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वैयक्तिक विघटन से आप क्या समझते हैं?
कूले समाज और व्यक्ति को अलग-अलग रूप में नहीं देखता है बल्कि उसके अनुसार समाज और व्यक्ति अपृथक है। समाज और व्यक्ति के पारस्परिक घनिष्ठ सम्बन्ध एक-दूसरे के अस्तित्व के लिए उत्तरदायी है। समाज की परिवर्तित होती हुई शक्तियाँ समाज को विभिन्न समयों में विभिन्न रूप प्रदान करती हैं। ये शक्तियाँ सामाजिक विघटन को उत्पन्न करती है। व्यक्ति, समाज की एक इकाई है। वह कैसे इस विघटन की प्रक्रिया से अपने को पृथक रख सकता है अस्तु वह भी विघटित होता है। व्यक्ति ने अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए विभिन्न प्रकार के साधनों की खोज की विभिन्न
संस्थाओं, संगठनों एवं समूहों आदि को संस्थापित किया। इससे सम्बंधित अनेक नियमों, सिद्धांतों आदि का निर्माण किया। इन नियमों ने समाज को कार्य करने की एक निश्चित दिशा दी दूसरी तरफ परम्पराओं एवं रीति-रिवाजों ने समाज को संगठित रूप में करने में महत्वपूर्ण भूमिका अभिनीत की। इस तरह समाज का एक ढाँचा तैयार हुआ जिसमें प्रत्येक व्यक्ति की एक निश्चित भूमिका एवं पद है। वह इस पद और भूमिका के अनुरूप कार्य करता है। इस प्रकार की संरचना में व्यक्ति अपने को महत्व न देकर समूह, समाज, संस्था को महत्व प्रदान करता है। इसके विपरीत जब व्यक्ति अपने को अधिक महत्व देने लगता है और समाज, समूह, संस्था को कम तब सम्पूर्ण समाज की क्रियाएँ, प्रक्रियाएँ संरचना आदि परिवर्तित होने लगती है। सम्पूर्ण सामाजिक ढाँचे का परम्परात्मक मूल्य छिन्न-भिन्न होने लगता है। व्यक्ति अपने स्वार्थो में लीन, अपनी आकांक्षाओं की खोज में समाज से कटा हुआ, स्वयं अपने मार्ग का निर्माता होता है। प्रत्येक व्यक्ति की क्रियाएँ एक-दूसरे से भिन्न हो जाती हैं। व्यक्ति यह अनुभव नहीं कर पाता कि वह क्या करे और कैसे करे जिससे उसकी आवश्यकताओं, महत्वाकांक्षाओं, स्वार्थों की पूर्ति हो सके। इस प्रकार के समाज में जहाँ भिन्नताएँ जैसे अलगाव, भ्रम, जटिलता आदि चीजें उत्पन्न होने लगती हैं वहीं समाज भी विघटित होने लगता है। इस समाज में वैयक्तिक विघटन आरम्भ होता है। इलियट एवं मेरिल का मत है कि “ये नियम उसके व्यवहार की संहिता को बनाते हैं कि वे क्या करेंगे और क्या नहीं करेंगे। अनिश्चित. वैयक्तिक भिन्नता की श्रृंखला में प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन संगठन को निश्चित करता है और यह इस बात पर आधारित है कि वह क्या है ? और क्या होना चाहता है ? +
वैयक्तिक जीवन संगठन अगर संतुलित है, तो व्यक्ति की मनोवृत्ति, आदतों, मूल्यों तथा समूह संस्थाओं के मध्य सामंजस्य है तो सम्पूर्ण समाज तथा व्यक्ति दोनों ही व्यवस्थित रूप से कार्य करते रहेंगे। व्यक्ति इनके माध्यम से अपने उद्देश्यों और आवश्यकताओं की पूर्ति करता रहेगा। किन्तु जब वैयक्तिक जीवन संगठन को संरचना के मध्य असामंजस्यता, विविधता तथा असंतुलनात्मक क्रियाओं का जन्म होने लगता है तब समाज की सम्पूर्ण व्यवस्था परिवर्तित होकर विघटन को उत्पन्न करती है जो अन्ततः वैयक्तिक विघटन को उत्पन्न करती है। समाज में कुछ व्यक्ति संस्थाओं, समूहों, संघों आदि के नियमों के अनुरूप अपने को बना लेते हैं। उसी के अनुरूप कार्य करते हैं। इस प्रकार के व्यक्ति सहयोगात्मक प्रकृति के होते हैं जबकि कुछ व्यक्ति इस प्रकार के भी होते हैं जो अपने को सामाजिक ढाँचे के अनुरूप ढॉल नहीं पाते हैं। ऐसे व्यक्ति असहयोगात्मक प्रकृति के होते हैं। इस श्रेणी के व्यक्ति कभी कुछ करते हैं और कभी कुछ चीजों को महत्व देते हैं और कुछ की तरफ ध्यान ही नहीं देते हैं जबकि दूसरी चीजें भी उतनी ही महत्वपूर्ण होती हैं। ये असंतुलित व्यक्ति होते हैं जिनका विचलित व्यवहार अर्थात् व्यक्ति जिनके व्यवहार विचलित हो गए हैं वह परम्पराओं, रूढ़ियों, मूल्यों, प्रथाओं के अनुसार न कार्य करता है और न उसकी चिन्ता ही करता है। उस पर किसी चीज का नियंत्रण ही नहीं होता है। वह समस्त प्रकार के सामाजिक सम्बन्धों और बंधनों से मुक्त होकर, मुक्त कार्य करता है। इस प्रकार व्यक्ति केवल अपने लिए ही नहीं वरन सम्पूर्ण समाज के लिए भी हानिकारक बन जाते हैं। यह वैयक्तिक विघटन की अन्तिम सीढ़ी होती है। जब व्यक्ति केवल अपने को ही हानि नहीं पहुँचाना चाहता बल्कि समाज को भी हानि पहुँचाता है।
उपर्युक्त विवरण से यह स्पष्ट होता है कि विघटित समाज में ही वैयक्तिक विघटन अधिकांश रूप में पाया जाता है। इसका अर्थ यह है कि वैयक्तिक विघटन का दायित्व बहुत कुछ समाज पर है। विभिन्न विद्वानों ने वैयक्तिक विघटन को परिभाषित करने का प्रयास किया है
“विघटित व्यक्ति अपना कार्य दूसरों के साथ अच्छी तरह से करने में असमर्थ रहता है। इसलिए सामाजिक विघटन की प्रक्रिया को प्रारम्भ करता है।”- इलियट मेरिल
वैयक्तिक विघटन वह प्रक्रिया या अवस्था है जिसमें व्यक्ति बृहत् भूमिका के चारों ओर व्यवहार को स्थिर नहीं कर पाया है। उसकी भूमिकाओं और चुनाव में संघर्ष और भ्रम होता है। इस प्रकार का विघटन अस्थाई या निरन्तर भी हो सकता है।” – ई.एम. लेमर्ट
“समस्त वैयक्तिक विघटन व्यक्ति के उन आचरणों को व्यक्त करता है, जो संस्कृति, स्वीकृति आदर्शों से इतना अधिक विचलित होते हैं कि उससे सामाजिक अस्वीकृति उत्पन्न होती है।’ – ई.एम. मावरर
उपरोक्त परिभाषाओं से यह ज्ञात होता है कि वैयक्तिक विघटन किसी एक कारण से नहीं उत्पन्न होता है बल्कि समाज में व्यक्ति जब अनेक परिवर्तनों और परिस्थितियों से घिर जाता है और जब वह उसके अनुरूप न तो कार्य कर पाता है और न अपने को ढाल ही पाता है तब उसके व्यवहार, व्यवस्थित व्यवहार प्रतिमान से विचलित होने लगते हैं। यहीं से व्यक्ति का समाज के साथ असमायोजन तथा असामंजस्यता की प्रक्रिया आरम्भ होती है। इस प्रक्रिया में वैयक्तिक विघटन को देखा जा सकता है। वैयक्तिक विघटन के अनेक स्वरूप हो सकते हैं जैसे अपराधी, वेश्या, आत्महत्या, शराब पीना आदि।
वैयक्तिक विघटन के कारण (Causes of Individual Disorganization)
1. वैयक्तिक मनोवृत्तियाँ और सामाजिक मूल्य
प्रत्येक व्यक्ति के सोचने का अपना ढंग होता है। किसी वस्तु के लिए किसी विशेष स्थिति में उसका अपना दृष्टिकोण होता है जिसे मनोवृत्ति कहते हैं। मनोवृत्तियों के निर्माण में आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं राजनैतिक कारकों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। इसके विपरीत मूल्य एक मापदण्ड है जिसके आधार पर वस्तु का मूल्यांकन किया जाता है। दोनों ही समाज की विभिन्न परिस्थितियों की देन है। व्यक्ति नवीन मूल्यों के आधार पर अपने को व्यवस्थित करने का प्रयास करता है किन्तु सामाजिक व्यवस्था उसका साथ नहीं देती है। अस्तु नवीन मनोवृत्तियों, मूल्य एवं सामाजिक व्यवस्था के मध्य संघर्ष उत्पन्न होता है।
2. सामाजिक संरचना और वैयक्तिक विघटन
सामाजिक संरचना में व्यक्ति को अपनी एक स्थिति एवं भूमिका है। यह स्थिति एवं भूमिका व्यक्ति को दो तरीकों से प्राप्त होती है एक प्रदत्त और दूसरा अर्जित ढंग से व्यक्ति की जन्म के साथ ही समाज में एक निश्चित स्थिति होती हैं जैसे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र अथवा हरिजन आदि। वे समाज जो परम्परात्मक है उनमें व्यक्ति की स्थिति व भूमिका जन्म से निर्धारित होती है। व्यक्ति बगैर किसी प्रयत्न के इस स्थिति अथवा पद को प्राप्त कर लेता है। वह अपने इस निश्चित परम्परात्मक पद के अनुसार समाज में कार्य करते हैं। इस तरह प्रत्येक जाति का व्यक्ति सामाजिक संरचना में अपने निश्चित पद की भूमिकाएँ करता है। ऐसे समाज में वैयक्तिक विघटन की संभावनाएँ न के समान होती है। व्यक्ति की आय के साथ उसकी आवश्यकताओं, महत्वाकांक्षाओं में वृद्धि होती है। जन्म से प्राप्त सामाजिक स्थिति इस बात पर बल देती है कि किसी भी तरह अपनी इच्छाओं और आवश्यकताओं आदि को पूर्ण करें और समाज में अपनी एक सम्मानित स्थिति बनाएँ। इस नकार की स्थिति में व्यक्ति अपने प्रयत्नों पर अधिक विश्वास करने लगता है। व्यक्ति उन सभी कार्यों को करने लगता है जिन्हें उसकी जाति करने को मना करती है। इस प्रकार की स्थिति में परम्परात्मक स्थिति एवं भूमिका तथा आधुनिक अर्जित व्यक्ति की स्थिति एवं भूमिका में संघर्ष उत्पन्न हो जाता है। अस्तु पद और भूमिकाओं में जितनी तीव्रता से भिन्नताएँ उत्पन्न होंगी उतनी ही तीव्रता से सामाजिक विघटन की परिस्थितियाँ भी उत्पन्न होंगी और यह परिस्थितियाँ वैयक्तिक विघटन को भी उत्पन्न करेंगी।
3. संकट और वैयक्तिक विघटन
संकट के समय में कुछ भी नहीं कहा जा सकता है। किस समय किस प्रकार का संकट किस व्यक्ति पर आ पड़े उसे कोई भी नहीं जानता है। जिन संकटों का पूर्वाभास होता है, उसके लिए व्यक्ति पहले से ही अपने को तैयार करता है किन्तु वे संकट जो अचानक अथवा सामाजिक परिस्थितियों के यकायक परिवर्तित होने से उत्पन्न होते हैं। वे व्यक्ति को झकझोर देते हैं। इस प्रकार के संकट से वह अपना अनुकूलन नहीं कर पाता है। वह अन्दर ही अन्दर बर्फ की तरह चुलता जाता है। इसका प्रभाव उसके व्यक्तित्व पर अच्छा नहीं पड़ता है बल्कि यह संकट वैयक्तिक विघटन का कारक बनता है।
4. एकाकीपन और वैयक्तिक विघटन
आधुनिक समाज में व्यक्ति का जीवन ठीक भीड़ में रहने के समान है। व्यक्ति के चारों तरफ हजारों लाखों व्यक्ति हैं फिर भी उसका अपना कोई नहीं है। इस समाज की सबसे बड़ी विशेषता है व्यक्ति के संबंधों में औपचारिकता। बड़े-बड़े महानगरों में तो एक पहल में रहने वाले व्यक्ति भी एक-दूसरे से परिचित नहीं होते हैं। इस तरह व्यक्ति धीरे-धीरे सामूहिक ही संबंधों से कटता जाता है। जहाँ से प्रेम, स्नेह, सुरक्षा, आदर सब कुछ मिलता था। व्यक्ति के चारों और एक कृत्रिम औपचारिक व्यवहार है जहाँ उसे कोई अपना नहीं दिखाई पड़ता है जिससे वह अपनी बात कह सके। अपने सुख-दुःख को व्यक्त कर सके। उसका सम्पूर्ण जीवन एकाकीपन के सागर में मंडराय करता है। इससे ऊबकर व्यक्ति अपने को भूल सके। अपने एकाकीपन के एहसास को खत्म कर सके इसके लिए वह मदिरा का सेवन करता है, वेश्यावृत्ति के गन्दे व्यसन में फंसता है और कभी-कभी व्यक्ति का एकाकीपन उसे पागल बना देता है और आत्महत्या करने के लिए उसे बाध्य करता है। यह एकाकीपन के परिणाम हैं जो वैयक्तिक विघटन के विभिन्न स्वरूप में प्रकट होते हैं।
5. आर्थिक सामाजिक कारक और वैयक्तिक विघटन
वैयक्तिक विघटन के लिए निश्चित है। उपर्युक्त कारक किसी सीमा तक उत्तरदायी है किन्तु आर्थिक सामाजिक कारकों की भी वैयक्तिक विघटन में महत्वपूर्ण भूमिका है। वे समाज जिनका आर्थिक ढांचा पूँजीवादी व्यवस्था पर आधारित है, वहाँ वैयक्तिक विघटन के बढ़ते हुए स्वरूप को देख सकते हैं। सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था पूँजीपतियों के हाथ में होती है। यह एक तरफ भौतिकवादी सभ्यता को जन्म देती है और दूसरी तरफ व्यक्ति का मनचाहा शोषण भी करती है. यह समाज कुछ चन्द व्यक्तियों का होता है। अधिकांश व्यक्तियों का जीवन असुरक्षित होता है। बेकार इनकी अपनी निधि है। गन्दी बस्तियाँ इनके भाग्य के साथ जोड़ दी गई हैं। अनैतिक और असामाजिक व्यवहार इन्हीं गरीबों को दहेज में प्राप्त हुए हैं। शिक्षित और अशिक्षित दोनों ही समाज के भार हैं। दोनों ही विभिन्न प्रकार की कुठाओं, निराशा, अनिश्चितता आदि से दुखी एवं पीड़ित हैं। ये सब व्यक्ति के अन्दर अनेक प्रकार के मानसिक रोगों को उत्पन्न करती है। इनसे व्यक्ति विक्षिप्त होकर कभी अपने विरुद्ध कार करता है और कभी उस समाज के विरुद्ध जिसने उसे कष्टों और असुरक्षा के अतिरिक्त कुछ नहीं दिया कभी वह इनसे पीड़ित और परेशान होकर आत्महत्या करता है और मदिरालय में मंदिरा-पान करता है और कभी आर्थिक संकटों का उस पर इतना अधिक प्रभाव पड़ता है कि वह पागल बन जाता है और ज यह समाज के विरुद्ध कार्य करता है। अस्तु वैयक्तिक विघटन में जितने कारक उत्तरदायी हैं उतने ही आर्थिक सामाजिक कारक भी।
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