समाजशास्‍त्र / Sociology

वैयक्तिक विघटन के प्रकार | Types of Personal Disorganization in Hindi

वैयक्तिक विघटन के प्रकार
वैयक्तिक विघटन के प्रकार

वैयक्तिक विघटन के प्रकार बताइए|

डॉ. मोरर ने विभिन्न रूप से विघटित व्यक्तियों को तीन प्रमुख वर्गों में विभक्त किया है। व्यक्तियों के व्यवहार से उत्पन्न सामाजिक अनुमोदन की मात्रा तथा सम्बन्धित की अनुक्रिया को ही, इस वर्गीकरण का आधार बनाया गया है –

1. विरोधी (Non-conformist) 

विरोधियों में आविष्कारक तथा प्रर्वतकों की गणना की जा सकती है जो वर्तमान स्थिति से सन्तुष्ट नहीं होते और वे पहले अपने निजी वातावरण में परिवर्तन लाते हैं और तत्पश्चात् समूचे समाज में यह बात सच है कि प्राविधिक क्षेत्र में आविष्कारक को वैयक्तिक रूप से विघटित बताना कुछ-कुछ बेढंगा-सा प्रतीत होता है क्योंकि उसके आविष्कार बड़ी ही तत्परता के साथ स्वीकार कर लिये जाते हैं। यहाँ तक कि ऐसे कुछ आविष्कारक तो समाज में ख्याति एवं उत्कृष्ट आदर के पात्र बनते हैं। फिर भी यह मानना होगा कि ये भी कुछ सीमा तक विघटित ही होते हैं। ऐसा इसलिये माना जा सकता है क्योंकि वे किसी एक संक्रिया में अति व्यस्त होते हैं और वर्तमान परिस्थितियों से असन्तुष्ट रहते हैं। विश्वास और विचारों के क्षेत्र में यह विघटन और भी अधिक स्पष्ट होता है। किन्तु कभी-कभी इन व्यक्तियों की बात मानने वाले इतनी अधिक संख्या में हो जाते हैं कि समाज के विरोध की बात बिल्कुल ही दब जाती है। ऐसे लोगों को साधारणतः विद्रोहियों की श्रेणी में रखा जाता है।

2. विद्रोही एवं क्रान्तिकारी (The Rebels and Revolutionists)

यदि तुलना की जाए तो ज्ञात होगा कि समाज का विरोध आविष्कारक एवं प्रवर्तकों की अपेक्षा विद्रोहियों और क्रान्ति के प्रति कहीं अधिक तीव्र होता है। विद्रोही का विद्रोह सर्वथा दो भिन्न प्रकार का हो सकता है। वह या तो अपनी इच्छाओं की तृप्ति के लिए सुखवाद से प्रेरित होकर विद्रोह करता है या फिर उसका विद्रोह समाज कल्याण के लिए भी हो सकता है। यदि विद्रोह करते समय सुखवाद को ही ध्यान में रखा गया है तो वह व्यक्ति अपराधी व्यवहार का माना जायेगा। किन्तु यदि यह विद्रोह समाज-कलयाण के लिए है तो इसे युवकों द्वारा किये जाने वाले अस्पष्ट विद्रोह से लेकर अधिक जटिल एवं व्यवस्थित आमूल परिवर्तनवाद माना जा सकता है। उन्होंने विनम्र प्रकार के विद्रोहियों में इन लोगों को रखा है-

1. किशोर लोग जो अभौतिक संस्कृति में परिवर्तन करने की माँग करते हैं अर्थात् विश्वासों, परम्पराओं, सामाजिक या धार्मिक विचारों में परिवर्तन चाहते हैं, यद्यपि उनका यह आदर्शवाद अल्पकालिक ही होता है।

2. कुछ प्रवासीजन जो अपनी उत्कृष्ट अथवा निकृष्ट योग्यताओं के कारण शहरों को आते हैं और स्थानीय सामाजिक वातावरण के साथ अनुकूलन करने में असमर्थ होते हैं।

3. सीमान्त व्यक्ति जिनका पालन-पोषण दो भिन्न संस्कृतियों में होता है और जो आमूल परिवर्तनवादी अथवा सांस्कृतिक संकर वर्ण हो सकता है।

4. अस्थायी श्रमिक अथवा होबो जो लगभग प्रवासियों के सदृश तो होते हैं किन्तु उनकी तरह आसानी से किसी भी सांस्कृतिक क्षेत्र में स्थायी स्थान खोज सकने में समर्थ नहीं होते। घूमने की लत उनकी एक विशेष बुराई होती है और सामाजिक व्यवस्था के प्रति उनके विद्रोह का कोई निश्चित कार्यक्रम नहीं होता जिससे वे अस्थायी बने रहते हैं।

5. सुधारक और क्रान्तिकारी जिनके प्रति समाज की अस्वीकृति अधिक विशिष्ट होती है। जहाँ एक ओर किशोरों तथा अन्य लोगों का कोई निश्चित कार्यक्रम पुरानी पीढ़ियों के विरूद्ध नहीं होता और पूर्वस्थिति के विरूद्ध केवल निषेधवादी असम्मति ही प्रकृट होती है, वहीं दूसरी ओर सुधारक एवं क्रान्तिकारी लोग विरोध का एक सुसंगठित तथा निरन्तर कार्यक्रम बनाते हैं। सुधारक आंशिक रूप से उद्धारक और आंशिक रूप से उन्मूलनवादी होते हैं क्योंकि वह लोकनीतियों के ही अनरूप सामाजिक ‘स्थितियों में सुधार करने का प्रयास करते हैं, जबकि इसके विपरीत उन्मूलनवादी सामाजिक व्यवस्था केवल ऐसे सुधार चाहता है जो किसी विशेष समय की बातों से बिल्कुल ही पृथक् हों। पुनश्च, सुधारक जो कुछ-कुछ उन्मूलनवादी भी होता है, उन्मूलनवादी से इस बात में भी भिन्न होता है कि वह सामाजिक व्यवस्था के किसी एक अंग में सुधार किये जाने का प्रवर्तक होता है न कि उसके सभी अंगों में। सुधारक का कार्यक्रम व्यक्तियों तथा समूहों के व्यवहार और ऐसे परम्परात्मक स्तर के बीच सामन्जस्य पैदा करने से सम्बन्धित होता है जिसे समाज सिद्धान्ततः तो स्वीकार करता है किन्तु उसे व्यवहार में लाने का सामर्थ्य नहीं दिखा पाता। सुधारक समाज में आदर का पात्र समझा जाता है जबकि यह आदर उन्मूलनवादी तथा क्रान्तिकारियों को नहीं मिलता।

3. कुसमायोजित अथवा विच्छिन्न व्यक्ति (Maladjusted or Disintegrated Persons) 

ऐसे विघटित व्यक्तित्वों की श्रेणी में जो अपनी परिस्थितियों के साथ समायोजन नहीं कर पाते, मानसिक दृष्टि से अव्यवस्थित, उन्मादी अथवा आत्महत्या करने वालों को रखा गया है। क्वीन तथा मन का कथन है कि जब व्यक्ति सामाजिक अनुमोदन प्राप्त करने के कार्य का परित्याग कर देता है और व्यक्तिवादी जगत की ओर उन्मुख हो जाता है, तब कुसमायोजित अथवा उन्मादी बन जाता है। किन्तु इस परित्याग की मात्रा की भी व्यापक श्रेणियाँ होती हैं इस प्रकार आंधियों में व्यक्ति का यह परित्याग का प्रयास आंशिक ही रहता है जबकि मनोविक्षिप्तियों में यह परित्याग पूर्णता को पहुँच जाता है। विरोधी और दोहरी भूमिकाओं वाले लोग, कृत्रिम रोगी, कल्पित भूमिकाओं वाले, महासेवी, आत्महत्या करने वाले, लैंगिक विभेदी, रुग्णतांत्रिक और मनोविक्षिप्त। इन असमायोजित लोगों में बड़ी संख्या ऐसे ही लोगों की है जिनका व्यक्तित्व विघटित तो होता है किन्तु विच्छिन्न नहीं। उनके मतानुसार विरोधीयों व्यक्तियों के साथ समाज स्वीकृत तरीके से निर्वाह कर पाने में असमर्थ किन्तु निबाह करने के लिये प्रयत्नशील लोग विघटित या असमायोजित तो होते हैं किन्तु विच्छिन्न अथवा कुसमायोजित नहीं होते।

डॉ. मोरर द्वारा प्रदत्त उपरोक्त विवरण के अन्तर्गत यद्यपि विभिन्न प्रकार के विघटित व्यक्ति आ जाते हैं, तथापि कुछ ऐसे लोग रह जाते हैं जो समाज की दृष्टि से सामान्य नहीं माने जाते। वे समाजशास्त्रीय अर्थों में विकृत नहीं होते क्योंकि वे उन परिस्थितियों के साथ जिनमें वे रहते हैं भली प्रकार तालमेल बैठा लेते हैं। किन्तु उनके समुचित विकास के लिये और अपने दायित्वों को भली-भांति पूर्ण करने के लिये उन्हें समाज द्वारा कुछ संरक्षणों की आवश्यकता रहती है। इस श्रेणी में बच्चों, निर्धनों, महिलाओं, शारीरिक व मानसिक दृष्टि से हीन, वृद्ध, बेकार श्रमिकों इत्यादि को रखा जा सकता है। ऐसे लोगों को समुदाय के निर्बल अंग (weaker sections) की संज्ञा जा सकती है।

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shubham yadav

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