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साक्षरता से क्या आशय है? मौखिक भाषा का कक्षा-कक्ष में प्रयोग

साक्षरता से क्या आशय है
साक्षरता से क्या आशय है

साक्षरता से क्या आशय है? (What do you mean by literacy?)

साक्षरता से आशय ज्ञान से होता है। साक्षरता के अंतर्गत लिखना पढ़ना तथा गणना (गिनना) करना आता है। जो व्यक्ति सामान्य रूप से अक्षरों का ज्ञान रखता है, अपने हस्ताक्षर कर लेता है तथा लिखना भी जानता है और थोड़ा बहुत गणित के ज्ञान के आधार पर हिसाब-किताब रख लेता है, वह साक्षर कहलाता है। हमारे देश के अधिकांश लोग गाँवों में बसते हैं। प्रजातंत्र के लिए निरक्षरता अभिशाप है। निरक्षरता को दूर करने के लिए तथा लोगों को लिखना, पढ़ना और गणना करना सिखाने के लिए साक्षरता अभियान सरकार के द्वारा चलाया जा रहा है। साक्षरता किसी भी प्रजातांत्रिक देश के लिए अत्यन्त आवश्यक मानी जाती है। भारत में साक्षरता का स्तर बढ़ाने के लिए प्रौढ़ शिक्षा कार्यक्रम भी बड़े पैमाने पर चलाया जा रहा है। साक्षरता प्रजातांत्रिक देश के लिए अत्यन्त आवश्यक मानी जाती है क्योंकि प्रजातंत्र में जनता ही शासक का चुनाव करती है और निरक्षर जनता किस प्रकार अपने लिए अच्छे शासक का चुनाव कर सकती है।

मौखिक भाषा का कक्षा-कक्ष में प्रयोग

मौखिक भाषा को उच्चरित भाषा भी कहते हैं। भाषा के उच्चरित रूप का व्यवहार हम अपनी बोलचाल की भाषा में प्रतिदिन करते हैं। कक्षा-कक्ष में अन्तःक्रिया करते समय, प्रश्नों के उत्तर देते समय तथा शिक्षक को अपनी बात बतलाते समय एवं अन्य छात्रों के साथ सम्प्रेषण करते समय मौखिक भाषा का प्रयोग किया जाता है। मौखिक भाषा हमारी बातचीत की भाषा होती है। लिखित भाषा से पूर्व बच्चा मौखिक भाषा सीखता है। मौखिक रूप में भाषा क्षणिक या अस्थायी होती है। कक्षा-कक्ष में हम जो कुछ भी बोलते हैं, वह बोलने के साथ-साथ हवा में उड़ जाता है, उसे यदि हम पकड़ना चाहें तो भी नहीं पकड़ सकते हैं। आज विज्ञान का युग है। विज्ञान में प्रतिदिन नये-नये आविष्कार हो रहे हैं। विज्ञान ने भाषा के उच्चरित अथवा मौखिक रूप को कुछ स्थायी बना दिया है। रेडियो तथा दूरदर्शन के द्वारा हम दूर बैठे हुए भी किसी बात को सुन सकते हैं। ग्रामोफोन तथा टेप रिकॉर्डर के द्वारा हम उच्चरित या मौखिक भाषा को बहुत समय तक सुरक्षित रख सकते हैं परंतु मौखिक भाषा को अस्थायी भाषा के रूप में ही देखा जाता। है। विषय क्षेत्र चाहे हिन्दी हो या अंग्रेजी अथवा संस्कृति या कोई अन्य अधिकतम अधिगम प्राप्त करने के लिए मौखिक भाषा के माध्यम से प्रश्नोत्तरों का प्रयोग किया जाता है, छात्रों से वाचन कराया जाता है, वाद-विवाद कराया जाता है। छात्रों को व्याख्यान और निर्देश भी मौखिक रूप से ही दिए जाते हैं जिससे छात्र अधिकतम अधिगम कर सकें। उच्चारण में सुधार, शब्द भण्डार और सही शब्दों की रचना में मौखिक भाषा का विशेष महत्त्व होता है।

मौखिक कार्य और बोलना सिखाना लिखना सिखाने के सर्वोत्तम साधन हैं। यदि बालक वार्तालाप में अपने विचारों को भली-भाँति व्यक्त कर पाता है तो वह अच्छी तरह से प्रवाहयुक्त लिख भी सकता है। आत्माभिव्यंजना का यह प्रारंभिक स्वरूप आगे चलकर बालक को कुशल वक्ता बनने में सहायक होता है। अतः ऐसे नागरिकों की जो स्वयं के विचारों की अभिव्यक्ति द्वारा दूसरों को आकर्षित करके राष्ट्रभक्ति की धारा देश में वहा सकें, राष्ट्र को आवश्यकता होती है। नेतृत्व शक्ति भी भाषण की क्षमता से वृद्धि पाती है। अधिकांशतः देखा जाता है कि कक्षा-कक्ष के प्रारंभिक दिनों में भाषा की शुद्धता की ओर विशेष ध्यान नहीं दिया जाता है परंतु बालकों की झिझक को दूर करने के लिए शिक्षक द्वारा इस कृत्य की ओर ध्यान देना जरूरी हो जाता है क्योंकि इसी कारण से बालक शुद्ध तथा साहित्यिक भाषा बोलना शुरू कर देता है। वार्तालाप से भाषण के स्तर तक पहुँचने के लिए बालक अपनी जिज्ञासाओं के समाधान के लिए प्रश्नोत्तर, कल्पनाओं को उड़ान देने के लिए, कहानी, घटना एवं अनुभव कथन तथा भाषा को सजीव बनाकर शैलीगत विशेषताओं के परिचय हेतु दृश्य, यात्रा और चित्र वर्णन के सोपान पार करने का प्रयास करता है। वाद-विवाद, विचार-विमर्श तथा व्याख्याओं का आधार लेकर बालक भाषण की उचित योग्यता प्राप्त करता है।

डासन के अनुसार, “मौखिक अभिव्यक्ति की नींव तैयार कर देती है।”

कक्षा-कक्ष में मौखिक रूप से शिक्षा देने की विधि

प्रारम्भ में कक्षा-कक्ष का अप्राकृतिक वातावरण भय एवं संकोच बालक के स्वतंत्र वार्तालाप में बाधक होते हैं। जो बालक पाठशाला से बाहर जी खोलकर वार्तालाप करता है, वह विद्यालय में आते ही बिल्कुल.. मौन हो जाता है। अतः शिक्षक को धैर्यपूर्वक बच्चों के संकोच को दूर करने का प्रयास करना चाहिए। जिस प्रकार वे संकोच रहित प्राकृतिक ढंग से परस्पर अपने अनुभवों एवं रुचिकर वस्तुओं के विषय में बात करते हैं, उसी प्रकार वे विद्यालय में भी अपने भावों का व्यक्तिकरण कर सकें, इसके लिए प्रयास करना चाहिए। प्रारंभ में अशुद्धता की ओर ध्यान न देकर उन्हें प्रवाह के साथ आत्मप्रकाशन करने को प्रोत्साहित करना चाहिए। शुद्धता तो धीरे-धीरे अभ्यास होने पर स्वतः आने लगेगी। इस समय तो उनके भाव प्रकाशन में स्पष्टता, सरलता, दृढ़ता, ओज एवं प्रवाह आदि की ओर ध्यान देना आवश्यक है।

मौखिक भाव प्रकाशन का स्वतंत्र अस्तित्व है और जैसा कहा जा चुका है। उसका प्रधान उद्देश्य सार्वजनिक वक्तृता और सार्वजनिक वाद-विवाद के लिए बालकों को प्रस्तुत करना है। लिखित कार्य के पहले अथवा पाठ्य पुस्तक के साथ जो मौखिक कार्य होता है उसे मौखिक रचना नहीं कह सकते। मौखिक आत्मप्रकाशन वही है जिससे बालक कुछ समय तक सक्रिय रूप से किसी विषय या प्रकरण पर बोल सके। इसमें कौशल प्राप्त करने के लिए बालकों को बड़े प्रयास की आवश्यकता होती है। अतः अपेक्षित यह है कि शिक्षक इस अंग पर समुचित ध्यान दें। पुस्तकों, मासिक पत्रिकाओं आदि से विषय-वस्तु खोजने और नियमपूर्वक बोलने का अभ्यास कराना आवश्यक है। आत्म-प्रकाशन के लिए तैयारी जरूरी है। तैयारी करना स्वयं एक प्रकार की शिक्षा है। तैयारी करने का यह आशय नहीं है कि बालक अपनी वक्तृता कण्ठस्थ कर लें। शब्दों की अपेक्षा उनको विचारों का सहारा ग्रहण करना चाहिए। बैलर्ड का परामर्श यह है कि पहला और अंतिम वाक्य कण्ठस्थ कर लेना सहायक होता है। पहले वाक्य से आत्मविश्वास आता है और अंतिम से श्रोताओं पर अच्छा प्रभाव पड़ता है। इसके अतिरिक्त कोई चुटीले शब्द, उद्धरण आदि भी कण्ठस्थ किये जा सकते हैं। बोलने के लिए खड़े होने पर विषय-वस्तु और विचारधारा का ही आश्रय लेना चाहिए। ठीक प्रकार की लेखन शैली के लिए भी मौखिक भाव-प्रकाशन और उसकी शुद्धता का होना आवश्यक है। यदि बच्चे अपने भावों, उद्गारों एवं अपनी इच्छाओं को सरलता, शुद्धता और स्पष्टता से दूसरों पर व्यक्त कर सकते हैं तो वैसा ही शुद्ध और स्पष्ट लिख भी सकते हैं। अतः शुद्ध लिखना सिखाने के लिए यही सुंदर तथा उपयुक्त ढंग है कि उन्हें जैसा लिखना चाहिए, वैसा ही बोलने का अभ्यास कराया जाए।

व्यक्ति के पूर्ण विकास की दृष्टि से भी मौखिक भाषा के प्रयोग का सर्वोच्च स्थान है। अतः उपयुक्त उपकरणों के विकास के लिए बालकों को परस्पर शिक्षकों से, बड़ों और छोटों से वार्तालाप करने का पर्याप्त अवसर देना चाहिए। बालक के वार्तालाप की शुद्धता, स्पष्टता तथा संकोचरहितता के लिए सबसे सुंदर सरल और उपयुक्त साधन कक्षा-कक्ष में वाद-विवाद, अन्त्याक्षरी, भाषण आदि का आयोजन करना है सम्भाषण एवं वाद-विवाद का विषय चुनते समय आवश्यक है कि उनकी आयु योग्यता तथा रुचि के अनुसार ही विषय हो । विषय कक्षा के छात्रों की बुद्धि तथा अनुभवों से परे न हो। प्रारंभिक अवस्था में छात्रों को साधारण जीवनभर का वातावरण, लेकनी, बर्तन, कोई पशु, कला कार्य या कोई स्थूल वस्तु जैसा विषय देना चाहिए, जिस पर वे अपनी इच्छानुसार कविता, संगीत, नाटक, कहानी, रचना आदि सुना सकें या पढ़ सकें, ऊँची कक्षाओं में वाद-विवाद, भाषा तथा आलोचना भी करायी जा सकती है जिससे कक्षा-कक्ष में छात्र मौखिक अभिव्यक्ति में अधिक मुखर हो सकें।

मौखिक भाव-प्रकाशन के अन्य साधन (Different means of oral emotional publication)

मौखिक भाव प्रकाशन मे कुशलता प्राप्त करने में निम्नलिखित साधन सहायक होते हैं-

1. कहानी – कथन-कहानी सुनना तथा सुनाना बालको की अपनी प्रिय वस्तु है । इससे उनमें जिज्ञासा, अवधान और रुचि का विकास होता है। अतः इसके द्वारा भाषण में स्वाभाविकता और प्रवाह उत्पन्न किया जा सकता है। इसमें मनोरंजकता के साथ उनकी कल्पना-शक्ति को भी सजग किया जा सकता है।

2. सत्संग- सत्संग का हमारे भाव प्रकाशन पर बहुत प्रभाव पड़ता है। साधारणतः बालक जैसे वातावरण में रहेगा, उसका उसी प्रकार का वार्तालाप या भाव प्रकाशन होगा। सुंदर, योग्य तथा शिष्ट बालक स्वस्थ तथा शिष्ट वातावरण में ही पाये जाते हैं।

3. संवाद पाठ- संवाद पाठों से सम्भाषण की शिक्षा का अभ्यास भली प्रकार बनाया जा सकता है। विभिन्न अवसरों पर योग्य भाषा का अभ्यास कराने के लिए अध्यापक को संवाद-पाठ कराते रहना चाहिए। इससे बालक देश काल तथा पात्र के अनुसार वार्तालाप करने की महत्ता समझते हैं और उनके अभ्यस्त हो जाते हैं।

4. वाद-विवाद- वाद-विवाद बालक के मानस द्वारा खोलने की कुंजी है। इससे अध्ययन, मनन तथा चिंतन का अभ्यास होता है। तर्क की भावना को प्रोत्साहन मिलता है। अपने विचारों को सुसंगठित एवं सुव्यवस्थित रूप में रखने का बालक प्रयास करने लगता है।

5. चित्रमाला – चित्रों को दिखाकर उसके विषय में बालक के भावों को सचेत कर मौखिक भावाभिव्यक्ति का अवसर प्रदान करना चाहिए। इस प्रकार मौखिक भाषा के विभिन्न साधनों का प्रयोग करके बालक को सफल व्याख्यानदाता बनाया जा सकता है। वास्तविक शिक्षा का आधार मौखिक भाव प्रकाशन तथा उच्चरित भाषा ही है।

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shubham yadav

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