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समावेशी शिक्षा में बदलाव | Transition from Segregation to Inclusion in Hindi

समावेशी शिक्षा में बदलाव
समावेशी शिक्षा में बदलाव

समावेशी शिक्षा में बदलाव (Transition from Segregation to Inclusion)

आज के आधुनिक युग में “शिक्षा सभी के लिये” का नारा अत्यधिक प्रचलित है। चूँकि भारत एक धर्म निरपेक्ष देश है, अतः यहाँ प्रत्येक जाति, धर्म तथा रंग-रूप के व्यक्ति रहते हैं जिस प्रकार यह शारीरिक रूप से एक दूसरे से अलग हैं ठीक उसी प्रकार से यह आपस में मानसिक रूप से भिन्न हैं। अतः इन बालकों की शिक्षा हेतु समावेशी शिक्षा का प्रावधान रखा गया।

समावेशी शिक्षा की व्यवस्था (Planning For inclusive Education)

विशिष्ट बालक का क्षेत्र बहुत व्यापक होने के कारण विशिष्ट शिक्षा का भी क्षेत्र अति व्यापक है। भिन्न-भिन्न प्रकार के विशिष्ट बालकों के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार की विशिष्ट शिक्षा की व्यवस्था करनी पड़ती है।

मुख्य रूप से विशिष्ट शिक्षा की व्यवस्था निम्नलिखित रूपों में की जानी चाहिए-

1. समावेशी शिक्षा हेतु परिभ्रामी अध्यापकों की व्यवस्था- विशिष्ट बालकों को उचित शिक्षा प्रदान करने के लिए विशिष्ट परिभ्रामी अध्यापकों की व्यवस्था करनी चाहिए । जिससे कि बालकों को शिक्षा व निर्देशन देने में अधिकतम सहायता प्रदान की जा सके। इस प्रकार इन समावेशी अध्यापकों के माध्यम से विशिष्ट बालकों की नियोग्यताओं को दूर किया जा सकता है।

2. समाज सेवियों तथा विशेषज्ञों की व्यवस्था- विशिष्ट बालकों को प्रशिक्षित करने के लिए समाज सेवियों तथा विशेषज्ञों की व्यवस्था करनी चाहिए। इनके लिए ये लोग अधिक लाभकारी सिद्ध होते हैं। विशिष्ट शिक्षा के क्षेत्र में ये विशिष्ट रूप से प्रशिक्षित होते हैं । सप्ताह में एक या दो बार यदि सम्भव हो सके तो प्रत्येक दिन इन विशिष्ट व्यक्तियों की सहायता व निर्देशन लेना चाहिए।

3. अतिरिक्त कक्षा की योजना- सामान्य विद्यालयों या कक्षाओं में पढ़ रहे विशिष्ट बालकों को अलग करके अतिरिक्त कक्षा की व्यवस्था करनी चाहिए जिसके फलस्वरूप मन्द बुद्धि तथा मानसिक रूप से पिछड़े बालकों का विकास सामान्य बालकों जैसा हो सके तथा वे कक्षा में बार-बार असफल न हो सकें। कक्षा शिक्षण के अतिरिक्त पहले या बाद में इस प्रकार की कक्षाओं की व्यवस्था करके उनकी कमियों को दूर किया जा सकता है। तथा सामान्य बालकों के साथ समायोजित किया जा सकता है।

4. समावेशी कक्षा योजना- जिस विद्यालय में शैक्षिक रूप से पिछड़े बालक, प्रतिभाशाली बालक, शारीरिक रूप से विकलांग बालक, सामाजिक रूप से विशिष्ट बालक आदि की संख्या अधिक हो, उस स्थिति में इन बालकों के साथ बैठाकर शिक्षा देना उचित नहीं है। प्रशिक्षित अध्यापकों, विषय विशेषज्ञों, निदेशकों के माध्यम से सहायक सामगी तथा यंत्रों की व्यवस्था करके उपयुक्त शिक्षा प्रदान की जानी चाहिए।

5. समावेशी विद्यालय योजना- यदि विशिष्ट बालक सामान्य विद्यालय के बालकों के साथ समायोजन करने में पूरी तरह असमर्थ होते हैं तो इस परिस्थिति में इन बालकों के लिए जैसे-चक्षुहीन, बहरे व गूँगे, बाल अपराधी, कुसमायोजित, उच्च प्रतिभा सम्पन्न, सृजनात्मक, समस्यात्मक आदि के लिए समावेशी विद्यालय की व्यवस्था करनी चाहिए। यद्यपि इसमें खर्च अधिक पड़ता है इसके लिए विशेष कक्षाओं व भवनों का निर्माण, प्रशिक्षित तथा योग्य अध्यापकों, चिकित्सक, निर्देशक, विशेष सहायक सामग्री की आवश्यकता पड़ती हैं।

6. आवासीय विद्यालय योजना- अन्धे, बहरे विकृत शरीर वाले, बाल अपराधी, मानसिक रूप से विकलांग व मन्द बुद्धि तथा सावेगिक रूप से असंतुलित आदि गम्भीर विशिष्ट बालकों के लिए आवासीय विद्यालय की योजना क्रियान्वित करनी चाहिए। इस प्रकार के विद्यालयों में शिक्षण-प्रशिक्षण मात्र कक्षाओं तक सीमित नहीं रहता बल्कि विशिष्ट बालकों के प्रत्येक कार्यों में निर्देशन के साथ अभ्यास कराये जाते हैं। बालक सहायक सामग्रियों का उचित प्रयोग करके बेकार समय का सदुपयोग करने का अभ्यास कर लेता है यद्यपि कि इस प्रकार की शिक्षा-व्यवस्था से बालक घर तथा समाज से अलग हो जाता है, लेकिन विशिष्टता में सुधार संभव हो जाता है।

स्थानीय स्तर पर समावेशी शिक्षा का आयोजन

स्थानीय स्तर को शिक्षा के क्षेत्र में समावेशी शिक्षा से सम्बन्धित अपने उत्तरदायित्व को पूर्णतया निभाना चाहिए। स्थानीय स्तर के जो उत्तरदायित्व हैं, वे इस प्रकार हैं-

1. उत्तरदायित्व का निर्धारण- छोटे जिलों में इसका भार मुख्य प्रशासन अधिकारी के ऊपर होना चाहिए। जैसे-जैसे जिले का आकार बढ़ता है, वैसे-वैसे समावेशी शिक्षा का प्रोग्राम जटिल होता जाता है। बड़े जिलों में इसके लिए अधिक उत्तरदायी अधिकारी होने चाहिए।

2. समावेशी बालकों की आवश्यकताओं की खोज- समावेशी बालक-बालिकाओं की शिक्षा आधारभूत सामाजिक सिद्धांतों पर आधारित है। सामान्य बालक को औसत बालक से भिन्न नहीं समझना चाहिए। उनकी भी वे सब आवश्यकताएँ हैं जो कि अन्य बालकों की हैं। सभी लोगों को समावेशी शिक्षा के मूल्य का ज्ञान होना चाहिए। अध्यापकों को वे विधियाँ बता देनी चाहिए। जब बालक बालिकाओं को और अधिक समावेशी शिक्षा की आवश्यकता नहीं होती तो उन्हें सामान्य कक्षा में भेज देना चाहिए।

पृथकीकरण का दर्शन विद्यार्थी, माता-पिता तथा अध्यापकों को बताना चाहिए । कक्षा का आकार निश्चित करना चाहिए। यह सब बालकों की आवश्यकता के अनुसार होनी चाहिए -।

3. बालकों की पहचान- बालकों की पहचान के लिए प्रशासन को विभिन्न विशेष एजेन्सियों की सहायता लेनी चाहिए। स्वास्थ्य विभाग शारीरिक रूप से अयोग्य बालकों की पहचान कराने में सहायता कर सकता है। जब बालक, बालिकाओं की पहचान हो जाती है तो उनका गहन अध्ययन करना चाहिए। यदि आवश्यक हो तो उन्हें मनोवैज्ञानिकों, आँख, नाक, कान के विशेषज्ञों को दिखाना चाहिए। बालक के विषय में पूर्ण रिकार्ड रखने चाहिए।

4. अध्यापकों का चुनाव- अध्यापकों को समावेशी बालकों को पढ़ाने का प्रशिक्षण भी देना चाहिए। साधारण बालकों को पढ़ाने का अनुभव समावेशी बालकों के अध्यापक के लिए बहुत आवश्यक है। एक अच्छे कुशल अध्यापक के लिए केवल प्रशिक्षण की ही आवश्यकता नहीं होती। इस बात की ओर ध्यान देना चाहिए कि उसका व्यक्तित्व अच्छा हो, उसे समावेशी बालकों में रुचि हो। समावेशी बालकों की समस्याओं को समझने के लिए उसमें सहानुभूतिपूर्ण दृष्टिकोण हो। चूँकि एक अध्यापक बालकों को कई वर्ष तक पढ़ाता है तथा कई तरह के बालक एक कक्षा में रहते हैं। अध्यापक को समावेशी शिक्षा के अभिमुखीकरण कोर्स को पूरा करना चाहिए।

5. समावेशी कक्षाओं का निरीक्षण- छोटे शहरों में समावेशी कक्षा के निरीक्षण का कार्य एक सहायक या प्राइमरी निरीक्षक को देना चाहिए। बड़े नगरों में प्रत्येक स्कूल का एक निरीक्षक होना चाहिए। उसे इस क्षेत्र में प्रशिक्षित भी होना चाहिए। इस निरीक्षक को पढ़ाने का अनुभव, इस क्षेत्र में विशिष्टीकरण तथा कम-से-कम मास्टर डिग्री होनी चाहिए। इसके कार्य-प्रशासन तथा निरीक्षण दोनों ही हैं। इसे पाठ्यक्रम को तैयार करना, सामान का प्रबंध करना, अध्यापकों की नियुक्ति तथा स्थानान्तरण आदि का प्रबंध करना चाहिए। इन निरीक्षकों को समावेशी शिक्षा के क्षेत्र में हुए प्रत्येक परिवर्तन एवं विकास से अवगत होना चाहिए। इससे वे अपने प्रोग्राम को यथोचित रूप में विकसित कर सकते हैं। विशेष स्कूल के प्रधानाध्यापक को भी विशेष शिक्षा दी जानी चाहिए। अध्यापकों को विशेष वेतन व भत्ते देने चाहिए। उन्हें स्कूल के प्रधानाध्यापक के प्रति उत्तरदायी होना चाहिए वे सब कर्त्तव्य निभाने चाहिए जो कि साधारण कक्षा में होते हैं ताकि बालक अपने से औरों को भिन्न न माने। अध्यापकों के लिए सेवा प्रशिक्षण तथा विस्तार सेवा होनी चाहिए।

6. निर्देशन – यद्यपि विभिन्न प्रकार के विलक्षण बालकों की आवश्यकताएँ भिन्न-भिन्न होती हैं, उनका मुख्य उद्देश्य एक है- अच्छा सामाजिक एवं व्यक्तिगत सामंजस्य नागरिक उत्तरदायित्व तथा व्यावसायिक क्षमता। निर्देशन देते समय बालक से सम्बन्धित हर पहलू पर ध्यान देना चाहिए, जैसे- शारीरिक दशा, सीखने की क्षमता, स्कूल रिकार्ड, सामाजिक सामंजस्य, रुचि, ध्यान।

7. पाठ्यक्रम – समावेशी बालकों की शिक्षा के उद्देश्य भिन्न होते हैं, अतः उनके पाठ्यक्रम को विशेष रूप से तैयार करना पड़ता है। यह पाठ्यक्रम प्रत्येक बालक के लिए उसकी आवश्यकतानुसार भिन्न होता है। ये सुझाव दिये गए हैं कि औसत बालकों के कार्यक्रम में समावेशी बालक को भाग लेना चाहिए । एक अध्यापक के लिए यह अत्यन्त कठिन है कि वह हर भिन्न आयु के बालक के लिए पूर्ण समावेशी शिक्षा का प्रोग्राम बनाए। बालकों को समूह कार्यक्रमों में भाग लेने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। अध्यापक को औसत बालकों के अध्यापक से ही सहायता लेनी चाहिए। विभिन्न प्रकार के समूहों के लिए भिन्न-भिन्न कोर्स तथा पाठ्यक्रम सामंजस्य होते हैं। बालकों को जो अन्धे हैं, टंकण लेखन या हस्तलिपि लिखना सिखाते हैं। अपाहिज बालकों को विभिन्न प्रकार के कार्य, जैसे-बुनना, कातना, जेवर आदि बनाना बताया जाता है। बहरे बालकों को भाषा का ज्ञान दिया जाता है।

8. गाँव के विशिष्ट बालक – इन बालकों को भी समावेशी शिक्षा की उतनी ही आवश्यकता है जितनी उन विशिष्ट बालकों को जो शहरों में रहते हैं। पर गाँवों में ये सेवाएँ पहुँचाना बहुत कठिन है। इन महँगी सेवाओं को गाँवों में दो या तीन बालकों के लिए नियोजित करना कठिन हो जाता है। माता-पिता भी अपने बच्चों को पढ़ाई के लिए दूर नहीं भेजते हैं। ऐसी दशा में गाँव के बालकों के लिए शहर में छात्रावास का प्रबंध करना चाहिए। उन्हें स्कूल ले जाने के लिए बसों का प्रबंध होना चाहिए जो प्रतिदिन विद्यार्थियों को घर वापस छोड़कर आए। राज्य सरकार को इस ओर ध्यान देना चाहिए।

राज्य स्तर पर समावेशी शिक्षा का आयोजन

राज्य स्तर पर समावेशी शिक्षा का आयोजन निम्न प्रकार से किया जाता है-

1. राज्य का उत्तरदायित्व – राज्य के प्रमुख का यह कर्त्तव्य है कि वह बालकों की आवश्यकताओं का पता लगाए । उनके अनुसार सुनिश्चित पढ़ाई की योजना बनवाए। राज्य स्थानीय स्तर पर प्रबंधित स्कूलों को धन से सहायता प्रदान करे। राज्य को प्रोग्राम का निरीक्षण तथा निर्देशन करना चाहिए। स्थानीय जिले के समावेशी शिक्षा के प्रोग्राम को राज्य से अधिक सहायता मिलती है और इससे स्थानीय स्तर की क्षमता का विकास होता है।

2. प्रबंध तथा निरीक्षण सेवाएँ – राज्य को स्थानीय स्तर को धन देना चाहिए। प्रबंध निरीक्षण के सम्बन्ध में विभिन्न देशों में विभिन्न प्रबंध हैं। अधिकतर देशों में राज्य के शिक्षा अधिकारी को प्रोग्राम देखना पड़ता है। राज्य के इस क्षेत्र में उत्तरदायित्व निम्न प्रकार हैं-

(i) कक्षा में भर्ती होने वाले बालकों की रिपोर्ट तथा प्रोग्राम के विषय में जानकारी प्राप्त करना।

(ii) बालकों को भर्ती करने के नियम, उनका पाठ्यक्रम, अध्यापक के गुण, कक्षा का आकार, कक्षा का विशेष सामान आदि निश्चित करना।

(iii) मनोवैज्ञानिक व मेडीकल देखरेख के नियम बनाना।

(iv) विशेष कक्षा के लिए अध्यापकों को प्रशिक्षित करना ।

विकलांग कल्याण विभाग द्वारा संचालित प्रमुख योजनाएँ

विकलांग कल्याण विभाग द्वारा संचालित प्रमुख योजनाएँ निम्नलिखित हैं-

1. पेंशन योजना- ऐसे निराश्रित विकलांग व्यक्ति जिनकी मासिक आय 225 रु. से कम है को 125 रु. प्रतिमाह की दर से भरण-पोषण अनुदान दिया जाता है। वर्तमान में इस योजना से लगभग 1.40 लाख व्यक्ति लाभान्वित हो रहे हैं।

2. छात्रवृत्ति योजना – अध्ययनरत विकलांग बच्चों, जिनके अभिभावकों की मासिक आय 2000 रु. से कम है जो कक्षा 1-5 में 25 रु. प्रतिमाह, कक्षा 6-8 में 40 रु. प्रतिमाह, कक्षा 9-12 में 85 रु. प्रतिमाह, स्नातक कक्षाओं में 125 रु. प्रतिमाह तथा स्नातकोत्तर एवं अन्य व्यावसायकि पाठ्यक्रमों में अध्ययनरत छात्रों को 170 रु. प्रतिमाह, दर से छात्रवृत्ति प्रदान कर 20,200 छात्रों को प्रतिवर्ष लाभान्वित किया जा रहा है।

3. कृत्रिम अंग/सहायता उपकरण- विभिन्न श्रेणी के विकलांगों को उनकी आवश्यकता के अनुसार 1,000 रु. की सीमा तक के कृत्रिम अंग, सहायता उपकरण प्रदान किए जा रहे हैं। ऐसे विकलांग व्यक्तियों को यह सुविधा देय है, जिनकी आय 300 रु. से कम है।

4. विकलांग से शादी करने पर पुरस्कार- इस योजना के अन्तर्गत विवाहित जोड़े में से यदि पति विकलांग है तो 11,000 रु. एवं पत्नी अथवा पति-पत्नी दोनों विकलांग है. तो रु. की धनराशि अनुदान के रूप में प्रोत्साहन स्वरूप प्रदान की जाती है।

5. दुकान निर्माण योजना- उद्यमी विकलांगों को प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से 20,000 रु. तक की धनराशि दुकान निर्माण हेतु दी जाती है, जिसमें 5,000 रु. अनुदान एवं अल्प दर पर 15,000 रु. का ऋण सम्मिलित है।

6. विशिष्ट विकलांग को राज्य स्तरीय पुरस्कार- प्रदेश के प्रतिभाशाली विशिष्ट विकलांगों को महामहिम राज्यपाल जी के कर कमलों से प्रतिवर्ष विश्व विकलांग दिवस के अवसर पर राज्य स्तरीय पुरस्कार प्रदान किया जाता है।

7. विभागीय संस्थाएँ – विकलांग कल्याण विभाग द्वारा प्रदेश में विभिन्न श्रेणी के विकलांगों के लिए कुल 12 विद्यालय हैं। जिसमें शारीरिक रूप से विकलांग अक्षम बच्चों के लिए 2, दृष्टि बाधित बच्चों के लिए 4, मूक बाधिर बच्चों के लिए 4, एवं मानसिक मंद बुद्धि बच्चों के लिए 2 विद्यालय प्रदेश के विभिन्न जनपदों में संचालित हैं। इसी प्रकार विभाग द्वारा शारीरिक रूप से अक्षम व्यक्तियों के लिए 6, मूल बाधिर व्यक्तियों के लिए 1, एवं दृष्टि- बाधित व्यक्तियों के लिए 3, कुल 10 प्रशिक्षण एवं उत्पादन केन्द्र भी संचालित हैं।

उपरोक्त के अतिरिक्त भारत सरकार द्वारा विकलांगता के कई क्षेत्र में कार्यरत कई गैर कानूनी संस्थाओं को भी राज्य सरकार के माध्यम से प्रस्ताव प्रेषित किये जाने पर अनुदान प्रदान किया जाता है।

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shubham yadav

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