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लिखित प्रविधि | मौखिक प्रविधि | प्रयोगात्मक प्रविधि

लिखित प्रविधि
लिखित प्रविधि

लिखित प्रविधि (Written Techniques)

वर्तमान समय में सामाजिक विज्ञान अध्ययन में लिखित परीक्षणों का प्रयोग प्राथमिक, माध्यमिक और उच्च तीनों स्तरों पर सफलतापूर्वक हो रहा है। लिखित परीक्षण द्वारा छात्रों की ज्ञान उपलब्धि, किसी समस्या की आलोचनात्मक व्याख्या, विषय-वस्तु को संगठित करने की योग्यता तथा भाव-प्रकाशन की क्षमता की जाँच करते हैं।

मौखिक प्रविधि (Oral Techniques)

अधिगम के क्षेत्र में मौखिक परीक्षण का स्थान महत्त्वपूर्ण है। इस परीक्षण में मौखिक प्रश्नों के माध्यम से छात्रों के ज्ञान, पढ़ने की योग्यता एवं शुद्धता, मौखिक, आत्म-प्रकाशन की क्षमता आदि की जाँच करते हैं। यह प्रयोग प्रारम्भिक स्तर पर अधिक माध्यमिक स्तर पर काम और उच्च स्तर पर नाममात्र का ही रह जाता है।

मौखिक प्रविधि के गुण (Merits of Oral Test)

(1) छात्रों के आत्मविश्वास में वृद्धि होती है।

(2) मौखिक आत्म-प्रकाशन की क्षमता प्रदान करने में सक्षम है।

(3) दूसरे के विचारों को सुनकर समझकर ज्ञानार्जन करते हैं।

(4) सामाजिक विज्ञान अध्ययन में ये परीक्षण शुद्धता एवं तत्परता हेतु उपयोगी हैं।

मौखिक प्रविधि के दोष (Demerits of Oral Test)

(1) ये परीक्षण रटने पर बल देते हैं।

(2) इन परीक्षणों में मितव्ययता नहीं होती है।

राइटस्टोन के अनुसार, “मौखिक परीक्षण कितने ही अच्छे क्यों न हों, पर छात्रों को अवसर प्रदान कराने में ये एक निम्न आधार है। इनका निदानात्मक साधन के रूप में महत्त्व है, उन परिस्थितियों में, जिनमें लिखित परीक्षणों का उपयोग नहीं किया जा सकता है।”

प्रयोगात्मक प्रविधि की परिभाषाएँ (Definitions of Practical Techniques)

प्रयोगात्मक प्रविधि की प्रमुख परिभाषाएँ निम्न हैं-

बीवराज के शब्दों में, “प्रयोग में बहुधा किसी घटना को ज्ञात दशाओं में कराया जाता है तथा बाह्य प्रभावों को यथा सम्भव दूर करते हुए निरीक्षण किया जाता है जिससे प्रंपच के सम्बन्ध को भली प्रकार प्रदर्शित किया जा सकें।”

चैपलिन के शब्दों में, “नियन्त्रित दशाओं में किये गये निरीक्षण ही प्रयोग है।” जहोदा के अनुसार, “प्रयोग परिकल्पना के परीक्षण की एक विधि है।”

विल्सन के अनुसार, “प्रयोग से प्राप्त जानकारी के आधार पर तैयार किया गया प्रश्न है जिसका उत्तर प्रकृति से प्राप्त किया जाता है जिससे और अधिक ज्ञान वृद्धि हो सके, इसलिए प्रयोग द्वारा घटना का केवल निरीक्षण ही नहीं होता वरन् उद्देश्यपूर्ण निरीक्षण होता है।”

ग्रीनबुड के अनुसार, “प्रयोग कार्य कारण सम्बन्ध को प्रगट करने वाली परिकल्पनाओं के परीक्षण की विधि है जिसमें नियंत्रित परिस्थितियों में कार्य कारण सम्बन्ध का सम्पादन करते है।”

प्रयोगात्मक प्रविधि की आधारभूत अवधारणाएँ (Concepts of Practical Techniques)

एक चर नियम- प्रयोगात्मक अनुसंधान की आधारभूत अवधारणा एक चर नियम है जिसे इन शब्दों में स्पष्ट किया जा सकता है।

जे. एस. मिल.- “एक चर नियम पर आधारित है यदि दो स्थितियाँ पूर्ण समान तथा एक परिस्थिति में एक तत्त्व को जोड़ दिया जाये या घटा दिया जाये परन्तु दूसरी स्थिति यथावत रहें, यदि ऐसी स्थिति में कोई अन्तर विकसित होता है, तो वह जोड़े गये या कम किये गये तत्त्व का प्रभाव होता है।” प्रस्तुत शोध में भी इस नियम का ही अनुसरण किया जायेगा।

कारण-प्रभाव का प्रत्यय- प्रस्तुत शोध में शोधकर्ता के द्वारा इसी प्रत्यय का प्रयोग किया जायेगा। जिसमें शोधकर्ता के द्वारा विषय विशेष के शिक्षण पर नवीन शिक्षण विधियों की प्रभावशीलता का अध्ययन किया जायेगा। इन उद्देश्य पूर्ति हेतु दो समान समूह का चुनाव किया जायेगा जिनमें से एक समूह नियंत्रित समूह को नवीन शिक्षण विधि द्वारा पढ़ाया जायेगा जबकि दूसरे समूह स्वतन्त्र समूह को परम्परागत व्याख्यान/पाठ्य पुस्तक विधि से पढ़ाया जायेगा दोनों समूहों पर प्रशासित किया जायेगा। जिस समूह को नवीन शिक्षण विधि से पढ़ाया गया उस समूह की उपलब्धि निश्चित रूप से परम्परागत विधि से अध्ययन करने वाले समूह स्वतन्त्र से अधिक होगी और उच्च उपलब्धि का कारण नवीन शिक्षण विधि ही है।

प्रयोगात्मक प्रविधि की विशेषताएँ (Characteristics of Practical Techniques)

इसकी प्रमुख विशेषताएँ निम्न हैं-

(1) यह विधि पक्षपात से रहित है इसमें वास्तविक प्रभाव का सही मूल्यांकन किया जाता है।

(2) अनुमान के वास्तविक रूप को संख्या में प्रस्तुत किया जा सकता है।

(3) विभिन्न उद्देश्यों हेतु स्पष्ट व विशेष परिकल्पनाओं को प्रतिपादित किया जाता है और उसकी पुष्टी की जाती है।

(4) प्रदत्तों के संकलन के सन्दर्भ में यह विधि वस्तुनिष्ठता व शुद्धता पर बल देते हैं।

(5) यह विधि सम्बन्धित चरों पर पूर्ण नियन्त्रण स्थापित करने पर बल देती है।

(6) सम्बन्धित चरों में अन्तः प्रक्रिया प्रभाव से यथार्थ व शुद्ध ज्ञान के लिए अधिक सम्भावनाएँ रहती हैं।

(7) इस विधि में प्रमाणिक परीक्षणों का प्रयोग होने से प्रदत्त अधिक वस्तुनिष्ठ होते हैं।

(8) परिकल्पनाओं का निर्माण तथा परख, विभिन्न प्रयोगों के आधार पर किया जाता है जिसमें स्पष्ट परिणाम मिलता है।

(9) शिक्षा के नियम, सिद्धान्त व आधारभूत तत्त्व तथा स्वयं सिद्धियाँ प्रयोगात्मक विधि द्वारा विकसित होते है।

प्रयोगात्मक प्रविधि का शिक्षा में उपयोग (Advantage of Practical Techniques)

प्रयोगात्मक प्रविधि का शिक्षा में उपयोग निम्नलिखित हैं-

(1) कक्षा में एक विषय मे विभिन्न प्रकार की अनुदेशन सामग्री की प्रभावशीलता ज्ञात की जाती है।

(2) इस विधि का प्रयोग शिक्षण विधि तथा विभिन्न प्रकार की निर्देशन सामग्री में होता है।

(3) कक्षागत परिस्थितियों में प्रयोग किये जाने पर विभिन्न प्रकार की अनुदेशन सामग्री की प्रभावशीलता का अध्ययन किया जाता है।

(4) विद्यालय वातावरण को स्वच्छ बनाये रखने में प्रधानाचार्य इस विधि का प्रयोग कर सकता है।

(5) इस विधि की सहायता से विभिन्न प्रकार की पाठ्य-वस्तु की छात्रों पर परख की जा सकती है एवं प्रभावशाली पाठ्य-वस्तु लिखी भी जा सकती है।

(6) प्रशासनिक समस्याओं को भी इस विधि के द्वारा हल किया जा सकता है।

प्रयोगात्मक प्रविधि के सोपान (Steps of Practical Techniques)

प्रयोगात्मक प्रविधि का प्रयोग निम्नांकित सोपानों के माध्यम से किया जा सकता है-

(1) समस्या को चुनना व उसे परिभाषित करना- समस्या को प्रयोगात्मक रूप में प्रयुक्त करने के लिए उसे परिकल्पनाओं में परिवर्तित करना होता है। जिससे उसके वैज्ञानिक परीक्षण द्वारा निष्कर्ष निकाले जा सकें।

(2) समस्या से सम्बन्धित साहित्य का अध्ययन- समस्या के क्षेत्र, स्वरूप व आकार आदि को समझने के लिए सम्बन्धित साहित्य का अध्ययन आवश्यक होता है।

(3) प्रयोग का प्रारूप तैयार करना- इस विधि में प्रयोग का प्रारूप तैयार करना इसलिए आवश्यक है ताकि उस प्रयोग के बारे में कोई प्रश्न न उठे जिससे निष्कर्ष प्रभावित हो।

(4) प्रयोग की परिभाषा – इस विधि में प्रयोग को परिभाषित करना इसलिए आवश्यक है, ताकि उस प्रयोग के बारे में कोई प्रश्न न उठे जिससे निष्कर्ष प्रभावित हो ।

(5) प्रयोग को आगे बढ़ाना- योजना की स्थिरता पर बल दिया जाना आवश्यक है क्योंकि ये नियन्त्रता, अनियमीकरण व पुनराकृति से सम्बन्धित है प्रयोग के समय उन चरों को जो किये जाने हैं, नवीन परिवर्तन हेतु काफी समय दिया जाना चाहिए ताकि बाह्य तत्त्वों प्रयुक्त का प्रभाव समाप्त हो जाये।

(6) उपलब्धि का मापन- मानदण्ड का चुनाव करते समय विशेष सावधानी की जरूरत होती है क्योंकि इसी के आधार पर प्रयोग परिणामों का मापन किया जाता है।

(7) उपलब्धि का विश्लेषण तथा अर्थापन- आँकड़ों के विश्लेषण के समय उसे बाह्य चरों पर अपना नियन्त्रण स्थापित करना होगा तभी वह अपने उद्देश्य में सफल हो सकता है क्योंकि उसके द्वारा प्राप्त परिणाम संयोगवश हो सकता है । उसे वह विज्ञान की तरह दृढ़ता पूर्वक सिद्ध नहीं कर सकता है शैक्षिक अनुसंन्धानों में ही इस विधि में सांख्यिकी विश्लेषण किया जाता है। अन्य क्षेत्रों में नहीं।

(8) निष्कर्ष निकालना- इस विधि से प्राप्त निष्कर्षों का सामान्यीकरण और उसके आधार पर भविष्य कथन किया जाता है जिसकी सार्थकता उसी सीमा तक है जहाँ इसका आधार वैज्ञानिक है।

प्रयोग सम्पादन में सावधानियाँ (Precautions in Practicals)

प्रयोग के सम्पादन में निम्नलिखित सावधानियाँ आवश्यक हैं-

(1) प्रयोग का उद्देश्य स्पष्ट रूप से परिभाषित किया जाना चाहिए।

(2) प्रयोग में नियन्त्रण कसौटी, चर को स्पष्ट रूप से परिभाषित कर लेना चाहिए।

(3) शोधकर्ता को अपनी सूझ-बूझ तथा अनुभव में हस्तक्षेपी चरों को पहचान लेना चाहिए और उनसे सावधान भी रहना चाहिए।

(4) उपयुक्त न्यादर्श विधि से सावधानी पूर्वक न्यादर्श का चयन करना चाहिए।

(5) प्रयोग के समय दी जाने वाले निर्देश लिखित रूप में स्पष्ट होने चाहिए जिससे भाषा का अन्तर ना आ पायें।

(6) छात्रों को प्रयोग में भाग लेने के लिए प्रेरित करना चाहिए जिससे वे सह-प्रदत्त देने में समर्थ हो सकें।

(7) जितनी परिस्थितियों व क्षेत्र को नियन्त्रित आसानी से किया जा सके उतना ही न्यादर्श का चयन करें।

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shubham yadav

इस वेब साईट में हम College Subjective Notes सामग्री को रोचक रूप में प्रकट करने की कोशिश कर रहे हैं | हमारा लक्ष्य उन छात्रों को प्रतियोगी परीक्षाओं की सभी किताबें उपलब्ध कराना है जो पैसे ना होने की वजह से इन पुस्तकों को खरीद नहीं पाते हैं और इस वजह से वे परीक्षा में असफल हो जाते हैं और अपने सपनों को पूरे नही कर पाते है, हम चाहते है कि वे सभी छात्र हमारे माध्यम से अपने सपनों को पूरा कर सकें। धन्यवाद..

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