इतिहास

सल्तनत कालीन प्रशासन, आर्थिक और सांस्कृतिक विकास तथा सामाजिक और धार्मिक अवस्था

सल्तनत कालीन प्रशासन, आर्थिक और सांस्कृतिक विकास तथा सामाजिक और धार्मिक अवस्था

सल्तनत कालीन प्रशासन, आर्थिक और सांस्कृतिक विकास तथा सामाजिक और धार्मिक अवस्था-सल्तनत काल में सुल्तानों ने भारतीय शासन व्यवस्था के स्थान पर अरबी-फारसी पद्धति पर आधारित शासन व्यवस्था प्रचलित की.

सल्तनत कालीन प्रशासन

सल्तनत कालीन प्रशासन

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सल्तनतकालीन प्रशासन

 राज्य पर धर्म का प्रभाव

  • मुस्लिम-राज्य दीनी या धर्म सत्तात्मक था। कुरान में वर्णित आदर्शों (शरा) के आधार पर ही मुस्लिम राज्य का गठन हुआ था। राजपूत राज्य की तरह मुस्लिमों ने धर्मनिरपेक्ष राज्य की स्थापना का प्रयास नहीं किया। इस्लाम-धर्म के आदर्शों एवं नियमों के अनुकूल ही शासन चलाने की व्यवस्था की गई। इस्लामी कानूनों की व्याख्या उलेमा करते थे एवं इनका पालन राज्य और जनता दोनों के लिए ही आवश्यक था।

तुर्की राजत्व का सिद्धांत

  • आरंभिक इल्बारी-सुल्तानों ने स्वयं को खलीफा का सहायक घोषित किया। अपने खुतबा एवं सिक्कों पर खलीफा का नाम भी खुदवाया।
  • गुलाम वंश के शासक बलबन ने खलीफा के महत्व को अस्वीकार कर दिया और अपनी स्वतंत्र सत्ता स्थापित करने का प्रयास किया। उसने सुल्तान को अल्लाह की छाया (जिल्ले-अल्लाह) कहा। उसके अनुसार पैगम्बर के पश्चात खलीफा नहीं, बल्कि सुल्तान ही सर्वशक्तिशाली व्यक्ति था। उसकी आज्ञा की अवहेलना नहीं की जा सकती थी।

अफगानों के राजस्व का सिद्धांत

  • अफगानों ने तुर्कों के विपरीत सुल्तान को ईश्वर की छाया (सर्वशक्तिशाली) निरंकुश राजा नहीं माना। इसका मुख्य कारण यह था कि अफगान सुल्तान को ईश्वर का प्रतिनिधि नहीं मानते थे, बल्कि उसे अपने में ही श्रेष्ठ मानते थे।
  • अफगान राजत्व-सिद्धांत तुर्की राजत्व सिद्धांत से भिन्न था। तुर्की ने जहां वंशानुगत राजतंत्र, सुल्तान के देवत्व एवं उसकी निरंकुश सत्ता के सिद्धांत का प्रतिपादन किया था, वहीं अफगानों ने सुल्तान को बराबरों में सर्वश्रेष्ठ ही माना, असीम शक्ति का मालिक नहीं।

खलीफा और सुल्तान

  • दिल्ली के अधिकांश तुर्की सुल्तानों ने स्वतंत्र होते हुए भी सिद्धांतत: खलीफा, जो मुस्लिम-राज्य एवं इस्लामी धर्म का प्रधान होता था, की सर्वोपरि सत्ता स्वीकार की। दिल्ली के सुल्तान अपने आपको खलीफा का नायब (सहयोगी) ही मानते थे। समस्त इस्लामी राज्य का सांविधानिक प्रधान खलीफा ही माना जाता था।
  • तुर्क-सुल्तानों में इल्तुतमिश ही प्रथम सुल्तान था, जिसने अपनी स्थिति सुदृढ़ करने के लिए अब्बासी खलीफा से 1229 ई. में प्रार्थना कर नासिर-अमीर उलमोमिनीन (खलीफा से सहायक) की उपाधि प्राप्त की थी। इससे मुस्लिम-जगत में उसकी सत्ता और प्रतिष्ठा स्थापित हो गई। बलबन ने यद्यपि निरंकुश राजतंत्र की स्थापना की, वह अपने को जिल्ले अल्लाह (अल्लाह का प्रतिनिधि) मानता था;
    स्थापित उसने खलीफा की अधिसत्ता स्वीकार किये थे। उसके सिक्कों एवं खुतबों में खलीफा का नाम रहता था। 1258 ई. में हलाकू द्वारा अब्बासी खलीफा की हत्या के बावजूद दिल्ली के सुल्तानों ने खलीफा की अधिसत्ता बनाए रखी। अलाउद्दीन खिलजी ने भी खिलाफत का सम्मान किया। उसने मोमिन-उल-खिलाफत (खलीफा का दाहिना हाथ) और नासिर-ए-अमीर-उलमोमिनीन (खलीफा का सहायक) घोषित किया।
  • फिरोजशाह तुगलक के समय में ऐसे 36 कारखानों का काम करने वालों को निश्चित वेतन मिलता था, परंतु दूसरे वर्ग के कर्मचारियों का वेतन निश्चित नहीं था।

 सैन्य व्यवस्था

  • सैन्य-संगठन में तुर्क-सुल्तानों ने मंगोलों की दशमलव प्रणाली को अपनाया। सल्तनतकालीन सेना 2 वर्गों में विभक्त थे। 1. हश्म-ए-क्लब (केंद्रीय सेना); 2. हश्म-ए-अतरफ (प्रांतीय सेना);
  • शाही सेना की घुड़सवार टुकड़ी सदार-ए-कल्ब कहलाती थी।

गुप्तचर

  • कोतवाल और मुफरिद किलों की व्यवस्था देखते थे। सुल्तानों के पास जल-बेड़ा भी था जिसका प्रधान अमीर-ए-बहर कहलाता था। सेना को विभिन्न प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों, किला भेदने वाले उपकरणों से सुसज्जित किया जाता था। गुप्तचर (यजकी) सेना के आवश्यक अंग थे।
  • नगरों में शांति-व्यवस्था की स्थापना का कार्य कोतवाल के जिम्मे सौंपा गया। दिल्ली का कोतवाल बहुत ही महत्वपूर्ण व्यक्ति होता था। बलबन और अलाउद्दीन ने एक सक्षम गुप्तचर-विभाग की भी स्थापना की, जो सुल्तान को प्रत्येक महत्वपूर्ण घटना की सूचना देता था।
  • खालसा भूमि (राजकीय जमीन) तथा अधीनस्थ हिंदू राजाओं और सामंतों के अधीन की भूमि। गैर-मुसलमानों के कब्जे में जो भूमि थी, उससे खिराज वसूला जाता था। यह उपज का 1/2 भाग या 1/10 भाग होता था। मुसलमान भूमि-कर के रूप में उशर देते थे। यह 1/5 से 1/10 भाग तक होता था। सामान्यतः दान में दी गई भूमि पर कर नहीं लगता था, परंतु अलाउद्दीन ने ऐसी भूमि को खालसा में परिवर्तित कर दिया। लगान नकद (अनाज) के रूप में वसूली जाती थी।

 मुस्लिम वर्ग

  • शिया एवं सुन्नी मुस्लिमों के दो प्रमुख धार्मिक वर्ग बन गए। इसी प्रकार, नस्ल एवं जाति के आधार पर तुर्क, अफगान, मंगोल, सैय्यद, पठान वर्गों का उदय हुआ। इनमें व्यक्तिगत एवं सांप्रदायिक स्वार्थो की सुरक्षा के लिए सदैव प्रतिस्पर्धा चलती रहती थी। संपूर्ण सल्तनत-काल में उत्तरी भारत में सुन्नियों का प्रभाव बना रहा; क्योंकि दिल्ली के सुल्तान सुन्नी-मतावलंबी थे, परंतु दक्षिण भारत में शिया-संप्रदाय अधिक प्रबल था। दक्षिण भारत के प्रमुख मुस्लिम-राजवंशों की स्थापना शिया मतावलंबियों ने ही की। जिन भारतीयों ने इस्लाम-धर्म स्वीकार कर लिया था उनका अलग वर्ग था।
  • मुस्लिमों में एक वर्ग विदेशियों का भी था। मध्य एशिया की अनेक मुस्लिम-जातियां भी भारत में आकर बस गई थी।
  • अमीर: मुस्लिमों का शासक वर्ग।
  • उलेमा: अमीरों के बाद मुसलमान वर्ग
  • गुलाम: गुलामी प्रथा के दास

 इक्ता व्यवस्था

  •  इक्ता एक अरबी भाषा का शब्द है। प्रारंभ में इस प्रथा के अंतर्गत भूमि के विशेष खंडों के राजस्व का अधिकार सैनिकों को उनके वेतन के बदले दिया जाता
    था। इस व्यवस्था को लाने का उद्देश्य सुंदर क्षेत्रों पर नियंत्रण बनाये रखना और
    राजस्व वसूली की प्रक्रिया को सुचारू रूप से बनाए रखना, क्योंकि सल्तनत के विस्तार और केंद्र से अधिक दूर स्थित क्षेत्र में जहां सीधा प्रशासन कठिन था।
  • सर्वप्रमुख मुहम्मद गोरी ने कुतुबुद्दीन ऐबक को हॉसी का इक्ता दिया।
  • इल्तुतमिश ने दिल्ली सल्तनत में सर्वप्रथम इस व्यवस्था को प्रारंभ किया।
  • छोटी इक्ता को वेतन इक्ता भी कहा जाता था।
  • अलाउद्दीन खिलजी के समय छोटी इक्ता को समाप्त कर दिया गया।
  • इल्तुतमिश के समय बड़ी इक्ता प्रणाली प्रारंभ हुआ था।
  • बलबन ने ख्वाजा नामक अधिकारी की नियुक्ति, जो इक्ता से होने वाले आय को ज्ञात करना था।
  • अलाउद्दीन खिलजी के शासनकाल में न केवल छोटे इक्ता को बल्कि भूमि अनुदानों को भी रद्द किया गया।

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