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स्वतन्त्रता की परिभाषा
स्वतन्त्रता की परिभाषा करते हुए कहा जा सकता है कि “स्वतन्त्रता जीवन की ऐसी अवस्था का नाम है जिसमें व्यक्ति के जीवन पर न्यूनतम प्रतिबन्ध हों और व्यक्ति को अपने व्यक्तित्व के विकास हेतु अधिकतम सुविधाएं प्राप्त हों।”
स्वतन्त्रता का नकारात्मक दृष्टिकोण : जे.एस.मिल
स्वतन्त्रता के नकारात्मक दृष्टिकोण का सबसे अधिक प्रमुख रूप में प्रतिपादन जे. एस. मिल के द्वारा 1859 ई. में प्रकाशित अपने निबन्ध ‘स्वतन्त्रता’ में किया गया है। मिल का कथन है कि व्यक्ति का उद्देश्य अपने व्यक्तित्व का उच्चतम एवं अधिकतम विकास है और यह विकास केवल स्वतन्त्रता के वातावरण में ही सम्भव है। यदि व्यक्ति को यह स्वाधीनता न दी जाए तो मानव जीवन का मूल लक्ष्य ही विफल हो जायेगा। समाज की उन्नति और विकास के लिए भी व्यक्ति को स्वतन्त्र अधिकतम स्वाधीनता देना आवश्यक है। इस प्रकार मिल के अनुसार, ‘व्यक्ति के जीवन में राज्य का न्यूनतम हस्तक्षेप और अधिकतम सम्भव सीमा तक व्यक्ति को अपनी इच्छानुसार जीवन व्यतीत करने की छूट ‘ही स्वतन्त्रता है और वह इसे अपनाने पर बल देता है। मिल व्यक्ति स्वतन्त्रता की इस स्थिति का प्रबलतम समर्थक है। और अपने व्यक्ति-स्वातन्त्र्य के दो पहलुओं पर बल दिया है— विचार स्वातन्त्र्य और कार्य स्वातन्त्र्य।
मिल के अनुसार, प्रत्येक व्यक्ति को विचार और अभिव्यक्ति की पूर्ण स्वतन्त्रता प्राप्त होनी चाहिए तथा राज्य के द्वारा किसी भी प्रकार की विचारधारा या भावाभिव्यक्ति पर कोई बन्धन नहीं लगाया जाना चाहिए। मिल न केवल सभी सामान्य व्यक्तियों वरन् स की अभिव्यक्तियों को भी विचार की स्वतन्त्रता देने के पक्ष में हैं।
कार्य स्वातन्त्र्य के प्रसंग में, मिल मानव कार्यों को दो भागों में विभाजित करता (1) स्व-विषयक अर्थात् व्यक्ति के व्यक्तिगत जीवन से सम्बन्धित है (2) पर-विषयक अर्थात् ऐसे कार्य, जिनका प्रभाव समाज के अन्य व्यक्तियों के जीवन पर पड़ता है।
मिल का कथन है कि स्व-विषयक कार्यों में व्यक्ति को पूर्ण स्वाधीनता प्राप्त होनी चाहिए, लेकिन पर विषयक कार्यों में व्यक्ति की स्वतन्त्रता सीमित होती है, विशेषकर जबकि उसके कार्यों से समाज के अन्य व्यक्ति की स्वतन्त्रता में बाधा पहुँचती हो ।
मिल व्यक्ति स्वतन्त्र्य की रक्षा न केवल राज्य के हस्तक्षेप से वरन् असहिष्णु समाज, बहुमत और परम्पराओं के दबाव से करने के लिए भी प्रयत्नशील है।
मिल व्यक्ति के जीवन पर ‘न्यूनतम प्रतिबन्धों की स्थिति’ को स्वतन्त्रता का नाम देते हुए स्वतन्त्रता के नकारात्मक दृष्टिकोण का प्रतिपादन करता है। आज की परिस्थितियों में मिल की इस स्वतन्त्रता को वास्तविक स्वतन्त्रता नहीं कहा जा सकता है। इसी कारण अर्नेष्ट बार्कर टिप्पणी करते हैं
“मिल हमें खोखली स्वतन्त्रता और काल्पनिक व्यक्ति का ही पैगम्बर लगता है। व्यक्ति के अधिकराओं के सम्बन्ध में, उसके पास कोई स्पष्ट दर्शन नहीं था, जिसके आधार पर स्वतन्त्रता की धारणा को कोई सार्थक रूप प्राप्त हो पाता।”
हैरल्ड लास्की के स्वतन्त्रता विषयक विचार
लास्की ने अपनी विविध रचनाओं में स्वतन्त्रता के सम्बन्ध में अलग-अलग विचार व्यक्त किए हैं। अपनी प्रारम्भिक रचनाओं, यथा (1918) में वह ‘नकारात्मक स्वतन्त्रता’ के समर्थक के रूप में सामने आता है, लेकिन उत्तरकाल की रचनाओं यथा (1929) और (1930) में उसने ऐसे विचार व्यक्त किए हैं, जो उसे ‘सकारात्मक स्वतन्त्रता’ का प्रबल समर्थक बना देते हैं।
लॉस्की अपनी प्रारम्भिक रचनाओं में इस बात पर बल देता है कि व्यक्ति के जीवन पर अनुचित प्रतिबन्धों का अभाव होना चाहिए’, लेकिन अपनी उत्तरवर्ती रचनाओं में उसने स्वतन्त्रता के तीन रूपों की ओर संकेत किया है। ये हैं-व्यक्तिग स्वतन्त्रता, राजनीतिक स्वतन्त्रता और आर्थिक स्वतन्त्रता व्यक्तिगत स्वतन्त्रता, व्यक्तिगत जीवन अपनी इच्छानुसार, व्यतीत करने की स्थिति है और राजनीतिक स्वतन्त्रता का अर्थ है, ‘राज्य के मामलों में सक्रिय हो पाने की शक्ति ।’
व्यक्तिगत और राजनीतिक स्वतन्त्रता की तुलना में लॉस्की आर्थिक स्वतन्त्रता को अधिक महत्त्व देता है। आर्थिक स्वतन्त्रता का आशय है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपनी योग्यतानुसार रोजी कमाने का अवसर मिले और वह बेकारी से मुक्त रहे। वह आर्थिक स्वतन्त्रता के अन्तर्गत व्यक्ति की आर्थिक सुरक्षा और उद्योग में लोकतन्त्र के समावेश’ को भी स्थान देता है। 1930 ई. बाद लॉस्की ने इस बात पर बहुत अधिक बल दिया कि स्वतन्त्रता का विचार
समानता के साथ जुड़ा हुआ है और समानता के बिना स्वतन्त्रता एकांगी तथा अपूर्ण है। इस प्रकार लॉस्की ‘नकारात्मक स्वतन्त्रता और ‘सकारात्मक स्वतन्त्रता’ दोनों के ही प्रबल समर्थक के रूप में हमारे सामने आता है। अपने जीवन के उत्तरार्द्ध में तो लॉस्की ने ‘सकारात्मक ‘स्वतन्त्रता’ का प्रबल रूप से पक्ष ग्रहण किया है। इस दृष्टि से लॉस्की के नाम को ‘नकारात्मक’ स्वतन्त्रता’ के साथ नहीं जोड़ा जाना चाहिए।
स्वतन्त्रता का सकारात्मक दृष्टिकोण : ग्रीन और बोसांके
वर्तमान समय में यह विचार बलवती है हो रहा है कि ‘व्यक्ति’ के जीवन पर प्रतिबन्धों के अभाव मात्र से व्यक्ति का विकास सम्भव नहीं है। अतः स्वतन्त्रता के नकारात्मक दृष्टिकोण के स्थान पर ‘सकारात्मक दृष्टिकोण’ का प्रतिपादन किया जा रहा है। स्वतन्त्रता के इस सकारात्मक दृष्टिकोण के साथ सबसे अधिक प्रबल रूप में थॉमस हिल ग्रीन का नाम जुड़ा हुआ है। बोसांके ने ग्रीन के इन विचारों को ही अपनाया है।
ग्रीन स्वतन्त्रता विषयक विचारों के सम्बन्ध में काण्ट की ‘स्वतन्त्र नैतिक इच्छा’ और हीगल की ‘सकारात्मक स्वतन्त्रता’ की धारणा से प्रभावित है। ग्रीन के अनुसार, स्वतन्त्रता न तो केवल हस्तक्षेप का अभाव मात्र है और न ही मनमानी करने की छूट क्योंकि इसके अन्तर्गत कार्य करने की उस प्रवृत्ति पर ध्यान नहीं दिया गया, जिसमें व्यक्ति की इच्छा सन्तुष्टि प्राप्त होती है। एक ऐसे व्यक्ति को स्वतन्त्र कैसे कहा जा सकता है जो मृत्यु की सीमा तक मद्यपान करता है या जुए द्वारा स्वयं अपने परिवार का विनाश करता है।
ग्रीन के मतानुसार स्वतन्त्रता न तो केवल हस्तक्षेप का अभावमात्र है और न ही मनमानी करने की छूट। हस्तक्षेप का अभावमात्र केवल नकारात्मक स्वतन्त्रता होगी और यदि स्वतन्त्रता का अर्थ मनमानी करने की छूट ले लिया जाए, तो उसमें तथा उच्छृंलता में कोई अन्तर न रह जाएगा। अतः स्वतन्त्रता के दो लक्षण हैं— (1) स्वतन्त्रता एक निश्चित प्रकार के कार्यों को ही करने की सुविधा हैं, अर्थात् उचित या विधि-विहित कार्यों को करने की, जो हमारी आत्मोन्नति में सहायक हों। (2) यह सकारात्मक होती है, अर्थात् वह हस्तक्षेप का अभावमात्र ही नहीं, वरन् ऐसी परिस्थितियों और वातावरण की उपलब्धि है, जिसमें व्यक्तित्व का विकास सम्पन्न हो सके।
ग्रीन ने उपयोगितावादियों या व्यक्तिवादियों की नकारात्मक स्वतन्त्रता के स्थान पर सकारात्मक स्वतन्त्रता का प्रतिपादन किया। इसका अभिप्राय यह है कि व्यक्ति द्वारा अपनी योग्यता और गुणों के विकास के लिए राज्य की शक्ति का प्रयोग किया जा सकता है। व्यक्ति की स्वतन्त्रता तथा राज्य के कार्यों में परस्पर कोई विरोध नहीं होता। अतः राज्य व्यक्ति की स्वतन्त्रता का शोषक नहीं वरन् पोषक है।
ग्रीन के विचारधारा के अनुसार स्वतन्त्रता केवल एक साधन है और साध्य है सामाजिक कल्याण में समान योगदान के लिए सबकी शक्तियों को मुक्त करना। इसलिए कोई मनुष्य किसी की सम्पत्ति नहीं हो सकता और न कोई मनुष्य दूसरे का साधन बन सकता है। चूँकि श्रम व्यक्ति के व्यक्तित्व से सम्बन्धित है, इसलिए यदि पूँजीपति और मजदूरों के सम्बन्धों से सामाजिक भलाई में स्वतन्त्र योगदान देने से व्यक्ति को बाधा पड़ती है, तो श्रम के बेचने पर नियन्त्रण किया जाना आवश्यक है। रोशनी और स्वच्छ वायु की कमी वाले कारखाने और अधिक पास के घण्टे व्यक्ति के इस योगदान को सीमित करते हैं, इसलिए कारखानों के अस्वस्थ वातावरण को हटाने वाली, श्रम के घण्टे निर्धारित करने वाली था अनिवार्य शिक्षा की व्यवस्था करने वाली विधियां व्यक्ति की स्वतन्त्रता सीमित नहीं करती, वरन् व्यक्ति को अपनी शक्ति के प्रयोग की सुविधा देकर उसे स्वतन्त्रता करती है। ग्रीन के ही शब्दों में, “हमारा आधुनिक नियमन, जो श्रम, शिक्षा और स्वास्थ्य से सम्बन्ध रखता है और जो हमारे समझौते की स्वतन्त्रता में अधिकाधिक हस्तक्षेप मालूम होता है, इस आधार पर न्यायोचित है कि राज्य का कार्य यद्यपि प्रत्यक्ष रूप से नैतिक अच्छाई बढ़ाना नहीं है, फिर भी उन परिस्थितियों को बनाता है जिनके बिना मानवीय शक्तियों का स्वतन्त्र रूप से कार्य करना असम्भव है।”
इस प्रकार ग्रीन व्यक्ति की स्वतन्त्रता के लिए समाज और राज्य के नियमों को आवश्यक मानता है। यही ग्रीन का सकारात्मक स्वतन्त्रता का विचार है।
बोसांके का स्वतन्त्रता का सिद्धान्त
बोसांके की स्वतन्त्रता विषयक धारणा पर रूसो, काण्ट, हीगल और ग्रीन का प्रभाव है। वह ग्रीन के ही समान ‘सकारात्मक स्वतन्त्रता’ का प्रतिपादन करता है।
बोसांके ‘प्राकृतिक स्वतन्त्रता’ की किसी धारणा में विश्वास नहीं करता। उनके अनुसार स्वतन्त्रता व्यक्ति की वह अवस्था है जिसमें वह अनेक यातनाओं, दबावों, नियन्त्रणों, दमन और पराधीनताओं के होते हुए भी कुल मिलाकर अपने आपको केवल अपने वश में होना मानता है। एक व्यक्ति जो दास नहीं है, वह एक स्वतन्त्र नागरिक हो, यह आवश्यक नहीं है। उसकी उक्ति है, ‘एक व्यक्ति दास से अधिक होकर भी स्वतन्त्रता नागरिक से कम हो सकता है। बोसांके का यह कथन रूसो के इस विचार के अनुसार है, जिसमें उन्होंने कहा था, ‘एक व्यक्ति (सदिच्छापूर्ण) राज्य का नागरिक स्वतन्त्र हो जाता है।’
बोसांके के अनुसार, स्वतन्त्रता ऐसी व्यवस्था और परिस्थितियों का निर्माण है जो व्यक्ति को उसका सही सार्वभौमिक व्यक्तित्व प्रदान करता है। बोसांके इसे ‘उच्च प्रकार की स्वतन्त्रता’ या ‘नैतिक स्वतन्त्रता’ का नाम देता है। उसकी इस नैतिक स्वतन्त्रता में स्वतन्त्रता के दोनों ही पक्ष (निषेधात्मक और सकारात्मक) विद्यमान हैं और अर्थात् नियन्त्रण से कुछ मुक्ति भी है और कुछ कर सकने की छूट भी है। वह मुक्ति भी दूसरों से नहीं, वरन् अपने आपकी निम्नताओं से मुक्ति है।
बोसांके लिखते है, “स्वतन्त्रता का तात्पर्य स्वयं की उपलब्धि है और स्वतन्त्रता की पूर्ण स्थिति वह है जिसमें हम पूर्णरूपेण स्वयं की उपलब्धि कर लेते हैं।” एक स्वतन्त्र इच्छा शक्ति वह है जो अपने आपकी इच्छा करती है। तात्पर्य यह है कि यह आत्मिक शक्ति है जो इन्द्रियजन्य सुखों की इच्छा न करके ‘सार्वभौमिक आत्मा’ की ही इच्छा करती है। इस प्रकार बोसांके ने ग्रीन के ही तर्क को अपनाया है। बोसांके ने ‘यथार्थ और आदर्श’ इच्छा की शब्दावली भी ज्यों की ज्यों अपना ली है और यह दिखाने का प्रयत्न किया है कि व्यक्ति जो कुछ भी अपनी स्वार्थपरक व इन्द्रियजन्य इच्छा के द्वारा प्राप्त करना चाहता है, वह यथार्थ होते हुए भी वास्तविक (आदर्श) इच्छा इन्द्रिय सुख व विलासी इच्छाओं से परे हैं। यह वह इच्छा आय आत्मिक शक्ति होती है। जिसमें अपने कल्याण के साथ सभी का कल्याण निहित होता है।
इस प्रकार बोसांके ‘सकारात्मक स्वतन्त्रता’ की धारणा को ‘भावात्मक ऊँचाइयां’ प्रदान कर देता है।
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