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सम्पादक के प्रमुख गुण अथवा सम्पादकीय लेखन की प्रक्रिया
सम्पादकीय किसी भी समाचार पत्र का स्थायी स्तम्भ होता है। सम्पादक द्वारा लिखा गया लेख सम्पादकीय कहलाता है। इसे अग्रलेख भी कहते हैं। किसी भी समाचार पत्र को सम्मान दिलाने तथा स्थापित करने में सम्पादक की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। सम्पादकीय जितना अधिक विचारोत्तेजक और प्रेषणीयता से युक्त होता है, प्रबुद्ध वर्ग द्वारा उसे खूब पढ़ा जाता है तथा सराहा जाता है। इसका कारण यह है कि सम्पादकीय सम्पादक का अपना निजी होता है। उसका दृष्टिकोण, समाचार पत्र की रीति-नीति उससे स्पष्ट होती है। वर्तमान युग में सम्पादकीय भी खरीदे और बेचे जाते हैं। इसलिए कभी-कभी लिखता कोई और है और नाम किसी और का होता है। वास्तव में सम्पादकीय किसी तत्व का प्राण होता है, चेतना होती है। सम्पादकीय लेखन के लिए निम्नलिखित गुण अनिवार्य हैं-
(अ) सम्पादकीय लेखक का सामान्य ज्ञान अच्छा होना चाहिए।
(ब) उसे ऐतिहासिक तथा भौगोलिक तथ्यों की जानकारी होना चाहिए।
(स) सम्पादकीय लेखक प्रगतिशील तथा नवीन विचारधारा का हो ।
(द) उसे पूर्वग्रही और दुराग्रही नहीं होना चाहिए।
(क) उसे लचीला व समन्वयवादी होना चाहिए। वह संकल्प का धनी भी हो ।
(ख) वह संवेदनशील हो, कला के प्रति उसमें अनुराग हो
(ग) भाषा और बोली पर उसका अच्छा अधिकार हो ।
(घ) वह कल्पनाशील, दूरदर्शी हो साथ ही वह यथार्थ का साक्षी हो ।
वास्तव में सम्पादकीय लेखकं की भूमिका अत्यन्त जोखिम भरी होती है। किसी विद्वान ने लिखा है कि ‘अनेक प्रकार के दबावों से स्वयं को टूटने से बचना जिसे आता है वही कुशल अग्रलेखक हो सकता है। सम्पादकीय लेखक की स्थिति अनेक झगड़ालू पत्नियों के पतियों जैसी होती है। एक को मनाएँ तो दूसरी रुठ जाए। इन सबसे संतुलन बैठाना, कोपभवन में जाने से रोकना, पूरे परिवार में सौमनस्य स्थापित रखने जैसा है, सम्पादकीय लेखन।
सम्पादकीय का स्वरूप
सम्पादकीय किसी पत्र में लिखा जाने वाला स्थायी स्तम्भ है। यथा अवसर और आवश्यकतानुरूप यह एक से अधिक भी हो सकते हैं। अग्रलेख को शब्दों में नहीं बांधा जा सकता। वह विषय के अनुरूप लघु या दीर्घ हो सकता है। जरूरत इस बात की है कि वह अपने आप में पूर्ण हो। पाठकों को यह न लगे कि इसमें कोई बिन्दु छूट गया है। इसके मुख्य घटक हैं-
रोचकता, जिज्ञासा, दूरदर्शिता, मार्गदर्शन, विचारोत्तेजना, सुझाव, आलोचना, युक्तियाँ, तार्किकता, निष्पक्षता, चेतना, प्रशंसा, उत्साहवर्धन, प्रताड़ना, भावुकता, बौद्धिकता, सुसंगतता, पूर्णता, सकारणता और संक्षिप्तता।
एक अच्छा अग्रलेख विस्तृत नहीं होना चाहिए। सम्पादकीय गागर में सागर भरने की कला है; परन्तु यह गागर इतनी छोटी भी न हो कि पाठक प्यासे ही रह जाएँ। सम्पादकीय का कार्य है जिज्ञसा की निवृत्ति प्यास का शमन और पूर्ण तृप्ति सम्पादक। शब्द ब्रह्म का साधक होता है उसे व्यर्थ के विस्तार से बचना चाहिए। कम से कम शब्दों में अधिक से अधिक कह जाना सम्पादकीय का अनिवार्य गुण है। सम्पादकीय में जिन बातों से बचना चाहिए वे हैं
1. व्यर्थता, 2. निर्जीवता 3. अनभिज्ञता, 4. कट्टरता, 5 छल-दम, 6. अतिसाहस, 7. अतिआक्रमकता, 8 अनुमानिता, 9. भीरूता, 10. कायरता, 11. पक्षधरता, 12. शीघ्रता।
सम्पादकीयों के प्रकार
पत्र- पत्रिकाओं के आकार-प्रकार के अनुसार सम्पादकीय का वर्गीकरण निम्न प्रकार से किया जा सकता है 1. दैनिक पत्र (दैनिक पत्र भी अपने व्यापकत्व की दृष्टि से चार प्रकार के हो सकते हैं—(क राष्ट्रीय, ख प्रांतीय, ग, आंचलिक, घ स्थानीय), 2. साप्ताहिक, 3. पाक्षिक, 4. मासिक, 5. द्वैमासिक, 6. त्रैमासिक, 7. षष्ठमासिक, 8. वार्षिक, 9. अनियतकालीन।
पत्रों की आकृति और प्रकृति के अनुसार ही सम्पादकीय लिखे जाते हैं। दैनिक पत्र का सम्पादकीय आमतौर पर सम-सामयिक घटनाओं पर त्वरित टिप्पणी होता है।
अग्रलेखों का वर्गीकरण
1. उदबोधनपरक, 2. सुझावपरक, 3. प्रशंसात्मक, 4. आलोचनात्मक, 5. कर्तव्यबोधक, 6. आंदोलनात्मक, 7. व्रत-पर्व-ऋतुपरक, 8. अवर्गीकृत एक विद्वान ने लिखा है कि ‘सम्पादकीय किसी समाचार की धड़कन हुआ करते हैं जो अपनी धड़कनों से व्यक्ति, समाज और राष्ट्र की धड़कनों को प्रभावित ही नहीं करते अपितु धड़कनों से धड़कनों को मिलाकर एक राग, आग, फाग और पराग की सृष्टि करते हैं। निश्चय के नलकूप से अनिश्य की आग को बुझाना; अकाल या भूकम्प की विभीषिका के इंद्र- गर्व को सहयोग के ग्वाल हाथों द्वारा गोवर्धन उठवाकर, धूलि-धूसरित करवाना, कुशल सम्पादकीय की छिंगनी का हो कमाल हुआ करता है। अग्रलेखों का कोई भी वर्गीकरण कभी भी अंतिम नहीं हुआ करता। उसमें कुछ न कुछ छूट जाने और समाविष्ट किए जाने का अवकाश बना ही रहता है।’ विषय की दृष्टि से सम्पादकीय का वर्गीकरण निम्नानुसार भी किया जा सकता है-
1. राजनीतिक, 2. शैक्षिक, 3. सामाजिक, 4. धार्मिक, 5. आपराधिक, 6. ऐतिहासिक, 7. वैज्ञानिक, 8. साहित्यिक
सम्पादकीय का शीर्षक
अग्रलेख या सम्पादकीय के शीर्षक का भी बहुत महत्व है। शीर्षक को पढ़कर ही पूरे सम्पादकीय की आत्मा से परिचय हो जाता है। वह भवन के कलश की तरह होता है जिससे समाचार पत्र रूपी लब्ज की भव्यता का अनुमान लगाया जा सकता है। शीर्षक जितना अधिक आकर्षक व प्रभावोत्पादक होता है सम्पादकीय उतना अधिक अपने पाठक को आकर्षित करता है।
सम्पादकीय लेखन की प्रक्रिया
जिस प्रकार अनभिज्ञ तैराक के लिए तैरना, दाँव न जानने वाले के लिए कुश्ती लड़ना कठिन है वैसे ही नौसिखिए लेखक के लिए भी सम्पादकीय लिखना बेहद कठिन कार्य है। सम्पादकीय लेखन के लिए अभ्यास, प्रशिक्षण और उचित ज्ञान की अपेक्षा होती है। अच्छे सम्पादकीय लेखन के लिए कुछ महत्वपूर्ण बातों का ध्यान रखना आवश्यक है-
1. विषय चयन– सम्पादकीय लेखन के लिए पहली सीढ़ी है विषय का चयन विषय चयन हो जाने का अर्थ है पचास प्रतिशत कार्य हो जाना, क्योंकि महत्ता तो विषय की ही होती है।
2. चिंतन- मनन-विषय निर्धारित हो जाने पर सम्पादक की सारी शक्ति सम्पादकीय को हर प्रकार से पूर्ण बनाने के लिए केन्द्रीभूत हो जाती है। वह अपनी सम्पूर्ण चेतना के घोड़े विषय को अधिकाधिक प्रामाणिक बनाने के लिए दसों दिशाओं में दौड़ाता है। दूर की कौड़ी लाने के लिए उसे कल्पनाशीलता का सहारा लेना पड़ता है। विषय को तथ्यपरक बनाने के लिए विषय से सम्बन्धित पुस्तकों, पत्रिकाओं तथा अन्य स्रोतों का दोहन भी करता है।
3. कतरन- नवीनतम जानकारी प्राप्त करने के क्रम में वह अनेकानेक उद्धरणों की कतरन तैयार करता है। विषय का विहंगावलोकन नहीं, सिंहावलोकन करता है। कॉट-छाँट करके ‘सार-सार को गहि चले थोथा देय उड़ाय’ का रास्ता अपनाता है।
4. लेखन- सामग्री संचयन हो जाने के पश्चात सारे विचारों को सम्यक् व्यवस्था देता है। पूरा सम्पादकीय लिख लेने के पश्चात उसे दो-तीन बार आलोचक प्रयास करता है तथा उसकी सम्पूर्णता तथा प्रभावोत्पादक बनाने का है। दैनिक पत्रों के सम्पादकीय आमतौर पर सामयिक विषयों पर ही होते हैं इसलिए पूरे घटनाक्रम पर आलोचक की दृष्टि रखता है।
5. विसर्जन – कभी-कभी सम्पादक को अपनी लिखी हुई सामग्री बदलना भी इसी मानसिकता से भी गुजरना पड़ता है। बदली हुई परिथितियों में अत्यन्त श्रमपूर्वक लिखा गया सम्पादकीय निरस्त भी करना पड़ता है। जैसे– बीमार नेता का समाचार आया की नेताजी के स्वास्थ्य में सुधार हो रहा है। सम्पादक ने लिखा कि नेताजी शीघ्र स्वास्थ्य लाभ करें। शुभकामनाएँ, सद्भावनाएँ, प्रार्थनाएँ की गई। उनके द्वारा किए गए कार्यो का विवरण भी दिया गया। अर्द्धरात्रि से कुछ पूर्व ही नेताजी स्वर्गवासी हो गए। ऐसी स्थिति में कुशल सम्पादक मशीन रुकवाकर सारा सम्पादकीय बदल देगा।
6. संचयन- होली, दीवानी, ईद, ईस्टर, बैसाखी, महापुरुषों की जयंतियाँ, नववर्ष, वसंत, पंद्रह अगस्त, छब्बीस जनवरी, ग्रीष्म, हेमंत, शिविर, विजयादशमी और अन्य मांगलिक अथवा विशेष अवसरों से सम्बन्धित सम्पादकीय लेख एक कुशल सम्पादक पहले से ही तैयार करके रखता है।
7. आलंबन – श्रेष्ठ, सटीक सम्पादकीय का असर पूरे समाज पर देखा जा सकता है। सज्जन प्रसन्न होते हैं, दुर्जन भयभीत होते हैं। समाचार पत्र के ईश्वरीय तत्व अग्रलेख को लोग ‘जाकी रही भावना जैसी प्रभु मूरति देखी तिन तैसी’ की तरह ही देखते हैं। बीन आगे से सँकरी, पेट से फूली हुई और अंत में सँकरी होती है। पहले अनुच्छेद में अग्रलेखक जिज्ञासा बढ़ाता है, दूसरे में उसे उत्कर्ष पर पहुँचाता है और तीसरे में हर प्रश्न का उत्तर देकर तड़ित विद्युत की भाँति पाठक चमत्कृत कर जाता है। को
8. उद्दीपन- शीर्षक के अभाव में पूरा सम्पादकीय ऐसा लगता है जैसा सौन्दर्य युक्त सुपुष्ट देहयष्टि पर गंजा सिर अथवा पीतदंत युक्त बीमार मुस्कान। कविहृदय सम्पादक चित्ताकर्षक शीर्षक दे सकता है। सम्पादक स्वयं कवि हो या न भी हो, पर उसके मस्तिष्क में ऐसी अनेक काव्य पंक्तियों का अकृत-अक्षय कोष अवश्य होना चाहिए जिसके बल पर वह अग्रलेख को सुन्दर-सजीती, मांगलिक रंगीली अल्पना का रूप दे सके।
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