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वैयक्तिक विघटन की परिभाषा
व्यक्ति के जीवन में निषेधात्मक व्यवहारों तथा मनोवृत्तियों का समावेश हो जाना ही वैयक्तिव विघटन है। वैयक्तिक विघटन की इस प्रकृति को विद्वानों ने भिन्न-भिन्न रूप से परिभाषित किया है।
मावरॅर के शब्दों में “वैयक्तिक विघटन व्यक्ति के ऐसे सभी व्यवहारों की ओर संकेत करता है जो सांस्कृतिक रूप से मान्यता प्राप्त आदर्श नियमों से इस सीमा तक हट गये हो कि सामाजिक रूप स उसकी निन्दा की जाने लगे।” इस परिभाषा में मावरॅर ने वैयक्तिक विघटन को सांस्कृतिक आधार पर स्पष्ट करते हुए बताया है कि व्यक्ति के व्यवहार जब संस्कृति द्वारा निर्धारित आदर्श नियमों से इत विचलित हो जाते हैं कि उन्हें समूह द्वारा मान्यता प्रदान नहीं की जाती तब इसी स्थिति को वैयक्तिक विघटन कहा जाता है।
लेमर्ट के अनुसार लॅमर्ट ने वैयक्तिक विघटन को एक प्रक्रिया के रूप में परिभाषित किया है आपके मतानुसार “वैयक्तिक विघटन वह दशा अथवा प्रक्रिया है जिसमें व्यक्ति के व्यवहार उसकी मुख्य भूमिका के अनुरूप नहीं रहते बल्कि अपनी भूमिका के चुनाव में वह अनेक भ्रमों और संघर्षो का साम् करने लगता है।” इस परिभाषा में लेमर्ट ने (क) व्यक्ति की कुशलता तथा उसे प्राप्त होने वाली स्थिति एवं (ख) व्यक्ति की स्थिति तथा उसकी भूमिका के बीच उत्पन्न होने वाले असंतुलन को वैयक्तिक विघटन क आधार स्वीकार किया है।”
इलियट तथा मैरिल के अनुसार, सामाजिक नियमों तथा सम्पूर्ण समाज के साथ व्यक्ति क तादात्मीकरण न होना ही वैयक्तिक विघटन है।”
वैयक्तिक विघटन के लक्षण (Symptom of Personal Disorganization)
थॉमस तथा नैनिकी के अनुसार, “वैयक्तिक जीवन के संगठन को उन बहुत सी मनोवृत्तियों तथा मूल् की संरचना के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जिनका विकास सामाजिक अनुभवों से होता है ए जिनके द्वारा चेतन या अचेतन रूप से व्यक्ति अपने आधारभूत उद्देश्यों को पूरा करने का प्रयत्न करता है। इस कथन से स्पष्ट होता है कि एक व्यक्ति का अपना जीवन-संगठन ही नैतिकता, कानून, सामाजिक सम्बन्धों, धर्म व्यापार या मनोरंजन के क्षेत्र में उसके लिये पथ प्रदर्शक का कार्य करता है। विभिन्न विद्वानों ने वैयक्तिक विघटन के कुछ लक्षणों का उल्लेख किया है। वे लक्षण निम्नलिखित हैं-
(1) सामाजिक मूल्यों से भिन्न मनोवृत्तियाँ (Attitudes Inconsistent with Social Values)
सामाजिक मूल्य प्रत्येक व्यक्ति के लिये विभिन्न सामाजिक तथ्यो, परिस्थितियों तथा व्यवहारों के अर्थ को स्पष्ट करते हैं। इनका कार्य समूह के सभी सदस्यों के व्यवहारों में एकरूपता बनाये रखना होता है। वैयक्तिक विघटन की दशा समाज में तब उत्पन्न होती है जब व्यक्ति की मनोवृत्तियाँ सामाजिक मूल्यों में भिन्न हो जाती हैं। ब्लूमर का कथन है कि साधारणतया प्रत्येक व्यक्ति वस्तुओं को अपने सन्दर्भ में परिभाषित करता है, उसका निर्णय लेता है, चुनाव करता है, योजना बनाता है और तभी किसी कार्य को पूरा करता है। व्यवहार की इस प्रक्रिया में व्यक्ति कभी-कभी यह भूल जाता है कि सामाजिक मूल्यों अथवा आदर्श नियमों के अनुसार उसे किस तरह का व्यवहार करना चाहिए। वह अक्सर उसी ढंग से कार्य करने लगता है जिससे उसी को अधिकतम लाभ प्राप्त हो, भले ही अन्य व्यक्तियों को इससे कितनी ही हानि क्यों न होती हो। सामाजिक मूल्यों से भिन्न प्रकार की मनोवृत्तियाँ विकसित हो जाने पर व्यक्ति सभी तर्क अपने लाभ के लिये देने लगता है। वह वस्तुओं तथा समितियों को उसी दृष्टिकोण से देखने लगता है। जैसाकि वह देखना चाहता है। इससे स्पष्ट होता है कि किसी व्यक्ति में सामाजिक मूल्यों से भिन्न मनोवृत्तियों का विकसित होना एक विघटित व्यक्तित्व का लक्षण है।
(2) सामाजिक आदर्श नियमों से विचलन (Deviation from Social Norms)
प्रत्येक समाज के अपने कुछ आदर्श-नियम होते हैं। आदर्श-नियम व्यवहार करने का एक ऐसा तरीका है जो सम्पूर्ण समाज को स्वीकार होता है। आदर्श-नियम एक विशेष परिस्थिति में व्यक्ति के आचरणों का निर्धारण करते हैं तथा सामाजिक आधार पर व्यक्ति के व्यवहारों पर नियंत्रण रखते हैं। व्यक्ति कभी-कभी अपने लाभ के लिये व्यवहारों में इस तरह संशोधन कर लेता है जो सामाजिक आदर्श नियमों के प्रतिकूल होते हैं। यही आदर्श-नियमों से विचलित होने की स्थिति है जो वैयक्तिक विघटन का एक स्पष्ट लक्षण है। व्यक्ति आदर्श-नियमों से अनेक कारणों से विकसित हो सकता है। सर्वप्रथम व्यक्ति की कभी-कभी यह वारणा बन जाती है कि आदर्श नियम सम्पूर्ण के लाभ के लिये हैं जबकि उसका वैयक्तिक हित इन नियमों से दूर हटकर की सम्भव है। दूसरा कारण यह है कि व्यक्ति परम्परागत आदर्श नियमों को उपयोगी और आवश्यक नहीं समझते। परम्परागत आदर्श-नियमों को उपयोगी न मानना ही विघटित व्यवहार को जन्म देता है।
(3) सामाजिक संरचना का अवांछित दबाव (Undesirable Pressure of Social Structure)
व्यक्ति पर सामाजिक संरचना का आवश्यकता से अधिक दबाव भी इस बात का संकेत है कि उस समाज में वैयक्तिक विघटन की दर में वृद्धि हो रही है। यह सच है कि सामाजिक संरचना व्यक्ति की विभिन्न आवश्यकताओं को पूरा करने के साथ ही व्यक्ति के समाजीकरण में सहायक होती है लेकिन व्यक्ति के जीवन में सामाजिक संरचना का अधिक हस्तक्षेप अनेक प्रकार के मानसिक तनावो. चन्ताओं और कभी-कभी निराशा को जन्म देकर वैयक्तिक विघटन की दशा उत्पन्न करता है। लेफ्टन ने यह बताया है कि सामाजिक-सांस्कृतिक दशाएँ जब व्यक्ति के सामूहिक सम्बन्धों तथा अन्तर्क्रियाओं में अधिक हस्तक्षेप करती हैं तो व्यक्ति अनेक मानसिक विकारों का शिकार हो जाता है। भारत में जाति व्यवस्था सामाजिक तथा सांस्कृतिक आधार पर नीची जातियों पर अनेक निर्योग्यताएँ लागू करके वैयक्तिक विघटन को बढ़ाने का कारण रही हैं।
(4) स्थिति तथा भूमिका का असन्तुलन (Conflict of Status and Role)
वैयक्तिक जीवन का संगठन एक बड़ी सीमा तक व्यक्ति की संवेगात्मक सन्तुष्टि पर निर्भर होता है। इसी सन्तुष्टि के लिये व्यक्ति, परिवार, खेल के साथियों, विषमलिगियों, आर्थिक समूहों तथा अनेक दूसरे समूहों में सामाजिक और मानसिक सुरक्षा प्राप्त करने का प्रयत्न करता रहता है। इन व्यक्तियों अथवा समूहों से परस्पर सम्बन्ध स्थापित करने में जब कोई बाधा उत्पन्न होती है तो उसके वैयक्तिक जीवन में विघटन के जत्व स्पष्ट होने लगते हैं। यह स्थिति मुख्य रूप से तब पैदा होती है जब उसके समूह के अन्य सदस्य यह अनुभव करने लगते हैं कि उस व्यक्ति की भूमिका उसकी स्थिति के अनुरूप नहीं है। यदि व्यक्ति स्वयं भी यह समझने लग जाये कि उसमें अपनी स्थिति के अनुरूप भूमिका का निर्वाह करने की योग्यता या कुशलता का अभाव है तो उसमें स्वयं भी अनेक तनाव उत्पन्न हो जाते हैं। यह स्थिति भावनात्मक असुरक्षा में वृद्धि करके वैयक्तिक विघटन का कारण बन जाती है। वारेन का कथन है कि, “अपनी भूमिकाओं का सही ढंग से संचालन न कर सकना ही वैयक्तिक विघटन का कारण है। लिन्टन ने वैयक्तिक विघटन में स्थिति और भूमिका की अनिश्चितता के प्रभाव को स्पष्ट करते हुए कहा है कि व्यक्ति अक्सर अपने को ऐसी परिस्थितियों के बीच पाता है कि वह अपनी और अन्य व्यक्तियों की प्रस्थिति तथा भूमिका के बारे में अनिश्चित होता है। यह स्थिति भ्रम और निराशा में वृद्धि करके वैयक्तिक जीवन को विघटित कर देती है।
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