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संविधान में शक्ति की अवधारणा Concept Of Power In Constitution

संविधान में शक्ति की अवधारणा Concept Of Power In Constitution

भूमिका

शक्ति की अवधारणा-शक्ति का प्रयोग रोजमर्रा के जीवन में व्यापक रूप में होता है। स्वाभाविक एवं राजनीति, बातचीत में भी शक्ति की केन्द्रीय भूमिका रहती है। शीत युद्ध दो महाशक्तियों के बीच का संघर्ष था, भारत एक उभरती हुई शक्ति है, लोकतंत्र में शक्ति जनता के हाथों में होती है; यह सब कुछ ऐसे वक्तव्य हैं, जो रोजाना की राजनीतिक बातचीत में प्रयोग होते रहते हैं। परन्तु जब हम इन वक्तव्यों की गहराई में उतरते हैं तो शक्ति के बारे में भ्रम की स्थिति उत्पन्न होती है। एक तो भाषा में इस शब्द का उपयोग इतने व्यापक स्तर पर होता है कि इसका अर्थ निश्चित कर पाना कठिन हो जाता है। दूसरी ओर शक्ति राजनीतिक सिद्धांत में केन्द्रीय भूमिका में है। इसलिए राजनीति सिद्धांत को समझने के लिए शक्ति के सिद्धांत को समझना महत्वपूर्ण है। कभी-कभी तो राजनीति की परिभाषा भी शक्ति के माध्यम से दी जाति है।शक्ति की परिकल्पना, राजनीति शास्त्र के अन्य केन्द्रीयराजनीतिक सिद्धांतों को समझने के लिए भी आवश्यक है।राजनीतिक सिद्धांत के विषय के अंतर्गत, शक्ति की अवधारणा अन्य केन्द्रीय अवधारणाओं से जुडीभी हुई है। वेबर ने राज्य को परिभाषित करते हुए कहा कि राज्य के पास बल का एकाधिकार होता है। यहाँ पर यह प्रश्न उठता है कि किस प्रकार से यह बलवैध हो पाता है। जब हम राजनीतिक सिद्धांत में स्वतंत्रता की अवधारणा पर बात करते हैं, तो वह विमर्श मुख्य रूप से इस प्रश्न के आसपास होता है कि राज्य को जनता के जीवन में हस्तक्षेप करने का कितना अधिकार हो, और जनता के पास राज्य का प्रतिरोध करने की कितनी शक्ति है । न्याय एवं समानता का विचार भी शक्ति के असमान बटवारे को लेकर ही विमर्श करता है । लोकतंत्र की अवधारणा भी शक्ति को जनता को देनी की बात पर आधारित है। एलस्टर नाम के विद्वान का मत है कि, शक्ति के सिद्धांत का राजनीति में वैसा ही महत्त्व है, जैसा कि उपयोगिता के सिद्धांत का अर्थशास्त्र में। ऊपर किये गए चर्चा से यह पता चलता है कि शक्ति का सिद्धांत राजनीति शास्त्र केसबसे महत्वपूर्ण सिद्धांतों में एक है।

साधारणतः शक्ति वह सामर्थ्य या सामर्थ्यों का समूह है, जिसके द्वारा एक कर्ता दूसरे कर्ता अथवा घटनाक्रम को प्रभावित करके अपने लक्ष्यों या हितों की प्राप्ति करता है।

 

Concept Of Power In Constitution – Part-1 by Vivek sir

Concept Of Power In Constitution – Part-2 by Vivek sir

शक्ति शब्द के व्यापक उपयोग को देखते हुए यह प्रश्न उठता है कि, शक्ति के सिद्धांत का अध्ययन किस प्रकार से किया जाये। साधारण जीवन में शक्ति, राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक इत्यादि सन्दर्भों में होती है । परन्तु यहाँ हमारा बल राजनीतिक एवं सामाजिक सन्दर्भों पर है। राजनीतिक सिद्धांतों के अंतर्गत भी शक्ति के बारे में मतैक्य नहीं है।

शक्ति के विभिन्न विचारक, वेबर, डाहल, फूको, आरेन्ट इत्यादि एक दुसरे के विचारों से सहमत नहीं दिखते । इस असहमति का एक प्रमुख कारण शक्ति के उपयोग से संबद्ध है। अगर हम वितगेंस्टीन के शब्दों में कहें तो शक्ति एक ‘पारिवारिक समरूप’ सिद्धांत है। ऐसे सिद्धांतों का कोई एक मूलतत्व नहीं होता, अपितु वे भिन्न सिद्धांतों के मिले जुले प्रतिफल होते हैं। इसलिए शक्ति का अध्ययन करते समय यह ध्यान रखना आवश्यक है कि शक्ति, भिन्न-भिन्न प्रकार के सामाजिक घटनाक्रमों की ओर इंगित करता है, और उन में से प्रत्येक किसी खास सन्दर्भ में विमर्ष कर रहा होता है। प्रसिद्ध विद्वान लुकसका कहना है कि शक्ति की विवेचना, किसी खास हित को ध्यान में रखकर की जाती है । एलन बॉल ने भी शक्ति की अवधारणा को ‘अनोखे रूप से जटिल अवधारणा’ करार दिया है। माइकल ओकसाट का मानना है कि शक्ति शब्द, राजनीतिक शब्दों में सबसे अधिक दुरूपयोग में आता है।

Concept Of Power In Constitution – Part-3 by Vivek sir

मूल रूप से शक्ति की अवधारणा की समस्या का कारण उसकी परिभाषा, कार्य, गुण, प्रक्रिया, इत्यादि के बारे में विद्यमान असहमति है। समाज विज्ञानं के विश्वकोष में शक्ति की अवधारणा से सम्बंधित पाँच प्रकार के मुख्य विवादों को बताया गया है-

  1. शक्ति का स्रोत क्या है? क्या यह वैयक्तिक क्रियाकलापों पर निर्भर है, या फिर यह वृहत सामाजिक संरचना की उपज है।
  2. क्या शक्ति संसाधन या क्षमता है जो सुप्त रहती है और सिर्फ प्रयोग के समय ही अस्तित्व में आती है।
  3. क्या शक्ति कुछ निश्चित इक्षित लक्ष्यों को पाने का सामर्थ्य है या फिर यह शक्ति का उपयोग करने वाले तथा जिस पर शक्ति का उपयोग हो रहा है उनके अंतर्संबंध को इंगित करता है।
  4. क्या शक्ति हमेशा ही प्रभुत्व, निग्रह एवं निरोध के साथ होती है या फिर वह सम्मति पर भी आधारित हो सकता है।
  5. क्या हम सिर्फ वैसे घटनाक्रमों को शक्ति के उदाहरण के रूप में देख सकते हैं जहाँ पर सिर्फ दिखाई देने वाले परिणामों पर ही नजर होती है या फिर वैसे परिणामों पर भी ध्यान देना चाहिए जो गौण हैं।

जब हम शक्ति पर विवेचना करेंगे तो पायेंगे की भिन्न-भिन्न विद्वानों के मतों में ऊपर दिए गए विवादों की झलक मिलती है।

  1.       शक्ति क्या है ?

शक्ति’ शब्द अंग्रेजी भाषा के शब्द POWER का हिंदी अनुवाद है। ‘पॉवर’ शब्द की उपज लैटिन शब्द पोटेरे (Potere) से होती है, जिसका अर्थ है क्षमता । ज्यादातर शब्दकोषों में शक्ति की परिभाषा उस सामर्थ्य या क्षमता से दी जाती है, जो दुसरे को प्रभावित कर सके। इसलिए हम शक्ति की एक साधारण परिभाषा यह दे सकते हैं कि शक्ति वह सामर्थ्य या सामर्थ्यों का समूह है जिसके द्वारा एक करता दूसरे व्यक्ति या घटनाक्रम को प्रभावित करके अपने हितों या लक्ष्यों की प्राप्ति करता है। हम कुछ विद्वानों द्वारा शक्ति की दी गई परिभाषाओं पर दृष्टि डालेंगे।

राबर्ट डाहल– क के पास ख के ऊपर उस हद तक शक्ति है यहां तक वह ख को ऐसा करने पर मजबूर करे जैसा ख ने अपने आप नहीं किया होता।

फूको का कहना है कि शक्ति एक चीज ही बल्कि एक संबंध है । यह सिर्फ दमनकारीनहीं बल्कि उत्पादक, निर्णायक और फलप्रद भी है। शक्ति पूरे सामाजिक व्यवस्था में फैली हुई है।

लुकस का कहना है कि कर्ता कशक्ति का प्रयोग तब करता है जब वह ख को अपने हित सेअलग  काम  करने  के लिये बाध्य  करता है।

इस प्रकार हम  देखते हैं की शक्ति की भिन्न परिभाषायें है,परन्तु  हम  इनमे  से कुछ  बातों  को चिह्नित कर सकते हैं जो शक्ति के सिद्धांत का गुण बताते हैं।

(क) शक्ति का सिद्धांत संबंधपरक है। इसका अर्थ यह हुआ कि शक्ति का उपयोग हमेशा एक संबंध में होता है । जहाँ शक्ति का उपयोग हो रहा है, वहाँ  अवश्य  ही  कोई होगा जिसपर  शक्ति  का प्रयोग हो रहा है ।

(ख) शक्ति हमेशा हि किसी परिस्थिति में ज्यादा या कम होती है।

(ग)  शक्ति द्विपक्षीय होती है। एक कर्ता जो शक्ति का उपयोग करता है उसे उनके हितों और मांगों का भी ध्यान रखना होता है, जिस पर शक्ति का उपयोग हो रहा है। लासवेल एवं कापलान का मानना है कि जिनके क्रियाकलापों पर शक्ति के प्रयोग का असर होता है वे भी निर्णय प्रक्रिया में हिस्सेदार हैं- क्योंकि उनकी सहमती या असहमति यह निर्धारित करता है कि कोई निर्णय है या नहीं है।

(घ)   शक्ति क्रियाशील एवं विशिष्ट होती है । इसका अर्थ है कि शक्ति काल देश के अनुसार बदल सकती है।

Concept Of Power In Constitution – Part-4 by Vivek sir

 2.      शक्ति के सिद्धांत का विश्लेषण

शक्ति का प्रयोग अभिलाषा या इच्चा पर निर्भर है। जो शक्ति का प्रयोग करते हैं, वो इसका प्रयोग करने का चुनाव करते हैं तो शक्ति का प्रयोग होता है। उसी प्रकार से जिन पर शक्ति का प्रयोग हो रहा होता है, वह उनकी इच्चा एवं हित के विपरीत होना चाहिए। शक्ति अप्रकट एवं प्रकट दोनों प्रकार से देखा जाता है । जिस कर्ता के पास अप्रकट एवं प्रकट कोई भी शक्ति होती है वह दूसरे कर्ता के व्यवहार में बदलाव लाने में सक्षम हो सकता है। शक्ति बहुत सारे रूपों में प्रकट होती है, परन्तु शक्ति को उसके किसी एक रूप के साथ उलझाकर देखना उचित नहीं है। रालेन ग्रिग्रस्बी ने अपनी पुस्तक में शक्ति के चार रूपों की बात की है। उनके अनुसार राजनीतिक संबंध के क्षेत्र में ये रूप कभी भी अपने शुद्ध संस्करण में नहीं मिलते । ये हमेशा मिले-जुले ही दीखते हैं। ये चार रूप हैं :

Force- बल

Persuasion – अनुनय

Manipulation – छलयोजना

Exchange – विनिमय

बल : शक्ति का उपयोग, भौतिक साधनों द्वारा होता है तब वह बल कहलाता है। यहाँ वह कर्ता जो शक्ति का प्रयोग करता है दूसरे कर्ता या कर्ताओं के लिए शारीरिक बाधाएं उत्पन्न करता है। उदाहरण के लिए : शारीरिक हिंसा, दंगा फसाद, आतंकवादी गतिविधियाँ, बहिष्कार, घेराव, बंद बलात्कार, परिवहन रोकना इत्यादि । मूल रूप से जिन पर शक्ति का प्रयोग हो रहाहै, उनकी स्वतंत्रता को रोकना है। बल प्रयोग काफी मात्र में देखने को मिलता है। वहीँ गाँधी और मार्टिन लूथर किंग जैसे नेताओं ने अहिंसक प्रयोग के असफल उदाहरण भी प्रस्तुत किए हैं।

अनुनय : अनुनय गैर शारीरिक शक्ति है। यहाँ पर जो कर्ता शक्ति का प्रयोग कर रहा है, वह अपने हितों एवं उद्देश्यों को साफ़-साफ़ उसको बताता है, जिस पर शक्ति प्रयोग होता है। यहाँ पर जो कर्ता शक्ति का प्रयोग कर रहा है, करता (जिस पर शक्ति का उपयोग हो रहा है) के साथ किसी बात मेंसही या गलत होने पर विवाद करता है? एवं कर्त्ता को वैसा करने के लिए राजी करता है, जैसा उसने खुद से नहीं किया होता। अनुनय हमेशा गैर-हिंसक होता है। लोकतान्त्रिक राजनीति मे अनुनय वृहद रूप से उपयोग मे लाया जाता है। समर्थन-जुटाव(lobbying), तर्क-वितर्क, भाषा देना, पत्र लिखना,समर्थन पत्र, जैसी प्रक्रियाओं मेंअनुनयको देख सकते हैं।

छलयोजना: यह अनुनय की तरह है और गैर-शारीरिक एवं अहिंसक होता है। परंतु अनुनय से अलग, यहाँ पर शक्ति का प्रयोग करने वाला कर्ता अपने हितों एवं उद्देश्यों को उजागर नहीं करता। इसलिए जिन कर्त्ताओं पर शक्ति का प्रयोग होता है, वे इसके प्रयोग से अनभिज्ञ रहते हैं। ऐसे में छलयोजना का विरोध करना नामुमकिन प्रतीत होता है, क्योंकि कोई किसी ऐसी प्रक्रिया का विरोध कैसे कर सकता है जिसके बारे मे उसे पता ही नहीं है। छलयोजना का प्रयोग राजनीति में विद्यमान है परंतु इसके  प्रयोग को सिद्ध करना कठिन है।

विनिमय: इस प्रकार के शक्ति-प्रयोग में प्रलोभन का उपयोग होता है। इसमें एक कर्त्ता किसी उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए किसी दूसरे कर्त्ता को कुछ देता है। यहाँ पर शक्ति का प्रयोग कर रहा करता दूसरे कर्त्ता से कुछ ऐसा करवाता है जो दूसरे कर्त्ता ने खुद नही किया होता। परंतु दूसरा कर्त्ता  ऐसा अपनी इच्छा से तब करता है जब पहला कर्त्ता उसे इस कार्य को करने के लिए कुछ देता है। यहाँ पर शक्ति प्रयोग इसलिए हुआ की दूसरा कर्त्ता  की ईच्छा के अनुसार कार्य करने पर प्रलोभन के कारण विवश होता है। ऐसी स्थिति में शक्ति प्रयोग को समझना कठिन होता है।

Concept Of Power In Constitution – Part-5 by Vivek sir

4. शक्ति एवं प्राधिकार:    

      शक्ति एवं प्राधिकार दो ऐसे शब्द एवं अवधारणाएँ हैं जो कि अदल-बदल कर उपयोग  होते हैं तथा इन दोनों के अंतर को लेकर भ्रम विद्यमान है। कभी-कभी तो इसके अदल-बदल उपयोग से ऐसा प्रतीत होता है कि दोनों का अर्थ एक ही है। इस भ्रम कि स्थिति का कारण है कि, दोनों के बीच अंतर होने के बावजूद भी दोनों में कभी न टूटने वाली कड़ी है। हम लोगों ने यह देखा है कि शक्ति, प्रभावित करने की क्षमता को कहते हैं। प्रभाव, प्राधिकार में भी है परंतु यहाँ हम प्रभावित करने के अधिकार के बारे में पूछते हैं। जो लोग दूसरों को प्रभावित कर रहे हैं, क्या उनकोऐसा करने का अधिकार है। यही अधिकार, प्राधिकार को परिभाषित करता है। यह अधिकार भिन्न प्रकार  के स्रोतों से प्राप्त हो सकता है। अगर हम एक लोकतान्त्रिक पद्धति के राजनीतिक प्राधिकार कि बात करें, तो वह जनता कि इच्छा एवं संविधान से मिलता है। वहीं एक धर्म-राज्य में राजनीतिक प्राधिकार धर्म ग्रन्थों(जैसे कुरान, बाइबल) से मिलता है। यह स्रोत, प्राधिकार को वैधता प्रदान करते हैं। वैधता का अर्थ है, राजनीतिक शक्ति का किसी भी समूह में ऐसा उपयोग, जो उस समूह के लोगों द्वारा स्वेच्छा से स्वीकार किया जाता है।

प्राधिकार शक्ति का वह प्रयोग है जिसे वैध माना जाता है। वैधता शक्ति के प्रयोग करने वाले के पास भिन्न-भिन्न स्रोतों से आ सकती है। अर्थात जो शक्ति का प्रयोग कर रहा है, वह उस प्रयोग के लिए उचित पात्र है।

      कभी-कभी ऐसा देखने में आता है कि एक समूह राजनीतिक शक्ति को हिंसक माध्यम से प्राप्त कर लेता है, परंतु वह फिर अपनी वैधता का निर्माण करने के लिए भिन्न प्रकार के स्रोतों का सहारा लेता है। ऐसे में अगर जनता नए शासकों के प्राधिकार को स्वीकार नहीं करती तो या तो नए शासक शक्ति को छोड़ देते हैं, या फिर वे विरोधियों का दमन करते हैं। प्राधिकार के लिए सबसे महत्वपूर्ण बात यह है की जिनपर शक्ति का उपयोग हो रहा है, वे शक्ति के उपयोग एवं उपयोग करने वाले को सही मानते हैं।

महान जर्मन समाजशास्त्री मैक्स वेबर ने यह समझाने का प्रयास किया है कि क्या जनता शक्ति के प्रयोग को सही स्वीकार करती है। वेबर ने तीन प्रकार के प्राधिकारों की चर्चा की है,जहां तीनों भिन्न-भिन्न स्रोतों से उपजते हैं। वेबर का मानना था कि प्राधिकार साधारणतः लोगों का शक्ति के सही होने में विश्वास है। इसलिए यह बात महत्वपूर्ण नहीं है की वह अधिकार कहाँ  से आता है। वेबर के अनुसार प्राधिकार , वैध शक्ति को ही कहते हैं।

परंपरागत प्राधिकार–  परंपरागत प्राधिकार की वैधता, ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, धार्मिक और प्रथागत नियमों और कायदों पर निर्भर होती है। सैद्धांतिक आधार पर ऐसा प्राधिकार बहुत लंबेसमयसे चला आ रहा है । और पीढ़ी दर पीढ़ी ने इस प्राधिकार को स्वीकार किया होता है। परंपरागत प्राधिकार के उदाहरण धार्मिक समुदायों एवं जनजातीय समाजों मे देखने को मिलता है।

चमत्कारी प्राधिकार- इस प्रकार का प्राधिकार  वैयक्तिक गुणों से आता है। कुछ ऐसे लोग होते हैं जिनमे दूसरों को आकर्षित करने एवं बांधने की असाधारण क्षमता होती है। ऐसे व्यक्तिक गुणों के कारण दूसरे उनकी आज्ञापालन करते हैं। हालांकि चमत्कारी प्राधिकार सिर्फ नैसर्गिक प्रकृति का नहीं है। अधिकतर समय राजनीतिक नेता करिश्मा को गढ़ने का भी प्रयास करते हैं। अपना करिश्मा स्थापित करने के लिए वे मीडिया द्वारा अपनी छवि निखारने का प्रयास करते हैं। साथ ही साथ अपनी ‘कल्ट ऑफ पर्सनालिटी’ बनाने का प्रयास करे हैं। चमत्कारी प्राधिकार के कुछ मुख्य उदाहरण हैं: मुहम्मदसाहब, हिटलर, मुसोलिनी, गांधी, नासिर आदि।

तर्कसंगत-कानूनी प्राधिकार- इस प्रकार का प्राधिकार आधुनिक औधोगिक-नौकरशाही समाज का एक विशेष गुण है। ऐसे समाज में कुछ निश्चित नियमों के समूह होते हैं जो संगठन एवं पदों का निर्माण करते हैं और फिर प्राधिकार उन्ही पदों से व्युत्पन्न होता है। यहाँ पर लोग आज्ञापालन व्यक्ति का नहीं वरण अव्यक्तिगत विधि-शासन का करते हैं। आधुनिक समाज के ज़्यादातर राजनीतिक प्राधिकार इस प्रकार के प्राधिकार के उदाहरण हैं।

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shubham yadav

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