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विधि के शासन का अर्थ | vidhi ka shasan | rule of law in indian constitution in hindi

विधि के शासन का अर्थ
विधि के शासन का अर्थ

विधि के शासन का अर्थ

आधुनिक शासन को दो भागों में विभाजित किया जाता है— स्वेच्छाचारी एवं अधिनायकवादी शासन तथा लोकतंत्रात्मक एवं सांविधानिक शासन । लोकतंत्रात्मक एवं सांविधानिक शासन का आधार ‘विधि का शासन’ होता है। ऐसे शासन में शासन और शासित दोनों ही विधि के अधीन होते हैं न कि किसी व्यक्ति के अधीन। ‘विधि का शासन’ और ‘संविधानवाद’ उदारवादी लोकतंत्रों की आधारभूत विशेषताएँ हैं।

प्लेटो ने रिपब्लिक में ‘दार्शनिक शासक’ का सिद्धांत प्रतिपादित किया जो वस्तुतः एक व्यक्ति का शासन है। वह न जनता के द्वारा चुना जाता है और न जनता के प्रति उत्तरदायी होता है। प्लेटो ने वार्शनिक शासक को शासन की असीमित शक्ति देकर निरंकुश शासन का मार्ग प्रशस्त कर दिया है। इसके विपरीत अरस्तू ने कानून की सर्वोच्चता को श्रेष्ठ शासन का एक चिन्ह माना है। वह किसी भी कीमत पर व्यक्तिगत शासन को वांछनीय मानने का तैयार नहीं था। कानून का एक बड़ा लाभ यह है कि कानून में किसी भी प्रकार की वासनाओं तथा विकारों का समावेश नहीं होता। कानून में अव्यक्तिगत तत्त्व होते हैं जबकि श्रेष्ठतम व्यक्ति भी वासनाओं से संपूर्ण रूप से छुटकारा नहीं पा सकते। अतः वासनाओं की उपस्थिति के कारण श्रेष्ठतम व्यक्ति का शासन भी श्रेष्ठता की उस उच्च पराकाष्ठा तक नहीं पहुँच सकता जितना कि कानून पर आधारित शासन उच्च होता है। यूनानी चिंतकों में सम्भवतः अरस्तू कानून का सर्वाधिक निष्ठावान उपासक था। सेबाइन के शब्दों में “कानून की सम्प्रभुता को अरस्तू ने एक अच्छे राज्य के चिन्ह के रूप में स्वीकार किया है न कि एक दुर्भाग्यपूर्ण आवश्यकता के रूप में।”

ऐंग्लो-सैक्सन कहलाने वाले देशों—अर्थात्, यूनाइटेड किंगडम, ब्रिटिश स्वशासी डोमिनियम तथा संयुक्त राज्य अमेरिका के नागरिक जिन कानूनी सुरक्षा का उपभोग करते हैं, उनमें से एक ‘विधि के शासन’ का सिद्धांत भी है। ‘विधि के शासन’ की सर्वश्रेष्ठ व्याख्या डायसी ने अपनी पुस्तक ‘दी लॉ ऑफ कांस्टीट्यूशन’ में की है, उसके अनुसार ‘विधि के शासन’ के तीन अर्थ है :

1. कोई भी व्यक्ति कानून से परे नहीं है: “विधि के शासन के अनुसार देश में कानूनी समानता है, अथवा सभी लोगों का साधारण न्यायालयों द्वारा प्रयुक्त देश के सामान्य कानून के अधीन होना है।” इस सिद्धांत का आशय यह है कि विधि धनवान और निर्धन के बीच कोई अन्तर नहीं करती, क्योंकि “प्रधानमंत्री से लेकर पुलिस के सिपाही तक अथवा करों के संग्रहकर्ता तक प्रत्येक अधिकारी वैध औचित्य के बिना किये गये प्रत्येक कार्य के लिये उसी भाँति उत्तरदायी है जैसे कि कोई अन्य नागरिक।” फ्रांस की ‘प्रशासकीय विधि’ में ऐसा संभव नहीं है। इंग्लैण्ड में कर्मचारीगण सामान्य न्यायालय के सामने लाये जा सकते हैं और वैध सत्ता की सीमा से बाहर किये गये कार्यों के लिए दण्ड दिया जा सकता है अथवा उनसे हरजाना लिया जा सकता है। हीगने और पौबेल के अनुसार “जो व्यक्ति सरकार के अंग हैं वे मनचाहा नहीं कर सकते। उन्हें संसद द्वारा बनाये हुए नीति नियमों के अनुसार ही अपनी शक्ति का उपयोग करने की स्वतन्त्रता है।”

2. बिना अपराध के दण्डित नहीं किया जाना : विधि के शासन के अनुसार, “व्यक्ति कानून के उल्लंघन के लिए दण्ड दिया जा सकता अन्य किसी बात के लिए नहीं।” इसका को अर्थ यह है कि किसी व्यक्ति को तब तक दण्ड नहीं दिया जा सकता और न उसके शरीर या सम्पत्ति को किसी प्रकार की क्षति पहुँचाई जा सकती है जब तक कि उसने कानून का उल्लंघन न किया हो और यह किसी साधारण न्यायालय द्वारा साधारण ढंग से साबित न किया गया हो।

3. संविधान के सामान्य सिद्धांत न्यायिक निर्णयों के परिणाम हैं: विधि के शासन – की तीसरी शर्त है कि ब्रिटेन के संविधान के सामान्य सिद्धांत न्यायाधीशों के परिणामस्वरूप हैं जो कि उनके सामने लगाये गये अभियोगों में सामान्य व्यक्तियों के अधिकारों का निरूपण करते हैं। दूसरे शब्दों में, संविधान की व्याख्या अथवा अन्य किसी भी कानूनी मुद्दे पर न्यायाधीशों का निर्णय अंतिम और सर्वमान्य होगा।

पहला अर्थ देश में पूर्ण कानूनी समानता स्थापित करता है। सभी नागरिक, चाहे वे साधारण व्यक्ति हों या सरकारी कर्मचारी, देश की साधारण विधि के अधीन हैं और उन पर लगाये गए. आरोपों की सुनवाई साधारण न्यायालयों द्वारा ही होगी। दूसरा अर्थ नागरिकों की व्यक्तिगत स्वतन्त्रताओं की रक्षा करता है, यह कार्यपालिका को स्वेच्छाचारी बनने से रोकता है। तीसरा अर्थ इस बात की ओर संकेत करता है कि भारत और अमेरिका के विपरीत, ग्रेट ब्रिटेन में संविधान नागरिकों को मूल अधिकारों की लिखित गारण्टी नहीं देता। फिर भी इंग्लैण्ड में नागरिकों को अधिकतम स्वतन्त्रता प्राप्त है। इसका श्रेय उस देश के न्यायिक निर्णयों को जाता है। न्यायालयों के महत्त्वपूर्ण निर्णय संविधान के अंग बन जाते हैं। इस प्रकार “संविधान नागरिकों के अधिकारों को स्त्रोत न होकर परिणाम है।”

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shubham yadav

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