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वृत्तिका विकास से आप क्या समझते हैं?
बालक के शारीरिक, सांवेगिक, मनोगामक तथा सामाजिक विकास के क्रमिक रूप की भाँति ही वृत्तिका का विकास होता है। जिस प्रकार आयु बढ़ने के साथ शारीरिक, सांवेगिक आदि गुणों में परिवर्तन होते हैं उसी प्रकार वृत्तिका की प्राथमिकता भी परिवर्तित होती है। विकास की अवस्थाओं का मनोवैज्ञानिकों ने निम्न रूप में वर्गीकरण किया है
1. जन्म से 5 वर्ष की आयु तक– शैशवावस्था
2.6 वर्ष से 10 + वर्ष की आयु तक बाल्यावस्था
3. 11 वर्ष से 21 वर्ष की आयु तक किशोरावस्था (अ) 11 से 13 वर्ष पूर्व किशोरावस्था
(ब) 13 से 17 वर्ष प्रारम्भिक किशोरावस्था (स) 18 से 21 वर्ष उत्तर किशोरावस्था
4. 22 से 40 वर्ष की आयु तक— प्रौढ़ावस्था
5. 41 से 60 वर्ष की आयु तक–परिपक्वावस्था
शैशवावस्था के बारे में रूथ स्ट्रांग ने लिखा है “जीवन के प्रथम दो वर्ष में बालक अपने जीवन की आधारशिला रखता है। यद्यपि परिवर्तन किसी भी आयु में सम्भव है किन्तु प्रारम्भ में निर्मित प्रवृत्तियाँ और प्रतिरूप सदैव बने रहते हैं।” यह निश्चित है कि शैशवावस्था में वृत्तिक चयन या वृत्तिक रुझान के कोई विशेष चिन्ह प्रकट नहीं होते हैं। शैशवावस्था के बाद बालक बाल्यावस्था में प्रवेश करता है। बाल्यावस्था के महत्त्व को प्रकट करते हुए जोन्स ब्लेयर और सिम्पसन ने लिखा है कि “व्यक्ति के दृष्टिकोण, मूल्य एवं आदर्शों का निर्माण बाल्यावस्था में ही हो जाता है।” बाल्यावस्था में आयु वृद्धि के साथ-साथ बालक का वृत्तियों के कुछ नाम जानने का दायरा बढ़ता जाता है। यह जानकारी बालक को घर पर माता-पिता, भाई-बहिन और कक्षा के साथियों से मिलती है। यद्यपि इस आयु में विभिन्न वृत्तियों में प्रवेश पाने की आवश्यकता शैक्षिक योग्यताओं और मानसिक क्षमताओं का उसको कोई विशेष ज्ञान नहीं होता है। 10 या 11 वर्ष की आयु में वृत्तियों के प्रवेश के लिए आवश्यक शर्तों से में अनजान होते हुए भी वृत्तिक चयन के सम्बन्ध में बालक अपनी प्राथमिकता प्रकट करने लगता है। बाल्यावस्था के बाद बालक किशोरावस्था में प्रवेश करता है। किशोरावस्था के बारे में प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक जी. स्टेनले हाल ने लिखा है कि “किशोरावस्था व्यक्ति के जीवन का वह काल है जब व्यक्ति के व्यक्तित्व का नया जन्म होता है।” इस आयु में किशोर में अस्थिरता, सांवेगिकता और अनिश्चितता का प्राबल्य रहने के कारण हॉल ने इस अवस्था को विप्लव और दबाव का काल कहा है। इस अवस्था में छात्र कल्पना लोक में विचरण करता है। ये दिवास्वप्न उसकी प्रेरणा के स्रोत होते हैं। स्ट्रेंग ने लिखा है कि “किशोर व्यवसाय के चयन, उसकी तैयारी करने, उसमें प्रवेश प्राप्त करने के लिए अधिक चिन्तित होने लगता है। “
वृत्तिका विकास का बहुलर द्वारा किए गए वर्गीकरण
व्यक्ति के जीवन में वृत्तिका विकास का एक सामान्य प्रारूप कार्यरत रहता है। विकास की यह प्रक्रिया निरन्तर चलती रहती है। यह दूसरी बात है कि प्रत्येक अवस्था काल में वृत्तिका विकास की विशेषताओं में भिन्नता पायी जाती है। बहुलर नामक विद्वान ने वृत्तिका विकास की अवस्थाओं का वर्गीकरण किया है जो निम्नलिखित है-
1. व्यावसायिक रुचि में अभिवृद्धि अवस्था – यह अवस्था जन्म से लेकर 14 वर्ष की आयु तक की मानी गयी है। इसमें बालक की शैशवावस्था, बाल्यावस्था और पूर्व किशोरावस्था की अवस्थाएँ सम्मिलित हैं। इस काल में बालक को वृत्तिकाओं का सामान्य ज्ञान होता है। इस काल में वह वृत्तिका के कार्य, प्रवेश के लिए प्रशिक्षण तथा प्रवेश प्रक्रिया के बारे में अधिक जानकारी से अनक्षिज्ञ रहता है।
2. अन्वेषण की अवस्था— इस अवस्था की अवधि 15 से 24 वर्ष आयु के मध्य मानी गयी है। इसमें प्रारम्भिक किशोरावस्था, उत्तर किशोरावस्था तथा उसके बाद के कुछ वर्ष सम्मिलित है। इस अवधि का अधिकांश समय कल्पनावस्था का है जिसमें वह विविध वृत्तियों का समाज में उस वृत्ति के सम्मान के स्तर के अनुसार चयन करता है और पुनः उस वृत्ति का विचार त्यागकर अन्य वृत्ति के स्वप्न देखता रहता है। वैसे इसे अन्वेषण अवस्था इसीलिए कहा गया है क्योंकि इस काल में वह विविध वृत्तियों के बारें में जानकारी एकत्रित करने का प्रयास करता है। यह निश्चित है कि इस अवस्था में वृत्तिका के चयन के बारें में सम्भाविता बढ़कर वास्तविक अवस्था की ओर किशोर को अग्रसर करती है। किसी विशेष वृत्तिका के प्रति अभिवृत्ति की रचना होती है। इसके तीन पक्ष काल्पनिक, सम्भावित तथा वास्तविक होते हैं।
3. स्थापित अवस्था या सम्पादन अवस्था- बहुलर ने इस अवस्था की अवधि 24 से 44 वर्ष की आयु तक की मानी गयी है। अब व्यक्ति अपनी इच्छा से चयनित वृत्तिका में स्थान प्राप्त करके कार्य प्रारम्भ करता है। लेकिन प्रारम्भ में वह नियुक्ति परीक्षण के तौर पर स्वीकार करता है। वह कार्य-स्थल की दशाओं, वहाँ कार्यरत अन्य कर्मचारियों, कार्य के रूप आदि कार्य करके देखता है कि उन दशाओं में वह कार्य कर सकता है यह नहीं। यदि वहाँ कार्य करते हुये उसे सफलता मिलती है तो वह उस वृत्ति को स्थायी रूप में अपना लेता है। इस प्रकार वह व्यावसायिक जगत में अपना स्थान बनाना प्रारम्भ करता है। इसके दो पक्ष परीक्षण और स्थायित्व होते हैं।
4. व्यवस्था बनाये रखने की अवस्था- यह अवस्था 45 वर्ष से 64 वर्ष के मध्य की मानी गई है। इस अवस्था में व्यक्ति वृत्तिका को स्थायी रूप में अपना लेता है। अब वह वृत्तिका परिवर्तन का विचार त्याग देता है। यहाँ स्थायी रूप से कार्य करते हुए वह कुछ विशेषताएँ भी विकसित कर लेता है।
5. अन्तिम अवस्था – यह अवस्था 65 वर्ष की आयु से प्रारम्भ होती है। लेकिन भारत में जहाँ सेवानिवृत्त आयु 60 वर्ष है वहाँ 60 वर्ष की आयु से ही अन्तिम अवस्था आरम्भ हो जाती है। इस अवस्था में सामान्यतः व्यक्ति वृत्तिका से मुक्ति पा जाता है। लेकिन कुछ जीविकाएँ ऐसी हैं जहाँ अनुभव की अधिकता के कारण कुछ वर्षों तक के लिए सेवावृद्धि मिल जाती है। इस अवस्था को ह्रास की अवस्था भी कहते हैं।
वृत्तिका विकास की प्रक्रिया में सतता पायी जाती है और इसका सम्पादन आत्म प्रत्यय में होता है। किसी भी वृत्ति में निरन्तर कार्य करते हुए उससे ऐसा लगाव हो जाता है कि व्यक्ति स्वयं को भी समझने लगता है। स्वयं को समझ लेना ही आत्मप्रत्यय का विकास कहलाता है। व्यक्ति के अन्दर चलने वाली प्रक्रिया ही आत्मप्रत्यय को जन्म देती है।
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