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सूरदास का श्रृंगार एवं वात्सल्य वर्णन
इसमें कोई सन्देह नहीं कि वात्सल्य और शृंगार रस का जितना अधिक उद्घाटन सूर ने अपनी बन्द आँखों से किया उतना और किसी कवि ने नहीं। यद्यपि मनुष्य जीवन के सम्पूर्ण क्षेत्र में से उन्होंने इन दो ही वृत्तियों को चुना है, किन्तु इन दोनों क्षेत्रों में वे अपनी समता नहीं रखते। जयदेव और विद्यापति की जिस गीत-परम्परा को अपनाकर सूर ने अपने गीतकाव्य की रचना की उसमें शृंगार की ही प्रधानता थी। सूरदास जी बल्लभाचार्य के शिष्य थे और बल्लभ सम्प्रदाय में भगवान के प्रेममय रूप की प्रतिष्ठा हुई थी। अतः सूरदास ने जीवन की बालवृत्ति और यौवनवृत्ति को ही ग्रहण किया तथा जीवन के अन्य क्षेत्रों की ओर उनकी दृष्टि न गई, परन्तु वात्सल्य और शृंगार के वे सम्राट हैं।
बाल सौन्दर्य तथा बाल स्वभाव का वर्णन वात्सल्य के अन्तर्गत आता है। जिस प्रकार बच्चों की स्वाभाविक चेष्टायें माता के हृदय में आनन्द का संचालन करती हैं, इसी प्रकार माताओं का हृदय उनके सौन्दर्य पर भी मुग्ध होकर एक अवर्णनीय आनंद का अनुभव करता है। ‘लाला हौं बारी तेरे मुख पर’ ‘कहाँ लौ बरनौ सुन्दरताई’, ‘हरि जू की बाल छवि कहौं बरनि’ इत्यादि पदों में कृष्ण के बाल-सौन्दर्य का सुन्दर चित्रण मिलता है। धूल में सने हुए था मुख पर दही लपेटे हुए बच्चे का सौन्दर्य किसके मन को वश में नहीं कर लेता। ऐसे बच्चे को देखने का सौभाग्य जिस व्यक्ति को प्राप्त नहीं होता, उनका जीवन निष्फल ही समझना चाहिए। देखिये किस स्वाभाविकता के साथ बाल-सौन्दर्य का उद्घाटन सूर ने निम्नलिखित पद में किया-
सोभित कर नवनीत लिए?
घुटुरुवन चलत रेनु तन मंडित मुख दधि लेप किये ।।
इसी प्रकार ‘किलकत कान्ह घुटुरुवन आवत’ आदि पदों में भी कृष्ण के बाल-सौन्दर्य का प्रभावशाली चित्रण मिलता है। बालकों के स्वभाव-वर्णन में जितनी गहरी दृष्टि सूर की पहुँची है, उतनी अन्य कवि की नहीं। कृष्ण पालने में लेटे हैं वे कभी आँखें मूंद लेते हैं और कभी होंठ फड़काने लगते हैं। माता उन्हें सोया हुआ जानकर अन्य गोपियों के साथ इशारे से बातें करती हैं और कृष्ण के जागने पर तुरन्त गाने लगती हैं, जिससे वे फिर सो जायें। बच्चों के स्वभाव और माता के वात्सल्य का कैसा स्वाभाविक वर्णन है—
कबहुँ पलक हरि मूँदि लेत हैं, कबहुँ अधर फरकावैं।
सोवत जान मौन है रहि-रहि करि-करि सैन बतावैं।
इहि अन्तर अकुलाई उठे हरि जसुमति मधुरै गावै ।
बच्चों की एक आदत होती है जब वे अपने आनन्द में मग्न होते हैं तब वे अपने पैर का अँगूठा चूसने लगते हैं। वह दृश्य कितना सुन्दर होता है यह माता का हृदय ही जान सकता है।
कर गहि पग अँगूठा मुख मेलत।
यशोदा प्रेमवश कृष्ण से दूध पीने का आग्रह करती है और कहती हैं कि ऐसा करने से चोटी बढ़ेगी, किन्तु कृष्ण अपनी चोटी बढ़ती न देखकर यशोदा से कहते हैं। देखिये बच्चों में स्वाभाविक रूप से पाये जाने वाले ‘स्पर्द्धा’ के भाव की कैसी सुन्दर व्यंजना हुई है-
मैया कबहि बढ़ेगी चोटी।
किती बार मोहि दूध पिवत भइ यह अजहूँ है छोटी ॥
कृष्ण यशोदा से चन्द्रमा लाने का आग्रह करते हैं। माता पानी के बर्तन में चन्द्रमा का प्रतिबिम्ब दिखाकर कृष्ण से कहती है कि अभी एक पक्षी को भेजकर मैंने चन्द्रमा को आकाश से बुलाया है। वात्सल्य रस का कितना सुन्दर चित्रण इस पद में मिलता है-
मैया यह चन्दा मैं लैहौं ।
इसी प्रकार ‘खेलन में को काको गुसैयाँ’ तथा ‘मैया मैं नाहिं दधि खायो’ इत्यादि वात्सल्य के पदों में बालक की सूक्ष्म अन्तः प्रकृति तक सूर की पहुँच का परिचय मिलता है।
शृंगार रस के संयोग और विप्रलम्भ दोनों पक्षों का वर्णन सूर ने बड़ा ही मर्मस्पर्शी किया है और इतना अधिक किया है कि कोई कवि इनकीं समता नहीं कर सकता। वृन्दावन में कृष्ण और गोपियों का सम्पूर्ण क्रीड़ामय जीवन संयोग पक्ष के अन्तर्गत आता है। राधा और कृष्ण के अंग प्रत्यंग के चमत्कारपूर्ण वर्णन तथा वृन्दावन के करील-कुञ्जों, लताओं, हरे-भरे कछारों, खिली हुई चाँदनी आदि के वर्णन में विभावों की पूर्णता देखने को मिलती है। अनुभाव और संचारी भावों का इतना बाहुल्य और कहाँ मिल सकता है। तात्पर्य यह है कि शृंगार के संयोग-पक्ष के जितने प्रकार के क्रीड़ा विधान हो सकते हैं वे सब सूर ने लाकर एकत्र कर दिये हैं। राधा और कृष्ण के प्रेम की क्रीड़ाओं के इतने चित्र सामने आते हैं कि सूर का हृदय प्रेम की नाना प्रकार की उमंगों का अक्षय भंडार सा प्रतीत होता है। राधा और कृष्ण वन में साथ जाते हैं और एक-दूसरे के घर भी जाने लगते हैं। अतः इस प्रकार की बातें प्रतिदिन न जाने कितनी बार होती हैं।
सूर का वियोग वर्णन संयोग-वर्णन से भी बढ़ा-चढ़ा है। वियोग की जितनी अन्तर्दशाएँ हो सकती हैं, जितने ढंग से साहित्य में उन दशाओं का वर्णन हो सकता है। वे सब सूर के विरह-वर्णन में मौजूद हैं। वियोग के दुःख मग्न यशोदा नन्द से खीझकर कहती हैं-
छाँड़ि सनेह चले मथुरा कत दौरि न चीर गह्यौ।
फाटि न गई बज्र की छाती कत यह सूल सह्यौ ॥
रसमग्न हृदय ही ऐसी दशा का अनुभव कर सकता है। आगे चलकर गोपियों की विरह दशा का जो धारा प्रवाह वर्णन हुआ है, उसका तो कहना ही क्या? न जाने कितनी मानसिक दशाओं का चित्रण उसमें मिलता है। जो प्राकृतिक पदार्थ संयोग में आनन्द देने वाले होते हैं वे ही विरह में दुःख को बढ़ाने वाले होते हैं। हृदय की इसी भाव-दशा का चित्रण देखिये –
या बिनु होत कहा अब सूनौ।
लै किन प्रगट कियौ प्राची दिसि बिरहिन कौ दुख दूनौ ॥
इसी प्रकार रात उन्हें साँपिन सी लगती हैं। साँपिन की पीठ काली और पेट सफेद होता है। ऐसा प्रसिद्ध है कि वह काट कर उल्टी हो जाती है। बरसात की अँधेरी रात में बादलों की ओट से कभी-कभी निकलती हुई चाँदनी उन्हें ऐसी प्रतीत होती है—
पिया बिनु नागिन कारी राति ।
कबहुक जामिनि होत जुन्हैया डसि उल्टी है जाति ॥
कभी अपने नीरस हृदय के साथ मेल न खाने के कारण गोपियाँ वृन्दावन के हरे वृक्षों को कोसती हैं—
मधुबन तुम कत रहत हरे ।
बिरह वियोग स्याम सुन्दर के ठाढ़े क्यों न जरे ॥
विरह के उन्माद में भिन्न-भिन्न प्रकार की भावनाओं के उठने से एक ही वस्तु कभी किसी रूप में प्रतीत होती है और कभी किसी रूप में कभी बादल भयंकर प्रतीत होते हैं तो कभी अत्यन्त दयालु प्रतीत होते हैं हैं—
बर ये बदराऊ बरसन आये।
अपनी अवधि जानि नन्दनन्दन गरजि गगन घन छाये ॥
कभी पपीहा पिक का स्मरण कराने के कारण गोपियों को दुःखदायी प्रतीत होता है तो कभी बादल के विरह के समान दुःख भोगने वाला होने के कारण उनके आशीर्वाद का पात्र बन जाता है-
बहुत दिन जियो पपीहा प्यारे ।
इसी प्रकार उन्हें कभी तो कवियों द्वारा निश्चित नेत्रों के उपमान अनुचित प्रतीत होते हैं और कभी श्रीकृष्ण के अंगों के उपमान उचित प्रतीत होते हैं-
ऊधो अब यह समझ भई ।
नन्द नन्दन के अंग-अंग प्रति उपमा न्याय दई ।
काव्य-जगत की रचना करने वाली कल्पना इसी को कहते हैं। विरहिणी गोपियों के अन्तःकरण की गहराई तक पहुँचना सूर जैसे कवि का ही काम है। प्रेम की परीक्षा विरह हमें ही होती है। गोपियाँ इस परीक्षा में खरी उतरती हैं। भ्रमर गीत के ‘ऊधो भली करी आये’ आदि पद इसके प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। इसी प्रकार अनेक उदाहरण दिये जा सकते हैं।
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