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1942 का क्रिप्स का शिष्टमण्डल
1942 का क्रिप्स का शिष्टमण्डल- समस्या बनी रही और युद्ध भी चलता रहा। दिसम्बर 1941 में जापान भी युद्ध में बुरी शक्तियों की ओर से सम्मिलित हो गया। अतएव 1942 के आरम्भ में अंग्रेजों ने पुनः राजनैतिक गुत्थी को सुलझाने का प्रयत्न किया। मार्च 1942 को ब्रिटिश प्रधानमन्त्री चर्चिल (Churchill) ने एक घोषणा की कि “युद्ध मन्त्रिमण्डल (War Cabinet ) ने भारत के विषय में एक मत होकर कुछ निर्णय किए हैं और हाऊस ऑफ कामन्ज के नेता पर स्टैफर्ड क्रिप्स (Sir Staferd Cripps) भारत जाकर स्वयं निजी विचार-विमर्श से अपने आपको संतुष्ट कर इस निर्णय से लोगों को अवगत कराएंगे और यह निर्णय एक न्याय पूर्ण और अन्तिम निर्णय होगा और अभीष्ट मन्तव्य प्राप्त कर लेगा।” सर स्टेफर्ड क्रिप्स को यह भी आदेश था “कि वह न केवल बहुसंख्यक हिन्दुओं से ही आवश्यक सहमति प्राप्त करें अपितु सबसे अधिक संख्यक, अल्पसंख्यक जाति मुसलमानों से भी सहमति प्राप्त करें।” भारत पहुँचते ही सर स्ट्रेफर्ड क्रिप्स ने प्रस्तावित मसविदा (Draft Resolution) कार्यकारी परिषद के सन्मुख रखा (23-3-1942) और दो दिन पश्चात् भारतीय नेताओं के सन्मुख 29 मार्च को यह प्रस्ताव एक पत्रकार सम्मेलन में जनता के सम्मुख रख दिया गया। इसके पश्चात् लगभग 15 दिन बातचीत चलती रही परन्तु असफल रही। महात्मा गांधी ने इसे “उत्तरतिथीय चैक” (Post-Dated Cheque) की संज्ञा दी और किसी और व्यक्ति ने उसमें यह जोड़ दिया कि “ऐसे बैंक पर जो टूट रहा है।”
क्रिप्स मिशन द्वारा प्रस्तावित मसविदा
प्रस्तावित मसविदा इस प्रकार था-
1. युद्ध समाप्त होते ही निम्नलिखित रीति से भारतीयों का एक निर्वाचित निकाय बनाया जाएगा जोकि भारत के लिए एक नया संविधान बनाएगा।
2. इस संविधान सभा में भारतीय रियासतों को भी सम्मिलित करने का प्रबन्ध किया जाएगा।
3. अंग्रेजी सरकार इस संविधान को निम्नलिखित शर्तों पर स्वीकार कर लेगी। (अ) अंग्रेजी प्रान्तों में जो इस को स्वीकार न करना चाहे उसे अधिकार होगा कि अपनी पुरानी स्थिति में बना रहे और फिर जब वह चाहे इस संविधान में सम्मिलित हो सके। न सम्मिलित होने वाले प्रान्तों को भी वही पद प्राप्त होगा जोकि शेष भारतीय संघ को होगा। (ब) जिस संधि के अनुसार, अंग्रेजों द्वारा भारतीयों को पूर्ण अधिकार दिए जायेंगे उसमें जातीय तथा धार्मिक अल्पसंख्यकों की रक्षा इत्यादि के प्रबन्ध किए जायेंगे परन्तु इस पर अन्य अंग्रेज राष्ट्रमण्डल के सदस्यों के साथ सम्बन्धी पर कोई प्रतिबन्ध नहीं होगा। कोई अन्य भारतीय रियासत इस संविधान से सम्बन्ध बनाए अथवा नहीं, परन्तु यह आवश्यक होगा कि इस नई परिस्थिति में इनसे सन्धि सम्बन्धों को आवश्यकतानुसार परिवर्तित किया जा सके।
4. संविधान बनाने वाली सभा का चुनाव प्रान्तीय विधान सभाओं के निम्न सदन द्वारा, अनुपाती प्रतिनिधित्व के अनुसार किया जाएगा।
5. जब तक यह नया संविधान नहीं बनेगा, ब्रिटिश सरकार भारत की रक्षा के लिए उत्तरदायी होगी, परन्तु वह मुख्य भारतीय लोगों के नेताओं का तुरन्त और प्रभावशाली ढंग से राष्ट्रमण्डल और संयुक्त राष्ट्र के कार्य में योगदान चाहती है ताकि वे उस कार्य के जो भावी भारतीय स्वतन्त्रता के लिए अत्यन्त आवश्यक है के निभाने और पूर्ण करने में सक्रिय तथा निर्माणकारी सहायता कर सकें.”
इस प्रस्तावित घोषणा के मुख्य अंग इस प्रकार थे- प्रादेशिक शासन स्वतन्त्रता और देश के विभाजन की सम्भावना और शक्ति हस्तान्तरित होते समय अल्पसंख्यकों की रक्षा के सम्बन्ध में संधि करना। जब तक नया संविधान न बने तब तक गवर्नर-जनरल की तत्कालीन स्थिति बनी रहे और अंग्रेज ही भारत की रक्षा के लिए उत्तरदायी हों। जैसा कि पण्डित जवाहर लाल नेहरू ने कहा था, “समकालीन सरकार का ढाँचा उसी प्रकार रहेगा और वाइसराय की निरंकुशता बनी रहेगी, और हम में से कुछ लोग वर्दी पहनकर उसके सेवक तथा अल्पाहार गृहों (canteens) इत्यादि की देखभाल करना आरम्भ कर देंगे।”
इस प्रस्ताव पर विचार- इस घोषणा में अगस्त प्रस्ताव से निश्चय ही कुछ अधिक अधिकार देने की बात कही गई थी अर्थात् इसमें ब्रिटिश राष्ट्रमण्डल से अलग होने की बात कही गई थी, संविधान बनाना मुख्यतः नहीं अपितु पूर्णतः भारतीयों का काम होगा, संविधान सभा का उल्लेख था। इसी प्रकार अन्तरिम समय में भारतीयों को राष्ट्रमण्डल और संयुक्त राष्ट्र के कार्य में सहायता देने को कहा गया था।
परन्तु इस घोषणा से किसी को भी सन्तोष नहीं हुआ । प्रत्येक दल ने भिन्न-भिन्न कारणों से इसको अपर्याप्त माना। कांग्रेस को इसके अन्तरिम प्रबन्ध से असन्तोष था। उसे इसके रक्षा सम्बन्धी प्रस्ताव स्वीकार नहीं थे। इसी प्रकार कांग्रेस को इस बात का भी औपचारिक आश्वासन नहीं मिला कि इस बीच गवर्नर-जनरल मन्त्रियों के कहने पर तथा संवैधानिक मुखिया के रूप में कार्य करेगा। इसी प्रकार वह भारतीय प्रान्तों के अलग होने को स्वीकार करने को तैयार नहीं थी। यही विचार हिन्दू महासभा के थे। सर तेज बहादुर सप्रू और श्री जयकर भी इस बंटवारे के पक्ष में नहीं थे। सिक्ख ‘भी पंजाब के भारत से अलग किए जाने के पक्ष में नहीं थे। इस प्रकार पिछड़ी हुई जातियां भी अपने लिए संरक्षणों के न मिलने से अप्रसन्न थीं।
मुस्लिम लीग एक संघ बनाए जाने, संविधान सभा की रचना तथा एक प्रान्त के पृथक होने के लिए उसकी इच्छा जानने की विधि इत्यादि से अप्रसन्न थी, विशेषकर इसलिए कि उसमें स्पष्ट पाकिस्तान बनाए जाने की बात नहीं कही गई थी।
इन त्रुटियों के अतिरिक्त अंग्रेजों का यह भी कहना कि यह योजना अगस्त 1940 की योजना का ही रूप है जिसको अधिक स्पष्ट किया गया है। इसका उद्देश्य उस पुराने प्रस्ताव का अधिक्रमण करना नहीं है। इन शब्दों से बहुत निराशा हुई क्योंकि ऐसा लगा कि अंग्रेजों का उद्देश्य शक्ति का हस्तान्तरण करना नहीं है।
” इसी प्रकार प्रान्तों के पृथकीकरण की प्रक्रिया भी इस प्रकार की थी जिससे पंजाब और बंगाल में हिन्दुओं की परिस्थिति बहुत ही डांवांडोल हो जाती थी। इसके अतिरिक्त उत्तरदायित्व का हस्तान्तरण करते समय संधि किससे होगी। यह भी स्पष्ट नहीं था।
यह समस्त योजना जिसमें क्रिप्स का नाम जुड़ गया है, केवल सभी भारतीयों की युद्ध में सहायता प्राप्त करने का एक उपाय मात्र लगता था, एक शुद्ध भावना से किया हुआ भारतीय समस्या का हल नहीं था। जैसा कि प्रोफेसर हेरल्ड जे. लास्की ने कहा था, “इस समस्त प्रक्रिया में केवल एक ही अच्छी बात थी, वह थी सर स्ट्रेफर्ड क्रिप्स का स्वयं जाना, जिसके लिए श्री एटली को श्रेय मिलना चाहिए…….. इसमें बहुत जल्दी की गई…….. इसमें सर स्ट्रेफर्ड क्रिप्स का यह कहना कि इसे ‘स्वीकार करो अथवा छोड़ दो’ और वापिस लौटने पर यह कहना कि यह प्रस्ताव समाप्त हो गया है, यह अच्छा नहीं था। इससे यह लगता था कि हमारा उद्देश्य भारत की स्वतन्त्रता देना नहीं है। अपितु अपने मित्रों में एक प्रकार का प्रचार करना था जो प्रायः अमरीका-फिलिपीन्स के सम्बन्धों की भारत-आंग्ल सम्बन्धों से तुलना किया करते हैं। “
प्रायः क्रिप्स शिष्टमण्डल के प्रस्तावों को पूर्णतया असफल समझा जाता है परन्तु युद्ध के जीतने पर वही “टूटते हुए बैंक पर उत्तरतिथीय चैक” की हुंडी सकारित हो गई।
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