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व्यावहारिक अनुसन्धान की परिभाषा
व्यावहारिक अनुसन्धान- व्यावहारिक शोध का सम्बन्ध सामाजिक जीवन के व्यावहारिक पक्ष से होता है और वह सामाजिक समस्याओं के सम्बन्ध में ही नहीं बल्कि सामाजिक नियोजन, सामाजिक अधिनियम, स्वास्थ्य, रक्षा सम्बन्धी नियम, धर्म, शिक्षा, न्यायालय, मनोरंजन आदि विषयों के सम्बन्ध में भी अनुसन्धान करता है तथा इनके सम्बन्ध में कारण सहित व्याख्या व तर्कयुक्त ज्ञान से हमें समृद्ध करता है। परन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं है कि व्यावहारिक शोध का कोई सम्बन्ध समाज-सुधार से सामाजिक व्याधियों के उपचार से, सामाजिक कानूनों को बनाने या सामाजिक नियोजनों को व्यावहारिक रूप में प्रस्तुत करने से नहीं होता है। वह स्वयं यह सब कुछ नहीं करता है, अपितु यह काम तो समाज सुधारक, नेता, प्रशासक और अधिकारी का होता है। व्यावहारिक शोध का कार्य केवल व्यावहारिक जीवन से सम्बन्धित विषयों तथा समस्याओं के सम्बन्ध में हमें यथार्थ ज्ञान प्रदान करना है। व्यावहारिक शोध में भी अनुसन्धान के उन्हीं उपकरणों का प्रयोग किया जाता है जिनका सम्बन्ध मौलिक अथवा विशुद्ध विज्ञान से है, और इसलिये इनके द्वारा प्रस्तुत व्यावहारिक ज्ञान बड़े महत्व का तथा साथ ही यथार्थ सिद्ध होता है। व्यावहारिक शोध हमारे व्यावहारिक जीवन में आने वाली समस्याओं तथा अन्य घटनाओं पर नियन्त्रण प्राप्त करने अथवा उनका उपचार करने के लिये आवश्यक सिद्धान्तों के सम्बन्ध में हमारी चिन्तन प्रक्रिया को सक्रिय कर सकता है। इसका कारण यह है कि अक्सर देखा गया है कि आश्चर्य रूप से प्रयोग सिद्ध व्यावहारिक खोज की व्याख्या अथवा विश्लेषण करने के मध्य अनुसन्धानकर्ता के निदान में सहायक होते हैं।
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व्यावहारिक अनुसन्धान प्रकार (Types of Applied Research)
व्यावहारिक अनुसन्धान के दो प्रमुख स्वरूपों का उल्लेख किया गया है। जिन्हें निदानात्मक अनुसन्धान तथा क्रियात्मक अनुसन्धान कहा जाता है –
1. निदानात्मक अनुसन्धान (Diagonostic Research) – निदानात्मक अनुसंधान व्यावहारिक अनुसन्धान का वह प्रकार है जिसका उद्देश्य किसी समस्या के कारणों को ज्ञात करके उनका निदान करना होता है। समस्या के कारणों को समझने और उनका निदान अनुसन्धान द्वारा मनमाने तरीके से नहीं किया जाता अपितु वैज्ञानिक पद्धतियों की सहायता से पहले तथ्यों को तटस्थ रूप से संग्रहित किया जाता है तथा इसके पश्चात् प्राप्त तथ्यों के सन्दर्भ में भी समस्या का निदान करने के लिए सुझाव दिये जाते हैं। अध्ययनकर्त्ता द्वारा समस्या का निदान स्वयं नहीं किया जाता अपितु उसके द्वारा दिये गये सुझावों के आधार पर यह कार्य प्रशासकों अथवा सामाजिक सेवकों द्वारा किया जाता है।
उदाहरण यदि कोई शोध कार्य श्रमिक असन्तोष के कारणों को मालूम करने और उन कारणों पर आधारित समस्या का व्यावहारिक समाधान प्रस्तुत करने के लिए किया जाए, तब इसे निदानात्मक अनुसन्धान कहा जायेगा।
2. क्रियात्मक अनुसन्धान- क्रियात्मक अनुसन्धान व्यावहारिक अनुसन्धान से अनेक अर्थ में मिलता-जुलता है क्योंकि इसका भी सम्बन्ध सामाजिक जीवन की ऐसी समस्याओं तथा घटन होता है जिनका कि क्रियात्मक महत्व हो । जब सामाजिक शोध अध्ययन के निष्कर्षो को क्रियात्मक स्वरूप देने की किसी तात्कालिक अथवा भावी योजना से सम्बन्धित होता है, तो उसे क्रियात्मक अनुसंधान कहा जाता है। दूसरे शब्दों में, हम कह सकते हैं कि क्रियात्मक शोध वह अनुसन्धान है जो किसी सामाजिक समस्या या घटना के क्रियात्मक पक्ष पर अपना ध्यान केन्द्रित करता है और साथ ही अनुसन्धान के निष्कर्षों का प्रयोग विद्यमान सामाजिक अवस्थाओं में परिवर्तन लाने की योजना के एक भाग के रूप में करता है।
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क्रियात्मक अनुसन्धान में अनुसन्धानकर्त्ता को आरम्भ से ही कुछ विशिष्ट बातों का ध्यान सावधानीपूर्वक रखना पड़ता है, जो इस प्रकार हैं –
(i) अध्ययन के समय घटना अथवा समस्या के वास्तविक क्रिया पक्ष पर ध्यान- इसका अर्थ यह है कि जिस घटना का अध्ययन अनुसन्धानकर्ता कर रहा है उसमें अन्तर्निहित मानवीय क्रियाओं, उसके कारणों, आधारों व नियमों के प्रति वह अत्यधिक सचेत रहता है। यदि वह प्रजातीय पक्षपात का अध्ययन कर रहा है, तो वह यह समझने का प्रयत्न करेगा कि श्वेत प्रजाति के व्यक्ति श्याम प्रजाति के व्यक्तियों के प्रति किस तरह का व्यवहार करते हैं तथा उनके उन व्यवहारों का क्या कारण व आधार है। साथ-ही – साथ अनुसन्धानकर्त्ता उस समस्या से सम्बन्धित क्रियात्मक साधनों को प्राप्त करने का प्रयास करेगा। समस्या के चुनाव के सम्बन्ध में उस समस्या से सम्बन्धित प्राथमिक ज्ञान प्राप्त करने के सम्बन्ध में, उस घटना की वास्तविक क्रियाशीलता को प्राप्त करने में यहाँ तक कि तथ्यों के संकलन में भी क्रियात्मक साधनों का सहयोग सर्वाधिक लाभप्रद सिद्ध होता है।
(ii) समस्या अथवा घटना के सम्बन्ध में ज्ञान – क्रियात्मक अनुसन्धान में शोधकर्त्ता के लिए जरूरी है कि उसे समस्या अथवा घटना के सम्बन्ध में कुछ-न-कुछ ज्ञान अवश्य ही हो । यदि ऐसा नहीं है, तो उस घटना अथवा समस्या में अन्तर्निहित किसी भी क्रियात्मक पक्ष का यथार्थ अनुसन्धान उसके लिए सम्भव न होगा । अतः इस प्रकार के अनुसन्धान कार्य में अनुसन्धानकर्त्ता सम्पूर्ण घटना अथवा समस्या को और उनमें भाग लेने वाले व्यक्तियों या मानव समूहों के व्यवहार प्रतिमान को समझने का प्रयत्न करता है ।
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(iii) अधिकाधिक सहयोग की प्राप्ति इसका- अर्थ है कि अनुसन्धानकर्त्ता को निरन्तर इस बात का प्रयास करना पड़ता है कि अपने कार्य में कम से कम विरोध करना पड़े। क्रियात्मक शोध का प्रथम उद्देश्य विद्यमान दशाओं में परिवर्तन लाना होता है, हो सकता है कि इस समाज अथवा समूह में प्रकार के कुछ व्यक्ति या स्वार्थ समूह हों, जो इस परिवर्तन के पक्ष में न हों, क्योंकि परिवर्तन होने से इस उनके स्वार्थ को ठेस पहुँचेगी। इसलिए वे इस परिवर्तन का विरोध कर सकते हैं जिससे कि अनुसन्धान कार्य में बाधा उत्पन्न हो सकती है अतः अनुसन्धानकर्ता को इस तरह की परिस्थितियों को उत्पन्न करना। होता है जिससे कि विरोध की सम्भावनायें कम हों।
(iv) रिपोर्ट को प्रारम्भ में ही अन्तिम रूप में न देना- इसका अर्थ यह है कि क्रियात्मक अनुसन्धान की रिपोर्ट को एकाएक अन्तिम रूप देकर नहीं प्रस्तुत करना चाहिए। पहले अन्तरिम रिपोर्ट प्रस्तुत करनी चाहिये। जिससे कि उससे प्रभावित होने वाले लोगों अथवा समूहों की प्रतिक्रियाओं को जाना जा सके। उन प्रतिक्रियाओं के आधार पर अन्तिम रिपोर्ट में जरूरी सुधार या बदलाव करने की गुजांइश सदा रहनी चाहिये, तभी वह अन्तिम रिपोर्ट वास्तव में उपयोगी सिद्ध हो सकती है।
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