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सूरदास के बाल-वर्णन पर लेख अथवा सूरदास के बाललीला वर्णन
वात्सल्य वर्णन
रस को पृथक रूप में महत्व देने का श्रेय सूर को ही है। सूर जैसा सहज, सरस, स्वाभाविक और विशद बाललीला वर्णन अन्यत्र दुर्लभ है। सूर को माता यशोदा का हृदय प्राप्त था जिसमें वे बालगोपाल कन्हैया की क्रीड़ाएँ सदैव अनुभव करते थे। यदि सूर के वात्सल्य का शास्त्रीय विश्लेषण करें तो बालक कृष्ण आलम्बन होंगे और नन्द तथा यशोदा आश्रय। अतः कृष्ण की बाल चेष्टाएँ अनुभाव के अन्तर्गत आयेंगी।
वात्सल्य-वर्णन में विशदता- सूर के वात्सल्य-वर्णन अत्यन्त विशद हैं। कृष्ण जन्म की आनन्द बधाई के उपरान्त ही बाललीला का आरम्भ हो जाता है। यह लीलाएँ गोचरन लीला तक चलती रहती हैं। सूर ने इन लीलाओं के अनेक चित्र उपस्थित किये हैं जिनमें बाल वृत्तियों के बाह्य और आन्तरिक स्वरूपों का मनोवैज्ञानिक सूक्ष्म निरीक्षण प्रतिबिम्बित हो उठा है।
बाह्य चेष्टाओं के अनेक चित्र- सूर के वात्सल्य में बाह्य चेष्टाओं के अनेक चित्र सजीव हो उठे हैं। इनमें प्रमुख चित्र हैं-मुख में अँगूठा रखकर किलकारी भरना, माटी खाना, आँगन में लोटना, अपने प्रतिबिम्ब को मक्खन खिलाना, माता की चोटी पकड़ना, चन्द्र खिलौना लेने का प्रस्ताव करना, लड़कों को साथ लेकर भोजन छोड़कर भाग जाना, किसी का दूध लुढ़का देना, माता यशोदा से बलराम और ग्वालों की शिकायत करना, लेटी हुई ग्वालिनी की चोटी पलंग से बाँध देना आदि। चन्द्र का प्रस्ताव करके कृष्ण बाल हठ करते हुए कहने लगते हैं कि मैया मैं तो चन्द्र खिलौना लेकर ही रहूँगा। यदि तू नहीं देगी, तो पृथ्वी पर लोट जाऊँगा, तेरी गोद नहीं आऊँगा, धौरी का दूध तू भी नहीं पिऊँगा और सबसे बड़ी बात यह है कि मैं तेरा पुत्र न कहलाकर नन्द बाबा का सुत कहलाऊँगा। यशोदा पुनः बहलाती हुई कहती हैं कि मैं तुझे चन्द्रमा से भी सुन्दर नई दुलहिन ब्याह दूँगी। बस इतना कहना था कि कृष्ण बाल-हठ पकड़ कर कहने लगते हैं कि मैं अभी ब्याहने जाऊँगा। ब्याह की तैयारी है ही, सखा बराती बन जायेंगे और सखियाँ मिलकर मंगल-गीत गा लेंगी देखिए-
चन्द्र खिलौना लीहौं री मैया चन्द्र खिलौना लीहौं ।
धौंरी को पय पान न करियौं बेती सिर न गुथैहौं ।।
जैहौं लोटि अबै धरती पै तेरी गोद न अइहौं ।
पुत्र कहै हौं नन्द बाबा को तेरो सुत न कहैहौं ।।
कान लाइ छू कहति जसोदा दाउहि नाहिं सुनैहौं ।
चन्द्रहु ते अति सुन्दर तुहि का नवल दुलहिया ब्यैहौं ।।
तेरो सौंह मेरी सुनु मैया अबहौं ब्याहन जैड्हौं ।
‘सूर श्याम’ सब सखा बराती सखियाँ मंगल गैहौं । ।
किन्तु चन्द्र खिलौना देना यशोदा के लिए सम्भव नहीं था। वे चन्द्रमा को आकाश से नहीं ला सकती थीं। इधर बाल कृष्ण न मिलने पर मचल पड़ते हैं-
आन बतावति आन दिखावति बालक तौ न पसीजै ।
खसि-खसि परत कान्ह कनियाँ तै सुसकि सुसकि मन खीजै ।।
यहाँ ‘सुसकि-सुसकि’ कर गोद से खिसक पड़ने में बाल कृष्ण का अन्तःहृदय झाँक उठता है। यशोदा को हार मानकर कहना ही पड़ता है कि-
कहत यशोदा कौन विधि समझाऊँ अब कान।
भलो दिखायौ चन्द्र यह ताहि कहत-हरि खान ।।
इस प्रकार के अनेक उदाहरण लिये जा सकते हैं जिनमें बाल-वृत्तियों का स्वाभाविक चित्रण हुआ है। एक सटीक चित्र और लीजिए। कितनी स्वाभाविक और कितनी मनोहर बाल-चेष्टा है। कृष्ण बलराम माखन रोटी माँगते हुए वे माता की चोटी कसकर पकड़ ही लेते हैं-
दोऊ भैया मैया पै माँगत दे री मैया माखन रोटी।
बलजु गह्यो नासिका मोती कान्ह कुँवर गही दृढ़ करि चोटी ।।
इन बाल-वृत्तियों के अतिरिक्त सूर ने बालकों की खीझ, स्पर्द्धा, चतुराई, ईर्ष्या आदि का भी मनोहारी सूक्ष्म विवेचन किया है। बच्चे परिसर में किस प्रकार एक दूसरे की शिकायत माता से करते हैं, इसका चित्र निम्न उदाहरण में देखने योग्य हैं। कृष्ण ‘बलभैया’ की शिकायत करते हुए कहते हैं-
खेलन अब मेरी जात बलैया ।
जबहिं मोहि देखति लरिकन संग तबहि खिझत बल भैया।।
बालक सब बराबर होते हैं। उनमें छोटे-बड़े का भेद-भाव नहीं होता है। इस तथ्य को सूर ने भली प्रकार से स्पष्ट किया है। खेल में कृष्ण हारे होते हैं। हार कर रुष्ट हो जाते हैं। दाँव देना नहीं चाहते अतः सभी उन्हें ताना देते हुए कहते हैं-
खेलत में को काको गुसैयाँ ।
हरि हारे जीते श्रीदामा बरबस ही कत करत रिसैयाँ ।
जाति-पाँति तुमसे कम नाहिं नहिं बसत तुम्हारी छैया ।।
अति अधिकार जनावत याते अधिक तुम्हारे हैं कछु गैयाँ ।
रूठहि परै तासों को खेलै बैठि गये जहँ तहँ सब गुइयाँ ।।
परन्तु कृष्ण भी खेलना चाहते हैं। इसलिए वे नन्द की दुहाई देकर दाँव देते हैं। इस प्रकार सूर के वात्सल्य-वर्णन में एक से एक बढ़कर सजीव चित्र बाल मनोवृत्तियों के मिल जाते हैं जिनमें उन्होंने बाल सुलभ स्वाभाविक चेष्टाओं का मनोवैज्ञानिक सूक्ष्म निरीक्षण प्रस्तुत किया है।
मातृ-हृदय की झाँकी- उपयुक्त बाल-चेष्टाओं के निरूपण के साथ-साथ मातृ-हृदय की झाँकी भी सूर ने प्रस्तुत की है। माता का हृदय शिशु के प्रति कितनी अधिक अभिलाषाओं से भरा हुआ होता है, पारखी सूर इसे भली प्रकार जानते थे। अनेक पदों में माता के हृदय की स्वाभाविक अभिलाषाएँ अभिव्यक्त हुई हैं। कुछ उदाहरण लीजिये-
कब मेरो लाल घुटुरुवन डोले ।
X X X
बाल दशा कर निरखि जमोदा पुनि-पुनि नन्द बुलावति ।
अँवरा तर लै ढाँकि सूर के प्रभु को दूध पिआवति ।।
नन्द यशोदा का बालक कृष्ण के प्रति जितना उत्कृष्ट प्रेम था वियोग भी उतना ही दारुण हो गया। कृष्ण के मथुरा गमन के समय यशोदा की दयनीय दशा हो जाती है।
जसोदा बार-बार यों भाखै ।
है ब्रज में कोऊ हितू हमारो चलत गोपालहि राखै ।।
उन्होंने देवकी को जो सन्देश भेजा उसमें कोमल मातृत्व की लालसा सजीव हो उठी है-
संदेसौ देवकी सों कहियो ।
हौं तो धाय तिहारे सत की मया करति ही रहियो ।
तुम तौ टेक जानतहिं है तो तऊ मोहि कहि आवै ।।
होत प्रात मेरे लाल लड़ैतेहि माखन रोटी भावै ।।
निष्कर्ष- वात्सल्य की इन स्वाभाविक वृत्तियों के साथ-साथ कृष्ण के ब्रह्मरूप का ध्यान भी सूर की आँखों से ओझल नहीं होता। बाल-लीला में ‘माटी खाने’, अँगूठा मुख में रखने आदि के प्रसंगों में उनके ब्रह्म-रूप के दर्शन वे कराते चले हैं। सखाओं के साथ छीन छीनकर छाछ खाते समय वे उनका हरि-रूप प्रकट कर देते हैं
ब्रजवासी कोउ पटतर नाहीं ।
ब्रह्म, सनक, शिव ध्यान न पावत, इनकी जूठिन लै लै खाही ।।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि सूर ‘वात्सल्य के सम्राट हैं, उन्होंने इसका कोई कोना अछूता नहीं छोड़ा। इस क्षेत्र में उनकी कोई समता नहीं कर सकता।
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