अनुक्रम (Contents)
लिखित भाषा का कक्षा-कक्ष में प्रयोग (Use of Written Language in Class Room)
कक्षा-कक्ष में लिखित भाषा का भी प्रयोग किया जाता है। लिखित भाषा को हम तब व्यवहार में लाते हैं जब हमें अपना संदेश किसी ऐसे व्यक्ति को पहुँचाना हो जो हमसे दूर हो। परम्परागत तथा वर्तमान विचारों को आगे आने वाली पीढ़ी के लिए सुरक्षित रखने के लिए भी लिखित भाषा का प्रयोग किया जाता है। अपने लिखित रूप में भाषा सदैव स्थायी रहती है क्योंकि इसका प्रयोग आने वाली पीढ़ियों के लिए भी किया जा सकता है। हमारा परम्परागत साहित्य लिखित रूप में ही हमें प्राप्त हुआ। वर्तमान साहित्य भी हम लिखित रूप में ही छोड़ जायेंगे। ज्ञान को संचित रखने के लिए लिखित भाषा का प्रयोग किया जाता है। विषय क्षेत्र चाहे कोई भी हो अधिकतम अधिगम निर्धारण हेतु लिखित भाषा का प्रयोग कक्षा-कक्ष में किया जाता है। छात्रों से प्रश्नों के उत्तर लिखवाना, छात्रों को नोट्स लिखवाना तथा उन्हें महत्वपूर्ण असाइनमेण्ट देना आदि लिखित भाषा के माध्यम से ही किया जाता है।
‘लिखना’ से आशय- व्यक्ति दो प्रकार से अपने विचारों की अभिव्यक्ति करता है- (i) मौखिक रूप से (ii) लिखित रूप से।
जब दूसरा व्यक्ति अपने निकट होता है तो हम अपने विचार बोलकर प्रकट करते हैं, परंतु जब कोई व्यक्ति दूर होता है तो हम लिखकर अपने विचारों की अभिव्यक्ति करते हैं। मौखिक रूप से अपने विचार प्रदान करना हर जगह संभव नहीं है। जब विचार प्रकट करने वाला, जब चाहे अपने विचार प्रकट कर सके और जिस व्यक्ति के लिए अपने विचार प्रकट किये हैं, जब वह उसकी इच्छा हो और जहाँ चाहे उन विचारों को ज्ञात कर सके ऐसी स्थिति में व्यक्ति जिस विधि का आश्रय लेता है उसे लिखना कहते हैं। अक्षरों या वर्णों को सुडौल और सुंदर बनाना ही लिखना कहलाता है।
लिखित भाषा का महत्त्व
भाषा पर अधिकार प्राप्ति हेतु जिस प्रकार किसी भाषा का सुनना, बोलना और पढ़ना महत्त्व रखता है, उसी प्रकार लिखने का भी महत्त्व होता है। अतः इसकी हम उपेक्षा नहीं कर सकते हैं।
प्राचीन काल से ही लिखित भाषा का विशेष महत्त्व रहा है। अक्षर सुडौल हों, सुंदर हों, इस पर विशेष बल दिया जाता है। न केवल प्राचीन काल में अपितु मध्य काल में भी सुंदर लेख का विशेष महत्व था। लिखित भाषा के माध्यम से अपने विचारों की अभिव्यक्ति ही नहीं की जा सकती है बल्कि दूसरों पर भी प्रभाव डाला जाता रहा है। फारसी भाषा में सुंदर और सुडौल अक्षरों को ‘नस्तालीक’ कहा जाता था। किसी समय ‘नस्तालीक’ बोलबाला था। शिकस्ता (घसीटा) लिखावट तो फारसी लिपि में बहुत बाद में आई। अंग्रेजों के भारत आगमन के बाद जब से मुद्रण और टंकन यंत्रों का अधिक प्रयोग होने लगा, तब से लेखन कला का ह्रास ही हुआ है। इसका स्पष्ट परिणाम हम आज के छात्रों के गंदे लेख में पाते हैं। छात्रों का बुरा लेख होने का एक कारण और भी है। अंग्रेजी और फारसी के समान ही हम नागरी लिपि में भी शिकस्ता (घसीट) लिखावट लाना चाहते हैं। यदि हम चाहते हैं कि छात्रों का लेख सुंदर बने, तो हमें इस दूषित प्रवृत्ति को दूर करना होगा।
कक्षा-कक्ष में बालकों को लिखित भाषा का प्रयोग सिखाने के तरीके (To teach methods to children use of written language in class room)
भाषा में लेखन का कार्य अधिक कठिन होता है, क्योंकि लिखते समय हाथ की मांसपेशियों के संतुलन की आवश्यकता पड़ती है। जिस बालक ने केवल पढ़ना ही सीखा है, उसमें अभी इस संतुलन का अभाव होता है। ठीक-ठीक लिखने के लिए यह जरूरी है कि बालक अक्षरों की आकृति का भली प्रकार से निरीक्षण करे और फिर वैसे ही अक्षर लिख सकने में समर्थ हो। बालकों की पाठशालाओं में जो भिन्न-भिन्न प्रकार की क्रियाएँ होती हैं, उनका एक प्रयोजन यह भी होता है कि बालकों के भिन्न-भिन्न अंगों की मांसपेशियों में संतुलन स्थापित किया जाए। मांसपेशियों में संतुलन स्थापित होने के पश्चात् ही बालकों को लिखने के लिए प्रेरित किया जा सकता है। इसके अनुसार प्रत्येक बालक अपने विचार के आधार पर ही लिखना प्रारंभ करेगा, न कि आयु के आधार पर। ऐसा देखा गया है. कि यदि किसी शिशु के हाथ में चॉक या पेंसिल पड़ जाए तो वह दीवार पर या फर्श पर आड़ी-तिरछी रेखाएँ खींचने का प्रयास करता है। छोटे बालक की इस प्रवृत्ति का लाभ, लिखना सिखाने में भी किया जा सकता है।
सर्वप्रथम बालकों से सीधी रेखाएँ ही खिंचवाई जाएँगी; जैसे-
लेखन के लिए फिर बालकों को तिरछी रेखाओं का अभ्यास कराया जा सकता है; जैसे-
अन्त में वृत्त तथा अर्द्ध वृत्त आदि बनवाए जा सकते हैं; जैसे-
2 2 2 2 2 2
इस प्रकार प्रारम्भ में आड़ी-तिरछी रेखाओं का बालक से अभ्यास कराया जाए। और धीरे-धीरे अक्षरों को बनाना सिखाया जाए। अक्षर ज्ञान कराते समय कुछ उपकरणों का भी प्रयोग करना चाहिए; जैसे-
(i) रेगमाल कागज पर कटे अक्षर।
(ii) गत्ते पर कटे अक्षर।
(iii) अक्षरों के आकार-प्रकार के कटे हुए लकड़ी के टुकड़े।
(iv) किसी धातु पर खुदे हुए अक्षर।
(v) धरती पर खुदे हुए अक्षर।
(vi) पोती हुई पट्टियाँ।
(vii) छोटे-छोटे श्यामपट्ट।
(viii) वर्गों में विभाजित स्लेटें।
लिखना सिखाने की विधियाँ (Methods of teach writing)
कक्षा-कक्ष में प्रारम्भिक अवस्था में लिखना सिखाने के लिए निम्नलिखित विधियों का प्रयोग किया जा सकता है-
1. जैकटाट विधि- इस विधि का अनुमोदन सर्वप्रथम जैकटाट नामक शिक्षाशास्त्री ने किया था। इसमें बालक स्वयं संशोधन करता है। बालकों ने जो पाठ पढ़ा होता है, उसका कोई वाक्य अध्यापक लिखकर देता है। बालक अनुकरण करके एक-एक शब्द को लिखता है और मूल से मिलाकर देखता रहता है। यदि कोई अशुद्धि हो, तो उसे ठीक कर लेता है। इस प्रकार शब्दों का मिलान करता हुआ वह पूरा वाक्य लिखने का अभ्यास करता है।
2. पैस्टालॉजी विधि – इस विधि में वर्णों की आकृति को खण्ड-खण्ड करके, उनका अभ्यास कराया जाता है, यथा-
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शिक्षक प्लेट पर या श्यामपट्ट पर अथवा बालक की अभ्यास-पुस्तिका पर एस खण्ड बना देता है और बालक उन्हें देख-देखकर लिखता है। कई सुलेख की पुस्तिकाओं में ऐसे खण्ड बने होते हैं।
3. माण्टेसरी विधि- इस विधि में आँख, कान आदि ज्ञानेन्द्रियों और हाथ तीनों की सहायता ली जाती है। बालक पहले अक्षरों को देखता है, उनकी ध्वनियों को कानों से सुनता है और रेगमाल आदि के अक्षरों पर अँगुली फेरता है। इस प्रकार वह अक्षरों के स्वरूप से परिचित होकर उनको लिखना सीख जाता है।
4. अनुकरण विधि- इस विधि के दो प्रकार हैं-
(i) रूप रेखा अनुकरण- कुछ मुद्रित पुस्तिकाएँ ऐसी होती हैं, जिनमें अक्षर या वाक्य बिन्दु रूप में लिखे होते हैं। छात्र उन बिन्दुओं पर पेन्सिल या बॉलपेन फेरता है और अभ्यास। करके अक्षरों या शब्दों को लिखना सीख जाता है।
(ii) स्वतंत्र अनुकरण- शिक्षक श्यामपट्ट पर, स्लेट पर या अभ्यास-पुस्तिका पर अक्षर लिख देता है और बालक से कहता है कि वह नीचे स्वयं, उसी प्रकार के अक्षर लिखें।
5. मनोवैज्ञानिक विधि- बालकों को लिखना सिखाने में मनोवैज्ञानिक विधि का भी प्रयोग किया जाता है। प्राय: कक्षा-कक्षों में बालकों से पहले वर्णमाला के अक्षर लिखवाये जाते हैं, फिर शब्द और उसके बाद वाक्य । मनोवैज्ञानिकों के मतानुसार यह प्रणाली दोषपूर्ण है और इससे बालक को कठिनाई होती है। बालक जब पाठशाला में भर्ती होने आता है, तो वह छोटे-छोटे वाक्यों में बोलना जानता है। वर्णमाला के भिन्न-भिन्न अक्षर उसके लिए निरर्थक तथा सारहीन होते हैं। उनका अपने में कोई अर्थ नहीं होता है। आपस में मिलकर जब वे शब्दों अथवा वाक्यों के रूप में आते हैं, तभी वे सार्थक बनते हैं, अर्थात् उनका अर्थ होता है। अतएव शिक्षाशास्त्रियों ने इस विषय में जो प्रयोग किए हैं, उनके आधार पर बालकों को पहले सार्थक शब्द अथवा वाक्य सिखाए जाएँ।
बालकों को अच्छा लिखने की प्रेरणा देने के लिए यह अच्छा होगा, यदि बालक अपनी लिखावट के संबंध में स्वयं ही निर्णय दें। शिक्षक बालकों के सामने उन्हीं कई प्रकार की लिखावट के नमूने प्रस्तुत करें और उनकी सहायता से सबसे सुंदर और सबसे ‘द्वारा लिये गये खराब और बीच की कुछ श्रेणियों के कुछ लेख चुनें। फिर प्रत्येक बालक का लेख कौन-सीश्रेणी में आता है, यह देखा जाए। इस प्रकार बालकों को अपने लेख के बारे में स्वयं ही मालूम हो जाएगा और अध्यापक भी यह जान सकेगा कि उनकी प्रगति कैसी है? क्या अमुक बालक के लेख में कुछ सुधार हुआ है या वैसा ही है अथवा पढ़ने से कुछ बिगड़ गया है। इससे बालकों को अपना लेख और सुन्दर बनाने की प्रेरणा मिलेगी और अध्यापक भी उन बालकों के संबंध में अनुसंधान कर सकेगा, जिनके लिखने में कोई सुधार नहीं है अथवा जो पहले से भी खराब लिखने लग गए हैं।