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सामाजिक अनुसंधान की आधारभूत मान्यताएं
जीवन के प्रत्येक क्षेत्र की कुछ न कुछ मान्यतायें होती हैं जिसके बल पर उस क्षेत्र का अस्तित्व निर्भर होता है। फिर वह चाहे सामाजिक हो या प्राकृतिक। इसी प्रकार सामाजिक अनुसंधान की भी कुछ मान्यतायें हैं जिसके बगैर सामाजिक अनुसंधान संभव नहीं है। इसे और स्पष्ट करते हुए कह सकते हैं कि सामाजिक अनुसंधान की आधारभूत मान्यताओं से तात्पर्य उन दशाओं स्थितियों या अवस्थाओं से है जिनके कारण किसी सामाजिक समस्या या घटना के विषय में अनुसंधान कर किसी निष्कर्ष पर पहुँच पाना संभव होता है। इसे हम इस प्रकार भी कह सकते हैं कि सामाजिक अनुसंधान की आधारभूत मान्यताएँ वे विशेषताएँ हैं जिनके रहते हुए किसी सामाजिक घटना या समस्या के विषय में निरीक्षण, परीक्षण, प्रयोग के माध्यम से तथ्यों का संकलन, विश्लेषण, विवेचन और निष्कर्ष निरूपण करते हुए उस घटना या समस्या का अध्ययन किया जा सकता है। सामाजिक अनुसंधान की ऐसी कुछ आधारभूत मान्यताएँ निम्नलिखित हैं-
(1) कार्य-कारण सम्बन्ध- सामाजिक अनुसंधान की सर्वप्रथम मान्यता यह है कि प्रत्येक सामाजिक घटना के पीछे कोई न कोई कारण उत्तरदायी होता है। कारण एक या एक से अधिक हो सकते हैं। बिना कारण के कोई घटना घटित नहीं होती है। इसी आधारभूत मान्यता के आधार पर सामाजिक अनुसंधानकर्ता वैज्ञानिक विधियों के प्रयोग के द्वारा सामाजिक घटना के कारणों को ढूँढने का प्रयास करता है। किसी भी घटना या समस्या को समझने या उसके प्रभावों का पता लगाने के लिए उसके वास्तविक कारणों को दूर कर उस घटना के कुप्रभाव को रोका जा सके या ऐसी घटना की पुनरावृत्ति से बचा जा सके। कारणों की सही जानकारी से किसी भी सामाजिक समस्या के समाधान के उपायों की खोज भी आसान हो जाती है।
(2) क्रमबद्धता- सामाजिक अनुसंधान की दूसरी आधारभूत मान्यता यह है कि कोई भी सामाजिक घटना बेतरतीब, आकस्मिक या अनायास रूप से घटित नहीं होती है। प्राकृतिक घटनाओं के समान ही सामाजिक घटनाएँ भी कुछ स्वाभाविक नियमों को अन्तर्गत एक निश्चित क्रम में ही घटित होती हैं। इसी आधारभूत मान्यता के आधार पर अनुसंधानकर्ता उन स्वाभाविक नियमों एवं अनुक्रमों का पता लगाने का प्रयास करता है जिनके अन्तर्गत कोई भी सामाजिक घटना घटित होती है। सामाजिक जीवन का भी एक क्रम होता है, उसके अपने भी स्वाभाविक नियम होते हैं। इन नियमों एवं घटनाक्रमों की यथार्थ एवं वास्तविक जानकारी से सामाजिक जीवन को सरलता से समझा जा सकता है।
(3) प्रतिनिधित्वपूर्ण निदर्श- सामाजिक अनुसंधान की तीसरी महत्वपूर्ण मान्यता यह है कि अध्ययन करने के लिए समग्र में से ऐसे प्रतिनिधित्वपूर्ण निदर्श का चयन किया जा सकता है जो समस्त समग्र का प्रतिनिधित्व कर सके और जिसमें सम्पूर्ण समय की विशेषताएँ अन्तर्निहित हों। समय, शक्ति और साधनों की सीमाओं को देखते हुए किसी भी सामाजिक घटना, विषय या समस्या से सम्बन्धित समस्त इकाइयों का अध्ययन सम्भव नहीं होता है। अतः विशाल समग्र में से कुछ प्रतिनिधि इकाइयों का अध्ययन कर समग्र के सम्बन्ध में निष्कर्ष निकाला जा सकता है। इसी आधारभूत मान्यता के आधार पर सामाजिक अनुसंधान में अनुसंधानकर्ता एक उपयुक्त निदर्श पद्धति का प्रयोग कर समग्र में से कुछ प्रतिनिधि इकाइयों का चयन करता है तथा उनसे प्राप्त सूचनाओं के आधार पर तथा उनका वैज्ञानिक ढंग से विश्लेषण कर समग्र के सम्बन्ध में सामान्यीकरण करता है।
(4) आदर्श प्रारूप- प्रसिद्ध समाजशास्त्री मैक्स वेबर ने आदर्श प्रारूपों को अपने समाजशास्त्रीय अध्ययनों का आधार बनाया था। आदर्श प्रारूप से तात्पर्य है एक विशेष श्रेणी या एक विशिष्ट प्रकार। इसका अर्थ मूल्यों या आदर्श पद्धति से नहीं है। सामाजिक तथ्य एक दूसरे से पूर्णतया भिन्न नही होते। उनमें कुछ समानताएँ पायी जाती हैं। इन मान्यताओं के आधार पर तथ्यों को कुछ विशिष्ट श्रेणियों में वगीकृत कर दिया जाता है। ये प्रारूप कुछ विशेष गुणसमूहों को प्रकट करते हैं। इन आदर्श प्रारूपों में उस वर्ग की समस्त इकाइयों की विशेषताएँ पाई जाती हैं। इन आदर्श प्रारूपों के अन्तर्गत कुछ प्रतिनिधि इकाइयों का अध्ययन कर समग्र के सम्बन्ध में निष्कर्ष निकालना संभव होता है।
(5) यथार्थ अध्ययन की संभावना- वैज्ञानिक अध्ययन यथार्थ होता है विषयिक नहीं होता। यथार्थ अध्ययन से तात्पर्य वह अध्ययन जो पूर्वाग्रह ग्रसित न हो व पक्षपातपूर्ण न हो जो जैसा है उसे उसी यथार्थ में प्रकट करना यथार्थ अध्ययन है। यथार्थ अध्ययन ही वैज्ञानिक अध्ययन होता है। सामाजिक अनुसंधान की आधारभूत मान्यता यह है कि सामाजिक विषयों एवं घटनाओं का भी यथार्थ अध्ययन किया जा सकता है।
उपर्युक्त मान्यताओं का पालन किये बगैर सामाजिक अनुसंधान संभव नहीं है यदि उक्त नियमों का उल्लंघन किया गया तो निष्कर्ष न सिर्फ गलत होंगे वरन् अन्य को भी दुष्प्रभावित करेंगे।
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