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संज्ञान का अर्थ (Meaning of Cognition )
संज्ञान का क्षेत्र तथा महत्व काफी व्यापक है। इसका समान्य आशय यह है कि व्यक्ति ने है अपने तथा पर्यावरण के बारे में किस प्रकार का मानसिक मानचित्र निर्मित किया है। व्यक्ति का मानचित्र जितना ही अधिक गहन, वस्तुनिष्ठ, तार्किक, संगठित एवं सूक्ष्म होगा, उसका व्यवहार भी पर्यावरण के प्रति उतना ही अधिक उपयुक्त होगा।
संज्ञानात्मक प्रक्रिया का उपयोग जीवन के हर क्षेत्र में होता है। संवेदना, प्रत्यक्षीकरण, अधिगम, चिन्तन, समस्या समाधान इत्यादि जैसी उच्च मानसिक प्रक्रियाओं में इसका विशेष महत्त्व है। संज्ञानात्मक क्षमता की कमी से व्यक्ति को समायोजन में कठिनाई होती है। यह क्षमता आयु, शिक्षा एवं पूर्वानुभवों आदि में वृद्धि से बढ़ती है।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि संज्ञानात्मक योग्यता एक अर्जित योग्यता है। बालक के सामाजीकरण के साथ-साथ संज्ञानात्मक योग्यता का भी विकास होता रहता है।
शैफर एवं किप (2007) ने लिखा है, “संज्ञानात्मक विकास का आशय बच्चों में समय के साथ होने वाली मानसिक योग्यताओं में परिवर्तन से है, जैसे-अवधान केन्द्रण, प्रत्यक्षीकरण, अधिगम चिन्तन एवं स्मरण इत्यादि।”
स्टॉट (1975) ने लिखा है, “समझ एवं प्रभाविकता के साथ कार्य करने एवं बाह्य पर्यावरण के साथ सुविधाजनक ढंग से व्यवहार करने की योग्यता की संज्ञान है। ”
संज्ञान की विशेषताएँ (Characteristics Of Cognition)
संज्ञान के स्वरूप को और भी ग्राह्य बनाने के लिए इससे सम्बन्धित कुछ तत्वों का उल्लेख किया जा सकता है।
1. इसमें प्रतीकों (Symbols) का उपयोग होता है।
2. संज्ञानात्मक विकास में चिन्तन, कल्पना, स्मृति एवं पूर्वानुभवों का योगदान होता है।
3. संज्ञान की प्रक्रिया अव्यक्त होती है। बाहर से इसका प्रेक्षण सम्भव नहीं होता है, क्योंकि यह प्रक्रिया व्यक्ति के भीतर होती है।
4. संज्ञान एक विकासात्मक प्रक्रिया है।
5. इसमें अन्तरण का गोचर प्रदर्शित है।
6. संज्ञान विकास में तार्किक चिन्तन का विशेष महत्व है। इस योग्यता में वृद्धि के परिणामस्वरूप संज्ञानात्मक योग्यता में भी वृद्धि होती है।
7. संज्ञान एक अर्जित योग्यता है।
8. बच्चों का संज्ञान सरल और वयस्कों का जटिल होता है।
9. संज्ञानात्मक संरचना में परिवर्तन होता रहता है।
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