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समाज से आप क्या समझते हैं? | समाज की परिभाषा

समाज से आप क्या समझते हैं
समाज से आप क्या समझते हैं

समाज से आप क्या समझते हैं?

जिस प्रकार बालू के एक-एक कण से मिलकर विशाल रेगिस्तान बनता है और पानी की एक-एक बूँद से महासागर बन जाता है, उसी प्रकार एक-एक व्यक्ति मिलकर समाज का निर्माण करते हैं। व्यक्तियों से समाज बनता है और समाज से एक सीमा तक व्यक्ति की पहचान भी बनती है। मनुष्य के समस्त हितों की पूर्ति हेतु समाज की आवश्यकता होती है क्योंकि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। अतः यह कहना सर्वथा उचित ही है कि समाज के अभाव में मनुष्य का स्वयं अपना कोई भी अस्तित्व नहीं रह जाता। मुख्य बात यह है कि मनुष्य जन्म से लेकर मृत्यु तक समस्त सामाजिक क्रियाकलापों में बना रहता है। अतः मनुष्य की शिक्षा भी सामाजिक हितों को लेकर पूर्ण होती है। व्यक्ति रूपी पत्तों को सिंचित करने के लिये समाज रूपी वृक्ष को पोषण प्राप्त होना अत्यन्त आवश्यक है क्योंकि वह सभी का पोषक है। व्यक्ति समाज से सम्पूर्ण हितों की प्राप्ति करता है। व्यक्ति की सभ्यता एवं संस्कृति के विकास का आधार समाज ही होता है। इसका मुख्य पहलू यह है कि मनुष्य अकेला नहीं बल्कि अन्य दूसरे मनुष्यों के साथ मिलकर आवास करता है। प्रसिद्ध दार्शनिक अरस्तू (Aristotle) ने यह कहा था कि “वह व्यक्ति जो समाज में नहीं रहता, वह या तो देवता है अथवा पशु ।” इसका अभिप्राय यह निकाला जा सकता है कि ऐसा मनुष्य जो किसी समाज में निवास नहीं करता, वह कोई असामान्य व्यक्ति हो सकता है। पर्वतीय गुफाओं में तपस्वी जीवन जीने वाला संन्यासी हो सकता है अथवा रोबिन्सन क्रूसो जैसा कथा नायक साधारण मानवों से पृथक् अपवाद के रूप में मान्य किया जा सकता है।

समाज की परिभाषा

समाजशास्त्रियों एवं चिन्तकों ने समाज को निम्नलिखित शब्दों में परिभाषित किया है-

(1) ओटावे (Ottaway) के अनुसार, “समाज एक प्रकार का समुदाय अथवा समुदाय के का एक अंग है, जिसके सदस्यों में सामाजिक चेतना के साथ-साथ, सामान्य उद्देश्य तथा मूल्यों के कारण एकता होती है।

(2) कालिंगवुड (Kaling wood) का मानना है कि, “समाज एक प्रकार का ऐसा समुदाय है, जिसके सदस्य अपनी सामाजिक जीवनचर्या के प्रति जागरूक तथा समान उद्देश्यों एवं जीवन-मूल्यों द्वारा समाज के साथ सम्बद्ध हों।”

इस प्रकार समाज अनेक व्यक्तियों का एक ऐसा समूह होता है, जिसके अन्तर्गत सामान्य रूप से शान्ति तथा पारस्परिक सहयोग की भावना का समावेश पाया जाता है, ऐसे समूह को समाज की संज्ञा से विभूषित किया जाता है। व्यापक अर्थ में व्यक्तियों के समस्त प्रकार के सम्बन्धों और संस्थाओं के समूह को समाज का नाम दिया जाता है। समाज का अस्तित्व बनाये रखने के लिये निम्नलिखित तत्त्वों की आवश्यकता होती है-

(1) समाज में अनेक सम्प्रदाय के व्यक्ति।

(2) समूह में निवास करने वाले समस्त व्यक्तियों की समान आवश्यकताओं की पूर्ति की इच्छा।

(3) समस्त आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये परस्पर निर्भरता और सहयोग।

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shubham yadav

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