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सांस्कृतिक विघटन की परिभाषा
वर्तमान विश्व सांस्कृतिक विघटन के अभूतपूर्व संकट से गुजर रहा है, स्पेंग्लर ने कहा था कि “पश्चिमी में यांत्रिक प्रौद्योगिकी का इतिहास तेजी से अपने अनिवार्य अन्त की ओर जा रहा है। प्रत्येक संस्कृति के महान स्वरूपों के समान यह स्थिति भी स्वयं ही अपने आपको समाप्त कर देगी। वर्तमान युग में सांस्कृतिक विघटन सभी समाजों की सबसे गंभीर समस्या है, वैयक्तिक टन, पारिवारिक विघटन तथा सामाजिक विघटन तो सांस्कृतिक संकट के ही विभिन्न परिणाम हैं। मनुष्य ने आरम्भ में जब अपनी कार्यक्षमता को बढ़ाने के लिये छोटे-छोटे आविष्कार किये तो उसका विश्वास दृढ़ होता गया कि प्रकृति के रहस्यों को समझकर तथा बड़ी-बड़ी मशीनों का आविष्कार करके आश्चर्यजनक सभ्यता का निर्माण कर सकता है। आज का मनुष्य यह भूल गया कि आविष्कार और भौतिक प्रगति उसे एक अच्छा पिता-पुत्र, पति पत्नी, नागरिक अथवा वास्तविक अर्थों में एक मानव नहीं बना सकते। साधारण शब्दों में कहा जा सकता है कि सांस्कृतिक विघटन का तात्पर्य सांस्कृतिक व्यवस्था में असंतुलन उत्पन्न होना है। सांस्कृतिक विघटन को समझने से पहले संस्कृति का अर्थ जानना आवश्यक है। संस्कृति का तात्पर्य उन सभी व्यवहारों की समग्रता से है जिनका लक्ष्य व्यक्तित्व का परिष्कार करना तथा अपने जीवन के लक्ष्य को स्पष्ट करना होता है। संस्कृति के क्षेत्र को स्पष्ट करते हुये टायलर ने लिखा है कि “संस्कृति वह जटिल सम्पूर्णता है जिसमें ज्ञान, विश्वास, आचार, कानून, प्रथा तथा इसी प्रकार की सभी मान्यताओं का समावेश होता है जिन्हें मनुष्य समाज का सदस्य होने के नाते प्राप्त करता है।”
लुण्डवर्ग के शब्दों में “संस्कृति को एक ऐसी व्यवस्था के रूप में आगामी पीढ़ियों के लिये संचरित कर दिये जाने वाले निर्णयों, विश्वासों आचरण के तरीकों तथा व्यवहार के परम्परागत प्रस्थितियों से उत्पन्न होने वाले प्रतीकात्मक तथा भौतिक तत्वों को सम्मिलित करते हैं। इस परिभाषा से भी यह स्पष्ट होता है कि व्यक्ति को एक नैतिक सामाजिक प्राणी बनाने में जितने भी तत्वों का योगदान होता उन्हीं की सम्पूर्णता का नाम संस्कृति है।
इलियट अथवा मेरिल ने सांस्कृतिक विघटन की व्याख्या सांस्कृतिक परिवर्तन के संदर्भ में की है। आपका विचार है कि सांस्कृतिक परिवर्तन के कारण बहुत से नवीन विचारों और मूल्यों से नये विचारों तथा आदर्शों का संघर्ष आरम्भ होता है। इस संघर्ष के फलस्वरूप सांस्कृतिक जीवन में पैदा होने वाले असंतुलन को हम सांस्कृतिक विघटन कहते हैं। इस दृष्टिकोण से विघटन की अन्य प्रक्रियाओं के समान सांस्कृतिक विघटन भी एक प्रक्रिया है जो अनेक दशाओं के संयुक्त प्रभाव से उत्पन्न होती है।
आगवर्न ने सांस्कृतिक विघटन की दशा को सांस्कृतिक विलम्बना के आधार पर स्पष्ट किया है। आगबर्न का कथन है कि संस्कृति के दो पक्ष होते हैं – एक भौतिक तथा दूसरा अभौतिक संस्कृति के दोनों पक्षों में तब तक संतुलन बना रहता है जब तक समाज में सांस्कृतिक संगठन बना रहता है लेकिन कभी-कभी इनमें से एक पक्ष दूसरे पक्ष से पीछे रह जाता है, यह स्थिति ‘सांस्कृतिक विलम्बना’ कहलाती है जो संस्कृति को असंतुलित बनाकर सांस्कृतिक विघटन को जन्म देती है।
सोरोकिन के विचार से सांस्कृतिक विघटन वह स्थिति है जिसमें ललित कलाओं, धर्म, दर्शन तथा नैतिकता पर इन्द्रियपुरकता का प्रभुत्व हो जाता है। इसका तात्पर्य है कि जब इन्द्रियपरक इच्छाएँ विचारात्मक संस्कृति से अधिक प्रभावपूर्ण बन जाती हैं तथा इसके परिणामस्वरूप हमारा मानसिक व्यक्तित्व दूषित हो जाता है। तब इसी स्थिति को हम सांस्कृतिक विघटन कहते हैं।
सांस्कृतिक विघटन के कारण
सोरोकिन के शब्दों में इन्द्रियपरक संस्कृति की भोगवादी शक्तिहीनता। वर्तमान युग में व्यक्ति नैतिक मूल्यों को भूलकर भौतिकता की चकाचौंध और सांसारिक सुखों के पीछे पागल है। आधुनिकता को जीवन के सर्वोच्च मूल्य के रूप में स्वीकार किया जाने लगा है। यह आधुनिकता यदि भौतिकवाद का कहीं विरोध करती भी है तो इसलिये कि संसार और अधिक भौतिकवादी क्यों नहीं है। इस इन्द्रियपरक संस्कृति के प्रभाव से हम सिद्धांतों का निर्माण पहले कर लेते हैं और बाद में उसके सौचित्य को प्रभावित करते हैं। इसके फलस्वरूप व्यक्ति यह समझने में असमर्थ हो जाता है कि सत्य-असत्य, यथार्थ-अयथार्थ, उपयोगिता अनुपयोगिता में क्या भेद है। इन्द्रियपरक संस्कृति के प्रभाव से व्यक्ति स्वयं जिस चीज को सत्य समझता है उसमें वह किसी प्रकार का समझौता नहीं करना चाहता। यह कठिनाई इसलिये उत्पन्न हुयी है कि दर्शन का आधार प्रयोगसिद्धता को मान लिया गया है। इसका तात्पर्य है कि प्रयोग के आधार पर जो सही है, वही सत्य है और बाकी सब असत्य। शायद इसी प्रयोगसिद्धता का परिणाम यह है कि बड़े-बड़े समाज विज्ञानी जिस समस्या को अपने हाथ में ले लेते हैं, वह समस्या सुलझने के स्थान पर उलझ जाती है। भौतिक इच्छाओं में ही सभी सामाजिक व सांस्कृतिक मूल्यों का बोध करना इस प्रवृत्ति की विशेषता है। यही कारण है कि आज परिवार टूट रहे हैं, लोगों में परस्पर संदेहों और भ्रमों को बढ़ावा मिला है। अन्तर्द्वन्द्व बढ़ गये हैं, वर्ग-संघर्ष की स्थिति सामने आयी है, मानसिक रोगों में वृद्धि हुयी है, हत्या और रक्तपात को सामान्य घटना समझा जाने लगा है तथा आत्महत्या की समस्या ने गंभीर रूप धारण कर लिया है।
सांस्कृतिक विघटन के निराकरण के उपाय
सांस्कृतिक विघटन को रोकने के लिए यह आवश्यक है कि जो दोष हमारी संस्कृति में घर करते जा रहे हैं उन्हें दूर करने का प्रयास करें तभी संस्कृति की उन्नति संभव हो सकती है। सांस्कृतिक विघटन को रोकने के लिये निम्नलिखित बातों को अपने आचरण में लाना होगा –
1. अपनी धार्मिक परम्पराओं के बारे में जाने तथा अपनी पुश्तैनी भाषा को बचाना होगा, ऐसा करने से सांस्कृतिक विघटन रोका जा सकता है।
2. सांस्कृतिक विघटन को रोकने के लिये संस्कृति की कला और तकनीकी को दूसरे से शेयर करना होगा। समुदाय तथा समाज के अन्य सदस्यों के साथ समय बिताना होगा।
3. सामाजिक एवं राष्ट्रीय उत्सवों का प्रबन्ध और सहभागिता करनी चाहिए। 4. अपने परम्परागत व्यंजनों की विधि अगली पीढ़ी को भी सौंपना होगा।
5. यह मनोवृति विकसित करना कि इन्द्रियपरक संस्कृति कोई महत्वपूर्ण वस्तु नहीं है और यह कि इनमें भी बहुत सी दुर्बलताएं विद्यमान हैं। इसे दूर करना चाहिए।
6. एक ऐसा मनोबल विकसित करना जिसकी सहायता से वर्तमान इन्द्रियपरक संस्कृति का पुनर्परीक्षण करके इसके जीर्ण शीर्ण तत्वों के स्थान पर रचनात्मक नैतिक तत्वों को प्रधानता दी जा रही है।
इस कार्य में हम तब तक सफल नहीं हो सकते जब तक हम मानसिक रूप से अपने व्यवहार करके के तरीकों और मूल व्यवस्था में परिवर्तन करने के लिये तैयार नहीं हो जाते। सांस्कृतिक विघटन का इतना बड़ा संकट समाप्त करने के लिये मनोवृत्तियों के परिवर्तनों को तथा भौतिक सुखों का त्याग करना होगा। इसके आरंभ में सभी को कष्ट तो होगा लेकिन परिणामस्वरूप मानवीय व्यवहारों तथा नैतिक मूल्यों का नये सिरे निर्वचन होगा, इसी से मनुष्य एक नयी संस्कृति और समाज के नव-निर्माण की ओर बढ़ेगा तथा इसी से मानव जाति इस महान संकट से मुक्ति प्राप्त कर सकेगी।
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