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शिक्षा के सामान्य लक्ष्य | General Goals of Education in Hindi

शिक्षा के सामान्य लक्ष्य
शिक्षा के सामान्य लक्ष्य

शिक्षा के सामान्य लक्ष्य- General Goals of Education in Hindi

शिक्षा के सामान्य लक्ष्य निम्नलिखित हैं-

1. जन्मजात शक्तियों का प्रगतिशील विकास (Progressive Development of Innate Powers)—प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री पेस्टालॉजी का कथन है कि “शिक्षा मनुष्य की जन्मजात शक्तियों का स्वाभाविक, सामंजस्यपूर्ण और प्रगतिशील विकास है।” प्रत्येक बालक प्रेम, जिज्ञासा, तर्क, कल्पना, आत्म-सम्मान आदि शक्तियों को लेकर जन्म लेता है और मनोवैज्ञानिकों के मतानुसार शिक्षा का मुख्य कार्य बालक की जन्मजात शक्तियों का विकास करना है । आजकल लगभग सभी शिक्षा के इस कार्य का समर्थन करते हैं।

2. मूल प्रवृत्तियों का नियन्त्रण, मार्गान्तीकरण एवं शोधन (Control, Redirection and Sublimation of Instincts)— प्रत्येक बालक में जिज्ञासा, आत्म प्रदर्शन, सामूहिक जीवन आदि मूल प्रवृत्तियाँ होती हैं। ये मूल प्रवृत्तियाँ जन्मजात होती हैं, इन्हें सीखा नहीं जाता। ये मनुष्य के जीवन में सदैव बनी रहती हैं। लेकिन यदि मनुष्य, मात्र मूल प्रवृत्तियों के अनुसार अपने जीवन को संचालित करे तो उसका यह जीवन पशुओं से भिन्न नहीं होगा। इसलिए मूल प्रवृत्तियों के नियंत्रण, मार्गान्तीकरण एवं शोधन की अत्यन्त आवश्यकता है।

3. सन्तुलित व्यक्तित्व का विकास (Development of Balanced Personality)

वस्तुतः व्यक्तित्त्व के अन्तर्गत जीवन के सभी पक्ष आ जाते हैं, जैसे—शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक, नैतिक, संवेगात्मक आदि। शिक्षा द्वारा व्यक्तित्त्व के इन सभी पक्षों का समन्वित व संतुलित विकास किया जाना चाहिये। इनमें किसी भी पक्ष के विकास में कमी रहने से व्यंक्तित्व का संतुलित विकास नहीं हो सकता। वस्तुतः जीवन में सफलता प्राप्त करने हेतु संतुलित व्यक्तित्व का विकास करना शिक्षा का सबसे महत्त्वपूर्ण उद्देश्य है ।

4. वयस्क जीवन की तैयारी (Preparation for Adult Life)- आज का बालक कल का नागरिक है अर्थात्, बालक बड़ा होकर नागरिक बनेगा। बड़े होकर नागरिक के रूप में उसके कुछ कर्त्तव्य, कुछ अधिकार तथा कुछ दायित्व भी होंगे। शिक्षा का एक कार्य यह भी है कि वह बालक को इन सबके निर्वाह के योग्य बनाये। प्रसिद्ध कवि मिल्टन के शब्दों में, “मैं पूर्ण शिक्षा उसी को कहता हूँ, जो मनुष्य को शांति और युद्ध के समय व्यक्तिगत और सार्वजनिक- दोनों प्रकार के सब कार्यों को उचित रूप से करने के योग्य बनाती है।”

5. सभ्यता व संस्कृति का संरक्षण (Preservation of Culture and Civilization)- प्रत्येक समाज की अपनी विशिष्ट संस्कृति और सभ्यता होती है जिस पर उसे गर्व होता है। दूसरे शब्दों में, प्रत्येक समाज के अपने रीति-रिवाज, परम्परायें, नैतिकता, धर्म और विश्वास आदि होते हैं और वह समाज इन्हें बनाए रखना चाहता है। वस्तुतः संस्कृति और सभ्यता ही किसी समाज की पहचान होती है। शिक्षा का कार्य इनका संरक्षण करना है। इसके साथ ही शिक्षा के माध्यम से इनका और भी विकास किया जाना चाहिये। ओटावे (Ottaway) के अनुसार, ,“शिक्षा का एक कार्य-समाज के सांस्कृतिक मूल्यों और व्यवहार के प्रतिमानों को अपने तरूण और कार्यशील सदस्यों को प्रदान करना है।”

6. राजनीतिक व राष्ट्रीय सुरक्षा (Political and National Security)— स्वतन्त्र होने के पश्चात् भारत पर चीन और पाकिस्तान के आक्रमण हो चुके हैं। आज भी हमारे देश पर न केवल विदेशी खतरे के काले बादल मंडरा रहे हैं वरन् अनेक प्रान्तों में आतंकवाद की आग से विनाशलीला हो रही है। ऐसी स्थितियों में शिक्षा का एक प्रमुख कार्य व्यक्तियों को इस सुरक्षा के लिये तैयार करना है। एच० मैन के अनुसार, “केवल शिक्षा से ही हमारी राजनीतिक सुरक्षा सम्भव है।”

7. चरित्र-निर्माण तथा नैतिक विकास (Character Formation and Moral Development)— कोई भी देश तभी उन्नति कर सकता है. जब उसके सभी नागरिक चरित्रवान हो, नैतिकता की कसौटी पर खरे उतरते हों। शिक्षा इस कार्य में महत्त्वपूर्ण योगदान देती है। डॉ० राधाकृष्णन के शब्दों में, “चरित्र, भाग्य है। चरित्र वह वस्तु है जिस पर राष्ट्र के भाग्य का निर्माण होता है। तुच्छ चरित्र वाले मनुष्य राष्ट्र का निर्माण नहीं कर सकते।” हरबर्ट के अनुसार, “शिक्षा के सम्पूर्ण कार्य को एक ही शब्द में प्रकट किया जा सकता है और वह शब्द है— नैतिकता। “

8. सामाजिक भावना का विकास (Inculcation of Social Feelings)— व्यक्ति और समाज का परस्पर अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है। समाज में रहकर ही व्यक्ति की उन्नति सम्भव है। यदि समाज नहीं है तो व्यक्ति भी नहीं है । इस दृष्टि से यह आवश्यक है कि व्यक्ति में सामाजिक भावना पल्लवित हो तथा वह भी समाज की भलाई के लिए कार्य करे । शिक्षा इस कार्य को विद्यालय की सहायता से सरलतापूर्वक पूरा कर सकती है। विद्यालय का यह दायित्व है कि वह ऐसे सामाजिक वातावरण को निर्मित करे जिससे बालक विभिन्न प्रकार की सामाजिक क्रियाओं में भाग ले सके तथा जिससे उनमें प्रेम, दया, सहनशीलता, सहानुभूति, सहयोग, परोपकार आदि सामाजिक गुण सहज में ही विकसित हो जायें ।

9. श्रेष्ठ नागरिकों का निर्माण (Creation of Good Citizens )- यदि किसी राज्य के नागरिक श्रेष्ठ होंगे तो वह राज्य भी श्रेष्ठ होगा। श्रेष्ठ नागरिक से तात्पर्य यही है कि उनमें सत्यता, ईमानदारी, कर्त्तव्यपरायणता, निःस्वार्थतता, देश भक्ति आदि के गुण विद्यमान। ऐसे नागरिकों से ही राज्य उन्नति कर सकता है। अतः शिक्षा का यह एक प्रमुख कार्य है कि वह व्यक्तियों में इन गुणों का संचार करके उन्हें उत्तम नागरिक बनाये। वस्तुतः किसी भी सार्वजनिक शिक्षा-व्यवस्था का मुख्य कार्य-छात्रों को राज्य में नागरिकता के दायित्वों और कर्त्तव्यों को निभाने के लिये तैयार करना है।

10. सामाजिक सुधार (Social Reforms)- बालक की शिक्षा-व्यवस्था समाज द्वारा इसलिए की जाती है कि बालक न केवल उसके अनुकूल बने वरन् वह समाज के सर्वांगीण उत्थान में तथा सामाजिक विषमताओं को दूर करने में अपना भरपूर एवं सार्थक योगदान भी करे। जॉन ड्यूवी के अनुसार, ‘ “शिक्षा में अति निश्चित और अल्पमत साधनों द्वारा सामाजिक और संस्थागत उद्देश्यों के साथ-साथ समाज के कल्याण, प्रगति और सुधार में रुचि का पुष्पित होना पाया जाता है।”

संक्षेप में, शिक्षा के उद्देश्य मात्र यहीं तक सीमित नहीं है । शिक्षा का कार्य-क्षेत्र अत्यन्त व्यापक है । इसके कार्य-क्षेत्र के अन्तर्गत वे सभी बातें आती हैं जो व्यक्ति को उचित समय पर उचित प्रकार से उचित कार्य करने की प्रेरणा देती हैं। लेकिन उचित कार्य की व्याख्या करना एक दुष्कर कार्य है क्योंकि देश, काल और परिस्थितियों के सन्दर्भ में ये कार्य भी परिवर्तित होते रहते हैं। इसके अतिरिक्त शिक्षा के कार्यों को इसलिये भी निर्धारित नहीं किया जा सकता कि शिक्षा कोई स्थिर प्रक्रिया न होकर गतिशील अथवा निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया है । डॉ० जाकिर हुसैन के अनुसार, “शिक्षा की प्रक्रिया सदैव चलने वाली प्रक्रिया है, जिसमें यात्रा उतनी ही महत्त्वपूर्ण है, जितना कि निर्दिष्ट स्थान पर कोई कभी पहुँचता नहीं है । अतः शिक्षा के प्रत्येक मंजिल की अपनी विशेषता और महत्त्व होता है ।” डॉ० जाकिर हुसैन पुन: कहते हैं कि- “शिक्षा का कार्य बालक के मस्तिष्क को शुद्ध, नैतिक और बौद्धिक मूल्यों का अनुभव करने में इस प्रकार सहायता देना है कि वह इन मूल्यों से प्रेरित होकर इनको सर्वोत्तम प्रकार से अपने कार्य और अपने जीवन में प्राप्त करें।”

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shubham yadav

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