भी किए हैं. इस कारण यह भी कहा जाता है कि शायद ही कोई सिद्धांत इतना विवादास्पद हो होगा जितना की सामान्य इच्छा का सिद्धांत. अपने सामाजिक समझौता सिद्धांत में रूसो कहता है कि समझौते के द्वारा समाज के लिए व्यक्ति अपने शक्ति का जो परित्याग करता है उससे उसकी व्यक्तिगत इच्छा का स्थान एक सामान्य इच्छा (General Will) ले लेती है. सामान्य इच्छा को व्याख्यायित करने के लिए रूसो ने यथार्थ और आदर्श इच्छाओं में अंतर किया है-
रूसो के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति की दो प्रमुख इच्छाएं होती है-
यथार्थ इच्छा (Actual Will)
आदर्श इच्छा (Real Will)
सामान्य रूप में यथार्थ इच्छा और आदर्श इच्छा का एक ही अर्थ लिया जाता है लेकिन रूसो के द्वारा इन दोनों का ही प्रयोग अलग- अलग और विशेष अर्थों में किया गया है. रूसो कहता है यथार्थ इच्छा मानव की इच्छा का वह भाग है जिसका लक्ष्य व्यक्तिगत स्वार्थों की पूर्ति करना होता है. इसमें सामाजिक हित की अपेक्षा व्यक्तिगत स्वार्थ की भावना प्रबल होती है. जब मनुष्य केवल अपने लिए सोचता है तब वह यथार्थ इच्छा के वशीभूत होता है. यह इच्छा भावना प्रधान इच्छा होती है इसके वशीभूत होकर मनुष्य विवेकहीनता से कार्य करता है. व्यक्ति की यह क्रांतिकारी क्रांतिकारी इच्छा होती है और इनमें व्यक्ति का दृष्टिकोण संकीर्ण और अंतर्द्वंद से युक्त होता है|
आदर्श इच्छा मानव की वह इच्छा है जिसका लक्ष्य संपूर्ण समाज का कल्याण हो. यह वह इच्छा है जो विवेक, ज्ञान एवं सामाजिक हित पर आधारित होती है. इस इच्छा के अनुसार मानव स्वयं के हित को सामाजिक हित का अभिन्न भाग मानता है तथा संपूर्ण समाज के हित को ध्यान में रखते हुए कार्य करता है. इस इच्छा में व्यक्तिगत स्वार्थ का सामाजिक हित के साथ सामंजस्य तथा व्यक्तिगत स्वार्थ पर सामाजिक हित की प्रधानता होती है. रूसो के अनुसार यही एकमात्र श्रेष्ठ इच्छा है तथा स्वतंत्रता की द्योतक है. यह व्यक्ति की उत्कृष्ट इच्छा होती है जो स्वार्थहीन और कल्याणकारी होती है. और यह इच्छा व्यक्ति में स्थाई रूप निवास करती है.
सामान्य इच्छा समाज के व्यक्तियों की आदर्श इच्छाओं का योग होती है, यह मानव की इच्छाओं का वह श्रेष्ठ भाग है जो संपूर्ण समाज के लिए आवश्यक रूप में हितकर हो. सामान्य इच्छा निष्काम होती है इसका उद्देश्य हमेशा ही सामान्य हित होता है. इसका संबंध सार्वजनिक बातों से होता है व्यक्तिगत बातों से नहीं. और सामान्य हित की बातों में यह हमेशा जनसेवा और लोकहित के भाव से प्रेरित होती है, यदि समाज के सदस्य सामान्य हित की समस्याओं पर व्यक्तिगत अथवा किसी वर्ग विशेष के दृष्टिकोण से विचार करते हैं तो उसका परिणाम सामान्य इच्छा नहीं हो सकता है।
रूसो का कहना है कि सामान्य इच्छा समस्त नागरिकों की सर्वश्रेष्ठ इच्छाओं का योग है अतः वह सर्वसाधारण की पूर्ण प्रभुत्वसंपन्न इच्छा है और इस इच्छा का पालन अवश्य ही करना चाहिए. यदि मैं किसी स्वार्थवश उस इच्छा को पूरा नहीं करता तो समस्त समाज की सामान्य इच्छा मुझे मजबूर कर सकती है कि मैं उसके अनुसार आचरण करूं, यदि कोई व्यक्ति सामान्य इच्छा की अवहेलना करेगा तो समस्त समाज उसके ऊपर दबाव डालेगा.
सामान्य इच्छा की पूर्णता के संबंध में रूसो का मानना है कि जिस अनुपात में लोग सार्वजनिक हित को सामने रख सकेंगे और जिस अनुपात में भी अपनी व्यक्तिगत हितों को सकेंगे उसी अनुपात भुला में सामान्य इच्छा पूर्ण होगी.
सामान्य इच्छा का निर्माण किस प्रकार से होता है इसके बारे में वह कहता है कि सामान्य इच्छा के निर्माण की प्रक्रिया सर्वसाधारण की इच्छा से प्रारंभ होती है. व्यक्ति समस्याओं को सबसे पहले अपने स्वयं के दृष्टिकोण से देखते हैं, जिसमें उनकी यथार्थ एवं आदर्श दोनों इच्छाएं शामिल होती हैं. लेकिन यदि ऐसा समाज सभ्य और सुसंस्कृत हो उसमें नागरिकता की भावना हो तो विचारों के आदान- प्रदान की इस प्रक्रिया में व्यक्तियों की स्वार्थमयी, अशुद्ध तथा अनैतिक भाग समाप्त हो जाता हैं और इस प्रक्रिया के परिणाम स्वरूप सामान्य इच्छा का उदय होता है. सामान्य इच्छा की सर्वोच्च अभिव्यक्ति मनुष्य में ही निहित है और सामान्य इच्छा के निर्णय शुभ और आदर्श होते हैं जिनका पालन सभी व्यक्ति करते हैं.
सामान्य इच्छा की विशेषताएं-
सामान्य इच्छा को स्पष्ट रूप से समझने के लिए उसके विशेषताओं और लक्ष्यों के बारे में जानकारी होना बहुत ही आवश्यक है-
1.सामान्य इच्छा का प्रमुख लक्षण उसकी एकता और अखंडता है. जैसा कि स्पष्ट है सामान्य इच्छा की विशेषता है विभिन्नता में एकता स्थापित की जाए इसलिए बिवेकयुक्त और बुद्धिजन्य होने के कारण इसमें किसी भी प्रकार का विरोध नहीं होता है.
2. सामान्य इच्छा स्थाई और शाश्वत होती है, यह किसी भी प्रकार के भावनात्मक आवेश, आवेगों का परिणाम नहीं होती बल्कि मानव के जनकल्याण की अस्थाई प्रवक्ति और विवेक का परिणाम होती है, इस कारण यह लोगों के चरित्र का अंश बन जाती इसका कभी अंत नहीं होता है और यह कभी भ्रष्ट नहीं होती है, यह अनित्य परिवर्तनशील और पवित्र होती है.
3. सामान्य इच्छा की एक विशेषता यह है कि सामान्य इच्छा संप्रभुताधारी है. संप्रभु� है तथा संप्रभुता के समान ही सामान्य इच्छा निरपेक्ष है. प्रभुसत्ता सामान्य इच्छा में निहित है और वह इसका प्रमाण है जिस प्रकार किसी व्यक्ति के शरीर से उसके प्राण को अलग नहीं किया सकता है वैसे ही प्रभुसत्ता को सामान्य इच्छा अलग कर पाना संभव नहीं है.
4. संप्रभुता भावनाओं और आवेग ऊपर नहीं बल्कि तर्क और विवेक पर आधारित औचित्यपूर्ण इच्छा होती है. यह सदैव शुभ, उचित और कल्याणकारी होती है और हमेशा जनहित के उद्देश्य को लेकर चलती है. यह सब की श्रेष्ठ आदर्श इच्छाओं का योग होती है तथा सामान्य इच्छा कभी गलत नहीं हो सकती है. रूसो के शब्दों में सामान्य इच्छा हमेशा विवेकपूर्ण एवं न्याय संगत होती है क्योंकि जनता की वाणी वास्तव में ईश्वर की वाणी है.
5. सामान्य इच्छा स्थाई होती है और इसका उद्देश्य सदैव सामान्य हित होता है साथ ही यह सामान्य हित की बातों में लोक कल्याण के उद्देश्य से प्रेरित होती है इसका उद्देश्य सदैव ही संपूर्ण समाज का कल्याण करना होता है,
सामान्य इच्छा सिद्धांत की आलोचना-
रूसो द्वारा प्रतिपादित सामान्य इच्छा का सिद्धांत राजनीतिक चिंतन के सर्वाधिक महत्वपूर्ण और विवादास्पद विषयों में से एक है और इसे राजदर्शन को रूसो की एक अमूल्य देन मानी जाती है फिर भी कुछ विचारकों की दृष्टि में सामान्य इच्छा का सिद्धांत यदि भयंकर नहीं है तो सारहीन अवश्य है, वहीं कुछ विचारको के लिए यह सिद्धांत लोकतंत्र और राजनीतिक दर्शन का बुनियादी आधार है. इसकी आलोचना मुख्यतः इन आधारों पर की जाती है –
1. रूसो की सामान्य इच्छा का सिद्धांत अत्यंत ही अस्पष्ट और अव्यावहारिक तथा जटिल है. सामान्य इच्छा के संबंध में स्वयं रूसो भी पूर्ण निश्चित नहीं है और वह अपने ग्रंथ सोशल कांट्रैक्ट में इस संबंध में कई विरोधी बातें कहता है. सामान्य इच्छा का निवास कहां है, इसके बारे में भी निश्चितता नहीं है और ना ही रूसो ने सामान्य इच्छा का भौतिक रूप प्राप्त करने के लिए कोई साधन ही बताया है.
2. रूसो का सामान्य इच्छा का विचार यथार्थ और आदर्श इच्छा के अंतर पर आधारित है जबकि आदर्श इच्छा तथा आदर्श इच्छा का अंतर व्यवहार में संभव नहीं है. मानव में सदैव व्यक्तिगत स्वार्थ और लोकहित की जो प्रवृत्ति पाई जाती है उसे एक दूसरे से पूरी तरह अलग करना संभव नहीं है और यदि इन दोनों इच्छाओं में ऐसा कोई विभाजन कर भी लिया जाए तो यह निर्णय करना असंभव है कि कौन सी इच्छा यथार्थ है और कौन सी आदर्श.
3. सामान्य इच्छा का विचार सामान्य हित या सार्वजनिक हित पर आधारित है लेकिन सामान्य हित की परिभाषा देना बहुत कठिन है. सार्वजनिक हित की व्याख्या हर कोई अपने अपने ढंग से कर सकता है और किसी भी कार्य के पूर्ण होने के पहले यह कैसे कहा जा सकता है कि कोई कार्य उचित है या अनुचित.
4. सामान्य इच्छा का सिद्धांत बहुत ही भयावह है. एक प्रकार से देखा जाए तो सामान्य इच्छा का प्रतिपादन का उद्देश्य जनता के अधिकारों की रक्षा है लेकिन यह धारणा कभी निरंकुश और अत्याचारी राज्य की पोषक भी बन सकती है रूसो के सिद्धांत में व्यक्ति अपने समस्त अधिकार सामान्य इच्छा को समर्पित कर देता है, जो सर्वोच्च शक्ति के रूप में व्यक्ति पर शासन करती है और किसी भी परिस्थिति में जनता को समाज के विरोध का अधिकार भी नहीं है तो ऐसी स्थिति में शासक वर्ग अपने स्वार्थ को ही सामान्य इच्छा का रूप दे सकता है और कहीं न कहीं सामान्य इच्छा की धारणा निरंकुशता बाद तथा अधिनायकवाद के पोषण का यंत्र बन जाता है.
5. रूसो का मानना है कि सामान्य इच्छा की सिद्धि के लिए सभी व्यक्तियों द्वारा प्रत्यक्ष रूप से सक्रिय रूप से भाग लि 10/12 चाहिए, लेकिन यह छोटे राज्यों में भले ही सफल हो आधुनिक विशाल और विविध हितों से परिपूर्ण जनसंख्या वाले राज्यों में सफल नहीं हो सकता और वर्तमान समय के प्रतिनिधि आत्मक प्रजातंत्र में कतई संभव नहीं हो सकता है, रूसो द्वारा प्रतिनिधित्व के सिद्धांत की अवहेलना एक प्रकार से लोकतंत्र की ही अवहेलना है.
6. इसके अलावा रूसो की सामान्य इच्छा की गंभीर सिद्धांत की गरीब आलोचना यह रूसो की सामान्य इच्छा ना तो सामान्य और ना ही बल्कि एक निराधार और अमूर्त चिंतन मात्र है.
महत्व-
परंतु आलोचनाओं के बावजूद इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि रूसो का सामान्य इच्छा का सिद्धांत राजनीतिक विचारधारा के लिए उसकी महत्वपूर्ण देन है. रूसो की सामान्य इच्छा ने आदर्शवादी विचारधारा की नीव डाली जिसे आधार मानकर ग्रीन ने राज्य का मुख्य आधार बल को न मानकर इच्छा को माना. इसके अलावा सामान्य इच्छा का विचार प्रजातंत्र या लोकतंत्र को बल देने वाला है, क्योंकि उसका यह मानना है सत्ता का आधार जन स्वीकृति है और संप्रभुता का अंतिम स्रोत जनता है तथा विधि निर्माण में शासन को जनता के प्रति उत्तरदाई होना चाहिए. अपने सिद्धांत के द्वारा रूसो ने व्यक्तिगत स्वार्थ की अपेक्षा सामान्य हित को प्रतिष्ठित किया है और यह बताया सामान्य हित जनता के आदर्श इच्छाओं का योग और प्रमुख उद्देश्य
होता है. रूसो की सामान्य इच्छा राजनीतिक कार्यों में पथ प्रदर्शन का कार्य करती है और उसके अनुसार सामान्य इच्छा का प्रमुख कार्य विधि निर्माण और शासन तंत्र की नियुक्ति और उसे भंग करना है. रूसो ने एक ऐसे राज्य की स्थापना की बात की जिसमें नागरिक नैतिक स्वतंत्रता प्राप्त कर सके और उसका मानना है कि स्वतंत्रता और नैतिकता सामान्य इच्छा के द्वारा प्राप्त हो सकते हैं. सामान्य इच्छा के सिद्धांत ने इस विचार का पोषण किया कि राज्य एक नैतिक संगठन है जो मानव की अनुचित एवं स्वार्थी प्रवृत्तियों को दूर करके सामूहिक कल्याण पर बल देता है. यह सिद्धांत समाज एवं व्यक्ति में शरीर तथा उसके अंगों का संबंध स्थापित करके मानव के सामाजिक स्वरूप को सुदृढ़ करता है और अंत में ओसवार्न का कथन कि रूसो द्वारा प्रतिपादित सामान्य इच्छा का सिद्धांत राजनीतिक दर्शन के लिए उसका सबसे मौलिक ही नहीं बल्कि सबसे महत्वपूर्ण योगदान है.
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