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संविधानवाद के आधार
संविधानवाद के प्रमुख आधार निम्नलिखित हैं-
(1) संस्थाओं के ढाँचे और प्रक्रियाओं पर मतैक्य- आम नागरिकों में अपने देश की राजनीतिक संस्थाओं के ढाँचे और प्रक्रियाओं पर मतैक्य संवैधानिक सरकार के लिए विशेष महत्त्वपूर्ण है। यदि नागरिकों की बड़ी संख्या यह अनुभव करती हो कि सरकार का तंत्र उनके अहित में अन्यायपूर्ण ढंग से संचालित होता है तो वे सरकारी व्यवस्था को स्वीकार नहीं करेंगे। इससे सरकार की सत्ता क्षीण होगी और सरकार को जनता का समर्थन नहीं मिलेगा। अतः संस्थाओं के ढाँचे और प्रक्रियाओं पर नागरिकों में सामान्य ऐक्य आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य भी है।
(2) सरकार के आधर के रूप में विधि- शासन की आवश्यकता पर सहमति नागरिकों में इस बात पर सहमति पायी जानी चाहिए कि शासन के संचालन का आधार विधि का शासन होना चाहिए। अर्थात् सरकार मनमाने ढंग से सत्ता का प्रयोग न करे बल्कि सुनिश्चित रीतियों का ही प्रयोग करे जिनमें नागरिकों का पूर्ण विश्वास हो। यह सम्भव है कि विशेष परिस्थितियों में समाज राजनीतिक पद्धति को उन विशेष परिस्थितियों के समाधान के लिए पूर्ण सत्ता के प्रयोग के अधिकार को दे दे परन्तु उसमें भी मतैक्यता का होना आवश्यक है और यह तभी सम्भव हो सकता है जबकि नागरिकों को अपनी सरकार द्वारा किये हुए कार्यों में पूर्ण आस्था हो।
(3) समाज के सामान्य उद्देश्यों पर सहमति- संविधानवाद का एक महत्त्वपूर्ण आधार यह है कि नागरिकों में समाज के सामान्य उद्देश्यों पर सहमति पायी जानी चाहिए। यदि किसी भी परिस्थिति में उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए समाज के दृष्टिकोणों में मतैक्य नहीं है तो समाज में इस भिन्नता के कारणवश संघर्ष स्थिति, जिसे तनाव, खिंचाव, दबाव की स्थिति भी कहा जाता है, उत्पन्न हो जाती है, जिसके परिणामस्वरूप पद्धति में आस्था कम हो जाती है।
( 4 ) गौण लक्ष्यों व विशिष्ट नीति प्रश्नों पर सहमति- संविधानवाद की व्यवहार में उपलब्धि के लिए यह जरूरी है कि गौण उद्देश्यों व विशिष्ट नीति प्रश्नों पर भी समाज में सहमति हो कि इन पर असहमति वह प्रारम्भिक दशा है जो संविधानवाद के भवन को धराशायी करने की पृष्ठभूमि तैयार करती है। विशिष्ट नीति प्रश्नों पर असहमति से असंतोष की वह स्थिति उत्पन्न हो सकती है जो सहमति के अन्य क्षेत्रों में भी तनाव, संदेह और विरोध के बीच बो दे, जिससे संविधानवाद के संपूर्ण भवन में दरारें पड़ने लगें जो अन्ततः उसको कमजोर कर धराशायी करने का कारण बन जाये।
संविधानवाद के उपर्युक्त चारों आधार किसी भी राज्य में इसकी व्यावहारिक उपलब्धि की आवश्यक शर्त है। अगर किसी राजनीतिक व्यवस्था में यह आधार उपस्थित न हों तो संविधानवाद की व्यवस्था अधिक दिन स्थायी नहीं रह सकती है।
संविधानवाद के तत्त्व
पिनोक व स्मिथ ने संविधानवाद के चार प्रमुख तत्वों का उल्लेख किया है, जो इस प्रकार है-
(1) संविधान आवश्यक संस्थाओं की अभिव्यक्ति- वर्तमान राज्यों में संविधान की सजीवता का मापदण्ड ही यह है कि संविधान कहाँ तक सरकार की आधारभूत संस्थाओं व्यवस्थापिका, कार्यपालिका व न्यायपालिका तथा राजनीतिक दलों, समूहों व प्रशासकीय सेवाओं की समुचित व्यवस्था व स्थापना करता है। अगर किसी संविधान द्वारा आधारभूत राजनीतिक संस्थाओं की स्थापना व उनकी शक्तियों की स्पष्ट व्याख्या नहीं होती है तो ऐसी व्यवस्था में संविधानवाद सम्भव नहीं होता है।
(2) संविधान राजनीतिक शक्ति का प्रतिप्रबंधक- संविधान स्पष्ट रूप से की शक्तियों को नियंत्रित करे, यह आवश्यक है। इससे सरकारी क्रिया सुनिश्चित हो जाती है। सरकार जिससे शासित शासकों के स्वेच्छाचारी कृत्यों से बचे रहते हैं और शासन केवल विधि ही के अनुरूप संचालित होता रहता है। इसके लिए हर लोकतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था के संविधान में कुछ ऐसे प्रावधान किये जाते हैं, जो सरकार को हर समय व हर कदम पर नियंत्रित प्रतिबंधित करते हुए अपने अधिकार क्षेत्र में सीमित रखते हैं।
(3) संविधान विकास का निर्देशक- संविधान के लिए यह आवश्यक है कि वह वर्तमान राजनीतिक शक्ति के रूप में ही नहीं बल्कि भविष्य की राजनीतिक शक्ति के रूप में भी अपने को कायम रखे। इसके लिए जरूरी है कि वर्तमान राजनीतिक संघर्ष को प्रभावशाली ढंग से सीमांकन व ढाँचा स्थापित करे और भावी प्रगति के लिए विकासक्षम योजना प्रस्तुत करे। समय और परिस्थितियों के अनुसार सामाजिक मान्यताओं, मूल्यों व आदर्शों में भी परिवर्तन होता है। इन आस्थाओं को व्यवहार में लागू करने के लिए हर संविधान में अपनी योजना होनी चाहिए जिससे समाज को वह दिशा निर्देश दे सकें। यदि संविधान में ऐसी व्यवस्था नहीं है तो वह समाज की बदलती हुई मान्यताओं का प्रतीक नहीं रह जायेगा। इसलिए जरूरी है कि प्रत्येक संविधान वर्तमान में राष्ट्रीय प्रतिभा का प्रतिबिम्बिक हो और भविष्य के लिए भी वह निदेशक का काम करे।
(4) संविधान राजनीतिक शक्ति के संगठन के रूप में- संविधान केवल सरकार की सीमाओं की स्थापना ही नहीं करता अपितु सरकार की विभिन्न संस्थाओं में शक्तियों का अम्बरान्तीय व लम्बात्मक वितरण भी करता है। संविधान यह व्यवस्था भी करता है कि सरकार के कार्य अधिकारयुक्त रहे और स्वयं सरकार भी वैध रहे। अगर कोई संविधान सरकार के कार्यों को अधिकारयुक्त वं स्वयं सरकार को वैध नहीं बनाता तो ऐसी सरकार व संविधान अधिक दिन तक स्थायी नहीं रह सकते हैं तथा ऐसी राजनीतिक व्यवस्था में संविधानवाद राजनीतिक शक्ति का संगठन नहीं रहता।
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