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सामाजिक विघटन की परिभाषा | सामाजिक विघटन की प्रमुख दशायें

सामाजिक विघटन की परिभाषा
सामाजिक विघटन की परिभाषा

सामाजिक विघटन की परिभाषा 

सामाजिक संगठन और सामाजिक विघटन दो सापेक्ष अवधारणायें हैं। सामाजिक विघटन समाज की रोगग्रस्त अवस्था को कहते हैं। जब किसी कारणवश समाज के अंगों में सामंजस्य नहीं रह पाता है, सामाजिक एकता भंग होने लगती है यह स्थिति सामाजिक विघटन कहलाती है।

सामाजिक विघटन वह प्रक्रिया है जो समाज में हमेशा उपस्थित रहती है और समाज में अव्यवस्था को उत्पन्न करती है –

इलियट एवं मैरिल के अनुसार- “सामाजिक विघटन एक प्रक्रिया है जिसके द्वारा एक समूह के सदस्यों के बीच सम्बन्ध टूट जाते हैं या समाप्त हो जाते हैं।”

लैण्डिस के शब्दों में- “सामाजिक नियंत्रण की व्यवस्था का भंग होना और विश्रृंखलता उत्पन्न हो जाना ही सामाजिक विघटन है।’

थॉमस एवं नैनिकी-  “जिन्होंने यूरोप और अमेरिका में पॉलिश किसानों का अध्ययन किया और विघटन के सम्बन्ध में लिखा है कि “सामाजिक विघटन समूह के सदस्यों पर से समाज के मौजूदा नियमों के प्रभाव का कम होना है।”

गिलिन एवं गिलिन के शब्दों में “सामाजिक विघटन से हमारा तात्पर्य सम्पूर्ण सांस्कृतिक ढांचे तथा विभिन्न तत्वों के बीच ऐसा असन्तुलन उत्पन्न होना है जो समूह के अस्तित्व को खतरे में डाल देता है या समूह के सदस्यों की भौतिक आवश्यकताओं को पूरा करने में इतनी गंभीर बाधायें उत्पन्न करता है कि उससे सामाजिक एकता नष्ट हो जाती है।’

समाज के अंगों द्वारा अपने निर्धारित कार्यों को न करना, जिससे संगठन कमजोर होता है, विघटन कहते हैं। जब किसी समुदाय में एक बड़ी संस्था में लोग अवैध साधनों द्वारा अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने लगते हैं तो सामाजिक विघटन की दशा उत्पन्न होती है। सामाजिक विघटन समाज के प्रत्येक पक्ष या सम्पूर्णता से सम्बन्धित है। सामाजिक समस्यायें ही सामाजिक विघटन को जन्म देती है। अतः संक्षेप में हम कह सकते हैं कि सामाजिक विघटन का तात्पर्य समाज के प्रत्येक अंगों का एक-दूसरे से सम्बन्ध खराब होना है।

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सामाजिक विघटन की प्रमुख दशायें

सामाजिक विघटन की प्रमुख दशायें निम्न प्रकार हैं –

1. एकमत्य का ह्रास होना

समाज में सामाजिक विघटन की स्थिति तब उत्पन्न होती है जब समाज के सदस्यों में एकमतता की कमी होती है अर्थात समाज की व्यवस्था को संगठित बनाने के लिये किसी भी विचार या प्रतिमान के लिये एकमत का होना अनिवार्य है यदि एकमत नहीं होगा तो बनाये गये नियम समाज के लिये उपयोगी नहीं होंगे और समाज में विघटन की स्थिति उत्पन्न हो जायेगी।

2. सामाजिक नियंत्रण के साधनों का प्रभाव कम होना

हमारे समाज में सामाजिक नियंत्रण के औपचारिक और अनौपचारिक साधनों का प्रयोग किया जाता है। औपचारिक साधनों के अंतर्गत राज्य, कानून और शिक्षा का प्रयोग किया जाता है जब कि अनौपचारिक साधनों के अन्तर्गत रीति-रिवाज, संस्कार और प्रथाओं का प्रयोग किया जाता है। जब समाज में रहने वाले सदस्य या जनता इन साधनों को महत्व नहीं देती है, तब सामाजिक विघटन की स्थिति उत्पन्न होती है। समाज में रहने वाले सदस्यों पर प्रथाओं, परम्पराओं और रीति-रिवाजों का प्रभाव कम होने लगता है, वे अपने व्यवहारों पर नियंत्रण नहीं रख पाते है, जिससे समाज की व्यवस्था विघटित होने लगती है, कानून की भी अवहेलना होने लगती है, जिससे समाज में विघटन की दशा प्रभावी हो जाती है।

3. व्यक्तिवाद की वृद्धि

समाज में सामाजिक विघटन की स्थिति तब उत्पन्न होती है जब समाज में व्यक्तिवाद की स्थिति का जन्म होता है। लोग समाज के कल्याण के बारे में सोचने के बजाए स्वयं अपने बारे में सोचते हैं। अपने हिते के लिये कार्य करते हैं। उनका अपना स्वार्थ समाज से बढ़कर होता है जिससे व्यक्ति समाज के लिये होने वाले कल्याणकारी कार्यों में अपना भरपूर सहयोग नहीं प्रदान कर पाता, जिससे सामाजिक विघटन की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।

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4. रूढ़ियों एवं संस्थाओं का संघर्ष

प्राचीनकाल से चली आ रही रूढ़ियों और आज वर्तमान समय में बनने वाली विभिन्न प्रकार की संस्थाओं के मध्य होने वाला संघर्ष भी सामाजिक विघटन की स्थिति को उत्पन्न करने के लिये उत्तरदायी माना गया है। युवाओं और बुजुर्गों के विचारों में सदैव से ही मतभेद होता आया है, अपने-अपने स्वार्थ को सिद्ध करने के लिये विभिन्न प्रकार की धार्मिक, राजनैतिक और राजनैतिक संस्थाओं का निर्माण होता है। पहले से चले आ रहे सिद्धान्तों अथवा रुढ़ियों का महत्व कम होता जा रहा है और संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हो रही है, यही सामाजिक विघटन का कारण माना गया है।

5. सामाजिक परिवर्तन की तीव्र गति

समाज एक परिवर्तनशील व्यवस्था है। परिवर्तन प्रकृति का नियम है। निश्चित रूप से प्रत्येक वस्तु में परिवर्तन होता है और यही परिवर्तन यदि तीव्र गति से हो तो समाज में विघटन की स्थिति उत्पन्न हो सकती है क्योंकि यदि परिवर्तन सही दिशा में हो, परिवर्तन की गति निश्चित हो तो समाज की व्यवस्था सुचारू रूप से चलती रहेगी और इसमें जरा भी उतार-चढ़ाव होने से विघटन उत्पन्न हो सकता है। परिवर्तन की जो गति आज से कोई दो दशक पहले थी वह बहुत बढ़ गयी है। U.N.O. के अनुसार किसी भी तकनीकी में बदलाव सात वर्ष में दो गुना हो जाता है। एक ही समाज में तकनीकी क्षेत्र में परिवर्तन की गति तीव्र होती है। इस परिवर्तन की गति तीव्र होने के कारण समाज के सदस्य अपना अनुकूलन नहीं बिठा पाते और सामाजिक विघटन की स्थिति पैदा हो जाती है।

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shubham yadav

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