B.Ed./M.Ed.

व्यक्तिगत परामर्श एवं उसकी अवस्थायें

व्यक्तिगत परामर्श एवं उसकी अवस्थायें
व्यक्तिगत परामर्श एवं उसकी अवस्थायें

व्यक्तिगत परामर्श एवं उसकी अवस्थायें

परामर्श ऐसी प्रक्रिया है जिसमें उन सभी दशाओं का समावेश होता है, जिनमें परामर्शदाता उपबोध्य की समस्या को भली-भाँति समझने का प्रयास करता है। परामर्श इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिये पूछताछ तथा विचार विनिमय की एक अवधारणा है, जो साक्षात्कार के रूप में सम्पन्न होती है। इसीलिये पैपिंस्की ने परामर्श को उपबोधक और उपबोध्य के मध्य व्यक्तिगत और आमने-सामने का सम्बन्ध माना है। व्यक्तिगत परामर्श की प्रक्रिया भी सुव्यवस्थित रूप में सम्पन्न होती है। इसी कारण इसको चार अवस्थाओं में से होकर गुजरना होता है। ये चार अवस्थायें अधोलिखित हैं-(1) प्रारम्भिक अवस्था, (2) मध्य अवस्था, (3) अन्तिम अवस्था (4) अनुवर्ती अवस्था

(1) प्रारम्भिक अवस्था

विद्यालय में व्यक्तिगत परामर्श की स्थिति या तो कुछ मिनटों की हो सकती है, जिसमें किसी तात्कालिक और सरल प्रश्न का उत्तर खोज निकालने में सहायता दे दी जाती है या फिर ऐसी स्थिति हो सकती है, जबकि व्यक्तिगत समस्याओं को सुलझाने के लिये परामर्श की लम्बी श्रृंखला चल पड़ती है जो महीनों चलती है। अनौपचारिक परामर्श देने के अनेक अवसर परामर्शदाता को अपने छात्रों के साथ दैनिक सम्बन्धों में प्राप्त होते हैं। अधिक औपचारिक परामर्श कार्य किसी गम्भीर समस्या या स्थिति के पैदा होने पर प्रारम्भ होते हैं। यहाँ औपचारिक परामर्श कार्य की प्रारम्भिक अवस्था का वर्णन प्रस्तुत है-

(क) छात्र से सम्बन्धित सूचनाओं का संग्रह- परामर्श की सफलता के लिये उपबोधक को उपबोध्य के सम्बन्ध में पृष्ठभूमि के ज्ञान की आवश्यकता पड़ती है, क्योंकि उपबोध्य के सम्बन्ध में जानकारी दोनों में आत्मीय सम्बन्ध स्थापित करने में सहायक होती है। उपबोध्य से सम्बन्धित तथ्य निर्देशन कार्यालय में रखे रिकॉर्ड, अध्यापकों, अभिभावकों अथवा विश्वसनीय व्यक्तियों से एकत्रित किये जा सकते हैं। यह कार्य साक्षात्कार प्रारम्भ करने से पूर्व ही उपबोधक को कर लेना चाहिये।

(ख) आत्मीयता स्थापित करना- परामर्श कार्य का प्रारम्भ उपबोधक और उपबोध्य के मध्य परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित होने के साथ होना चाहिए। आत्मीयता ही उपबोध्य के उपबोधक के प्रति विश्वास पैदा करने में सहायक होती है। आत्मीयता पैदा करने के लिये उपबोधक को निम्नलिखित बिन्दुओं पर ध्यान देना चाहिये-

(i) सहानुभूति – परामर्शीय साक्षात्कार में प्रारम्भ में ही प्रश्न बन्दूक की गोली की भाँति नहीं छोड़ना चाहिये। उपबोधक को प्रारम्भ में उपबोध्य में विश्वास पैदा करने के लिये कुछ शब्दों के माध्यम से सहानुभूति प्रकट करनी चाहिये।

(ii) आश्वासन- उपबोधक को चाहिये कि वह उपबोध्य को आश्वस्त करे कि उसकी समस्या का हल अवश्य होगा। उसकी घबराहट को दूर करने का प्रयास करना चाहिये।

(iii) स्वीकृति– उपबोधक को प्रारम्भ में उपबोध्य के कृत्यों के प्रति अपनी स्वीकृति प्रदान करके उसे उत्साहित करना चाहिये ताकि वह अपनी भावनाओं को निस्संकोच प्रकट कर सके।

(iv) विनोद – जब दो व्यक्तियों के मध्य विचार-विमर्श होता है तो वातावरण गम्भीर हो जाता है। ऐसी स्थिति में नीरसता को दूर करने के लिये उपबोधक को कुछ हास्य का प्रयोग करना चाहिये।

(v) प्रश्न पूछना – उपबोधक द्वारा उपबोध्य से कभी-कभी ऐसे प्रश्न पूछने चाहिये जिनसे  उपबोध्य को अपनी समस्या पर चिन्तन करने की प्रेरणा प्राप्त हो।

(vi) भय- उपबोधक द्वारा उपबोध्य को कभी-कभी धमकी देनी चाहिये कि यदि वह अपने बारे में सही सूचनायें नहीं देगा तो उसके परिणाम उसी के लिये अहितकर होंगे।

(vii) आश्चर्य- कभी-कभी उपबोधक को उपबोध्य के कथन या क्रिया पर आश्चर्य प्रकट करके उसको अपने कथन या व्यवहार में सुधार करने के लिये प्रेरित करना चाहिये।

(ग) प्रारम्भ में औपचारिक व्यवस्था पर कम ध्यान- परामर्श के प्रारम्भ में कोई भी व्यवस्थित रचना नहीं होनी चाहिये। इस समय विचार-विनिमय स्वच्छन्द वातावरण में होना चाहिये। उपबोधक को प्रारम्भ में सीधे अपने उद्देश्य तक पहुँचने का प्रयास नहीं करना चाहिये।

(घ) अनुमोदन- परामर्श के प्रारम्भ में उपबोधक को बातचीत करने की स्वतन्त्रता उपबोध्य

को देनी चाहिये। उसके किसी कथन पर उपबोधक को कोई निर्णय नहीं देना चाहिये। ऐसा करके वह उपबोध्य में विश्वास पैदा करेगा कि उसके द्वारा कही गयी बातें उपबोधक को स्वीकार होंगी।

(ङ) वार्तालाप में समान समय की भागीदारी- परामर्श में उपबोधक को ध्यान रखना चाहिये कि वार्तालाप में दोनों को लगभग समान समय उपलब्ध हो। इससे उपबोध्य को बोलने का अधिक अवसर मिलेगा तथा अधिक बोलने पर ही वह अपने अन्दर छिपे भावों को प्रकट कर सकेगा।

स्पष्ट है कि परामर्श का प्रारम्भ मित्रतायुक्त वातावरण में होना चाहिये। उपबोध्य द्वारा कोई दबाव या बन्धन अनुभव नहीं होना चाहिये।

( 2 ) मध्य अवस्था

परामर्श का मध्य भाग अधिक महत्त्वपूर्ण होता है, क्योंकि इस भाग में उपबोधक समस्या के मुख्य बिन्दु पर पहुँचता है। यह परामर्श का वह भाग है जहाँ उपबोधक उपबोध्य से सम्बन्धित अधिक से-अधिक सूचनायें एकत्रित करने का प्रयास करता है। मध्य भाग को उपयोगी बनाने हेतु उपबोधक को निम्नलिखित बिन्दुओं पर ध्यान देना चाहिये-

(i) प्रेरक प्रश्न पूछना- उपबोधक को प्रेरक प्रश्न उपबोध्य से पूछने चाहिये। प्रेरक प्रश्न ही उपबोध्य को वार्तालाप की प्रेरणा प्रदान करते हैं। मध्य भाग में विषय से सम्बन्धित गम्भीरता आ जाती है, लेकिन गम्भीर वातावरण में प्रश्न ऐसे हों जो उपबोध्य को अपने बारे में सब कुछ बताने की प्रेरणा दें।

(ii) निस्तब्धता का रचनात्मक उपयोग- निस्तब्धता से आशय है-उपबोध्य द्वारा कुछ समय के लिये चुप हो जाना। ऐसे समय का उपयोग उपबोधक को सावधानी से करना चाहिये। निस्तब्धता से आशय है कि उपबोध्य के मस्तिष्क में विचारों का द्वन्द्व चल रहा है। वह सोच रहा है, अमुक तथ्य मुझे प्रकट करना चाहिये या नहीं। ऐसे समय उपबोधक को उसे चिन्तन के लिये समय देना चाहिये।

(iii) सीमित सूचनायें प्राप्त करना- प्रायः उपबोधक का प्रयास होता है कि प्रथम परामर्श साक्षात्कार में ही अधिक-से-अधिक सूचनायें एकत्रित कर लेनी चाहिये। ऐसा करना उनकी भूल है। परामर्श का कार्य एक बैठक में कभी पूरा नहीं होता है। इसके लिये उपबोध्य के साथ कई परामर्श की बैठकें आयोजित करनी पड़ती हैं।

(iv) उपबोध्य की भावनाओं को समझना- परामर्श के समय उपबोध्य अनेक प्रकार की भावनाओं, चाहे वे नकारात्मक ही क्यों न हों, प्रकट करता है। उपबोधक को उसकी भावनाओं पर ध्यान देना चाहिये। उपबोध्य को समझना तथा उनको स्वीकार करना परामर्श कार्य में सहायक होगा। उपबोधक अपनी स्वीकृति का आभास भाव-भंगिमा या ‘हाँ’ शब्द के उच्चारण द्वारा करा सकता है।

(v) परामर्श पर उपबोधक का नियंत्रण- परामर्शीय साक्षात्कार के मध्य में उपबोधक को वार्तालाप पर नियंत्रण रखना चाहिये। यदि उपबोध्य को अधिक स्वच्छन्दता दी जायेगी तो उपबोधक आवश्यक सूचनायें एकत्रित करने में असमर्थ रहेगा। वार्तालाप में यदि उपबोध्य मुख्य बिन्दु से भटकना आरम्भ करता है तो उपबोधक को वार्तालाप के मध्य में प्रश्न पूछकर उपबोध्य को पुनः मुख्य विषय पर लाना चाहिये।

परामर्श का मध्य भाग अधिक महत्त्वपूर्ण होता है, अतः उपबोधक को इस अवस्था में अधिक सचेत रहने की आवश्यकता है। उसको अपने पास पेन और नोटबुक रखनी चाहिये ताकि उपबोध्य द्वारा वर्णित मुख्य सूचनाओं लिखा जा सके। उपबोध्य को अपनी स्मरण शक्ति पर अधिक निर्भर नहीं रहना चाहिये।

( 3 ) अन्तिम अवस्था

परामर्श को समाप्त करने की अवस्था द्विधात्मक होती है। परामर्श को किस अवस्था पर समाप्त किया जाये, यह निर्णय लेना उपबोधक के लिये कठिन हो जाता है। कभी-कभी उपबोधक भी परामर्श में रुचि के कारण वार्तालाप में इतना तन्मय हो जाता है कि उसको समय का ध्यान ही नहीं रहता है। अतः उपबोधक को समय का ध्यान रखते हुये परामर्श कार्य समाप्त करने में कुशल होना चाहिये। परामर्श का समापन ऐसा हो कि उपबोध्य परामर्शीय वार्तालाप से सन्तुष्टि अनुभव करे। समापन का दूसरा रूप ऐसा हो सकता है जिसमें उपबोध्य को यदि पुनः बुलाना है तो उसको आज का कार्य यहीं समाप्ति का संकेत देकर एक सप्ताह बाद पुनः मिलने का समय निश्चित कर धन्यवाद सहित विदा कर सकते हैं।

( 4 ) अनुवर्ती अवस्था

परामर्श कार्य में सदैव अनुवर्ती अध्ययन की उपेक्षा होती है। एक या अधिक साक्षात्कार के बाद प्रायः परामर्श कार्य बन्द कर दिया जाता है और यह जानने का प्रयास नहीं किया जाता कि उपबोध्य परामर्श से कितना लाभान्वित हुआ है। इस अनुवर्ती क्रिया द्वारा उपबोधक अपने परामर्श कार्य का मूल्यांकन कर सकता है।

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shubham yadav

इस वेब साईट में हम College Subjective Notes सामग्री को रोचक रूप में प्रकट करने की कोशिश कर रहे हैं | हमारा लक्ष्य उन छात्रों को प्रतियोगी परीक्षाओं की सभी किताबें उपलब्ध कराना है जो पैसे ना होने की वजह से इन पुस्तकों को खरीद नहीं पाते हैं और इस वजह से वे परीक्षा में असफल हो जाते हैं और अपने सपनों को पूरे नही कर पाते है, हम चाहते है कि वे सभी छात्र हमारे माध्यम से अपने सपनों को पूरा कर सकें। धन्यवाद..

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