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ऐतिहासिक शोध का अर्थ
ऐतिहासिक शोध / अनुसन्धान अध्ययन की वह विधि है जिसके अन्तर्गत ऐतिहासिक घटनाओं या अतीत के तथ्यों के क्रमविन्यास नियमितताओं तथा सामाजिक प्रभावों के सम्बन्ध में वर्तमान सामाजिक सांस्कृतिक घटनाओं की व्याख्या व विश्लेषण किया जाता है।
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ऐतिहासिक शोध का परिभाषा
रेडक्लिफ ब्राउन के अनुसार, “ऐतिहासिक पद्धति वह विधि है जिसमें कि वर्तमान काल में घटित होने वाली घटनाओं को भूतकाल में घटित हुई घटनाओं के धारा प्रवाह व क्रमिक विकास को एक कड़ी के रूप में मानकर, अध्ययन किया जाता है।”
पी.वी. यंग के अनुसार “ऐतिहासिक पद्धति आगमन के सिद्धान्तों के आधार पर अतीत की उन सामाजिक शक्तियों की खोज है जिन्होंने वर्तमान को ढाला है।
इस प्रकार ऐतिहासिक पद्धति, शोध की वह अध्ययन विधि है जिसमें कि सर्वप्रथम घटनाओं, तथ्यों तथा मनोवृत्तियों के भूतकालीन झुकाव व प्रवृत्तियों को तथा मानवीय चिन्तन व क्रिया में विकास का क्रम ढूँढ निकाला जाता है और उससे प्राप्त परिणामों के आधार पर वर्तमान सामाजिक घटनाओं को समझने तथा उनसे सम्बन्धित नियमों को प्रतिपादित करने का प्रयत्न किया जाता है।
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एतिहासिक अनुसन्धान के स्रोत (Source of Historical Research)
ऐतिहासिक अनुसन्धान के अध्ययन हेतु उन स्रोतों की जानकारी आवश्यक है जिनके द्वारा अतीत की घटनाओं अथवा तथ्यों को समझा जा सकता है। लुण्डबर्ग ने ऐतिहासिक तथ्यों के दो प्रमुख स्रोत बताये हैं – यह
1. लिखित सामग्री- विभिन्न प्रलेखों, प्राचीन ग्रन्थों, शिलालेख, प्राचीन सिक्कों तथा प्राचीन इमारतों पर दिये गये विवरण आदि किसी भी रूप में हो सकती है।
2. द्वितीय- पुरातत्व विभाग द्वारा भूमि की खुदाइयों से प्राप्त वस्तुयें, जैसे मूर्तियों, बर्तन अथवा – अन्य अवशेष आदि ।
बिन्सेट ने ऐतिहासिक सामग्री के तीन स्रोतों का उल्लेख किया है-
1. लिखित सामग्री- जैसे कथायें, वृत्तान्त, डायरियाँ, वंशावलियाँ, चित्र, सिक्के तथा कलात्मक – वस्तुयें आदि ।
2. स्मारक चिन्ह्न- जैसे मानव के अस्थि पंजर, उपकरण, व्यापारिक अभिलेख, संस्थापक स्वरूप तथा हस्तशिल्प की वस्तुएँ आदि ।
3. तृतीय- विभिन्न शिलालेख, जिनका सम्बन्ध प्राचीन दर्शन, घटनाओं एवं लोक साहित्य से होता है।
पी. वी. यंग ने ऐतिहासिक तथ्यों के तीन प्रमुख स्रोतों का उल्लेख किया है-
1. विभिन्न प्रलेख- ऐतिहासिक तथ्यों का सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्रोत वे प्रलेख हैं जिनके आधार पर अतीत की घटनाओं को सरलतापूर्वक समझा जा सकता है। ये वे प्रलेख हैं जो इतिहासकार की पहुँच के अन्दर होते हैं, लेकिन इनका प्रयोग करते समय अध्ययनकर्ता को उनके सभी पहलुओं को ध्यान में रखना आवश्यक होता है। यह सम्भव है कि इनके आधार पर किसी निश्चित सिद्धान्त का ज्ञान न किया जा सके, लेकिन इनकी सहायता से सामाजिक दशाओं का ज्ञान अवश्य ही किया जा सकता है। भारत में पाये जाने वाले विभिन्न शिलालेख, अजन्ता-एलोरा की गुफाओं से प्राप्त मूतियाँ, विभिन्न खुदाइयों में मिले कुषाणकालीन, मौर्य और गुप्तकालीन अभिलेख तथा सिक्के आदि, इस प्रकार के प्रलेखों के उदाहरण हैं।
2. सांस्कृतिक, इतिहास तथा विश्लेषणात्मक सामग्री- किसी भी समाज का सांस्कृतिक इतिहास तथा विभिन्न घटनाओं का विश्लेषण करने वाली सामग्री, ऐतिहासिक सूचनाओं का मुख्य स्रोत होती है।
इस सन्दर्भ में पी. वी. यंग ने यह सुझाव दिया है कि ऐसी ऐतिहासिक सामग्री का प्रयोग करने से पहले सामाजिक अध्ययनकर्त्ता को इतिहासकारों से सम्पर्क स्थापित करके, इस स्रोतों को समझने और उसका समुचित प्रयोग करने का प्रयास करना चाहिए। सभी प्रकार की डायरियाँ, प्राचीन धार्मिक ग्रन्थ, आत्मकथायें, गुप्त प्रलेख, व्यापारिक समझौते तथा परम्पराये आदि इसी वर्ग के अन्तर्गत आती हैं।
3. व्यक्तिगत शोध- ऐतिहासिक शोध प्राप्त करने में व्यक्तिगत अध्ययनों एवं शोधकार्य भी महत्वपूर्ण हैं। अध्ययनकर्त्ता से पूर्व किसी शोध को वैयक्तिक शोधकर्ताओं इतिहासकारों तथा पर्यटकों ने जिस रूप में देखा और प्रस्तुत किया है, उसके आधार पर महत्वपूर्ण घटनाओं का ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। यद्यपि ये स्रोत विवाद के कारण हो सकते हैं पर इनकी सहायता से अनेक विश्वसनीय सूचनाये प्राप्त की जा सकती है।
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ऐतिहासिक अनुसंधान का महत्व (Importance of Historical Research)
हॉवर्ड ने इतिहास को अतीत का समाजशास्त्र और समाजशास्त्र को वर्तमान का इतिहास कहा है। सामाजिक घटनाओं के अध्ययन में ऐतिहासिक शोध की आवश्यकता या इसके महत्व को निम्नांकित आधारों पर समझा जा सकता है –
1. अतीत के आधार पर वर्तमान का ज्ञान- ऐतिहासिक शोध एकमात्र ऐसी विधि है जिसके आधार पर अतीत की घटनाओं के आधार पर वर्तमान व्यवहार प्रतिमानों, संस्थाओं, सामाजिक मूल्यों तथा मनोवृत्तियों को सही रूप में समझा जा सकता है।
2. व्यावहारिक उपयोगिता- व्यावहारिक जीवन में ऐतिहासिक विधि विभिन्न प्रकार के अध्ययनों के लिये अत्यन्त महत्वपूर्ण है। यह विधि एक ओर अतीत की घटनाओं से सम्बन्धित तथ्यों के आधार पर वर्तमान जीवन में सुधार कार्यों के लिए एक विशेष दशा होती है, तो दूसरी ओर इसकी सहायता से अतीत के अनुभवों से सबक लेकर वर्तमान की गलतियों को सुधारा जा सकता है। मानव सदैव से ही एक जिज्ञासु और सुधारवादी प्राणी रहा है। सम्पूर्ण इतिहास में कोई भी ऐसा समय नहीं मिलता जब सामाजिक संगठन और विकास के लिए कुछ न कुछ प्रयत्न न किये जाते रहे हों। ऐतिहासिक विधि ऐसे सभी अनुभवों का लाभ उठाकर सामाजिक प्रगति के लिए महत्वपूर्ण आधार प्रदान कर सकती है।
3. अतीत के प्रभाव का मूल्यांकन- प्रत्येक समाज में अतीत की घटनाओं की एक महत्वपूर्ण भूमिका होती है, किन्तु परम्परागत समाजों में सामाजिक जीवन का कोई भी पक्ष ऐसा नहीं होता, जिस पर अतीत की एक स्पष्ट छाप देखने को न मिलती हो। परम्परागत समाजों तथा प्राचीन संस्कृति वाले समाज में किसी भी सामाजिक अध्ययन को तब तक यथार्थ नहीं बनाया जा सकता, जब तक एक विशेष तथ्य या समस्या पर अतीत के प्रभाव का मूल्यांकन न कर लिया जाए। यह कार्य केवल ऐतिहासिक विधि ही कर सकती है।
4. द्वितीयक तथ्यों के संकलन का स्रोत- ऐतिहासिक विधि द्वारा प्राप्त तथ्य द्वितीयक तथ्य के समान ही होते हैं। कोई अध्ययनकर्त्ता जब इस विधि की सहायता से अतीत की घटनाओं का अध्ययन करता है, तो यह अध्ययन द्वितीयक तथ्यों के रूप में अनेक महत्वपूर्ण तथ्य एकत्रित करने में सहायक बन जाता है। इसके पश्चात जब कभी भी शोधकर्ता द्वारा कोई नया शोध कार्य किया जाता है, तो उसकी ये सूचनायें पथ-प्रदर्शक बन जाती हैं।
5. परिवर्तन की प्रकृति को समझने में सहायक- ऐतिहासिक विधि के उपयोग द्वारा सामाजिक, सांस्कृतिक परिवर्तन की प्रक्रिया को समझने में भी अधिक सहायता मिलती है। इतिहास के अध्ययन द्वारा यह सरलतापूर्वक ज्ञात किया जा सकता है, कि परिवर्तन को किन प्रक्रियाओं में से गुजरते हुए समाज को वर्तमान स्वरूप प्राप्त हो सका तथा किन दशाओं के अन्तर्गत परिवर्तन की प्रकृति कैसी थी।
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ऐतिहासिक शोध की सीमायें (Limitations of the Historical Research) –
1. सत्यापन की समस्या- पी.वी यंग के अनुसार शोधकर्ता ऐसी किसी भी ऐतिहासिक तथ्यों की जाँच अथवा परीक्षण नहीं कर सकता, जो विभिन्न सामाजिक परिस्थितियों और संख्याओं का निर्माण करने में सहायक होती है।
2. एकरूपता का अभाव- एतिहासिक विधि के उपयोग के लिए यह जानना अत्यन्तु कठिन होता है कि किन ऐतिहासिक घटनाओं के आधार पर हम एक विशेष परिस्थिति अथवा तथ्य का मूल्यांकन कर सकते हैं। एक ही घटना के बारे में विभिन्न इतिहासकारों के कथनों में इतनी विभिन्नता होती है कि उनमें से सही स्थिति को ज्ञात कर सकना अत्यन्त कठिन होता है।
3. मापन और गणना में अनुपयोगी- ऐतिहासिक शोध का एक दोष यह भी है कि सांख्यिकीय पद्धति की तरह इसमें तथ्यों की माप व गणना कर सकना सम्भव नहीं होता। ऐतिहासिक तथ्य अपनी प्रकृति से विवरणात्मक होते हैं। इस तरह माप और गणना के अभाव में ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर दिये गये निष्कर्ष अधिकतर त्रुटिपूर्ण हो जाते हैं।
4. विश्वसनीयता और वस्तुनिष्ठता की समस्या – ऐतिहासिक शोध की एक कमी यह है कि इसके अन्तर्गत प्रयोग में लाये जाने वाले तथ्य अधिक विश्वसनीय नहीं होते। ऐतिहासिक तथ्यों का संकलन प्रायः इतिहासकारों द्वारा होता है और किसी भी घटना से सम्बन्धित तथ्य को अपने अनुसार प्रस्तुत करता है जिससे अनेक ऐसे तथ्य छूट जाते हैं जो सामाजिक अध्ययनों के लिए अत्यन्त उपयोगी हो सकते हैं। अतः इतिहासकारों का पक्षपातपूर्ण दृष्टिकोण भी ऐतिहासिक तथ्यों की वस्तुनिष्ठता के मार्ग में बाधक बन जाता है।
5. अपूर्ण तथा बिखरे हुये तथ्य- बहुत से प्रलेख और शिलालेख इतने प्राचीन होते हैं कि या तो उनका अधिकतर भाग नष्ट हो चुका होता है या उनके आधार पर सही स्थिति को समझना अत्यन्त कठिन होता है। विभिन्न स्थानों एवं कालों में समान प्रकृति की घटनाओं का रूप भी भिन्न होता है। हमारे सम्मुख कठिनाई यह आती है कि हम किस स्थान और किस समय की घटनाओं को सही मानें इसी प्रकार तथ्यों की अपूर्णता और उनके बिखरे होने के कारण अध्ययन में अधिक समय, धन, श्रम भी लगता है तथा कभी कभी उनके आधार पर घटनाओं के कार्य-कारण सम्बन्ध को समझना भी कठिन हो जाता है।
उपर्युक्त सीमाओं के कारण ही ऐतिहासिक विधि द्वारा किये गये अध्ययनों का विश्लेषण, व्याख्या या निष्कर्ष उतना यथार्थ नहीं होता जितना कि दूसरी विधियों द्वारा प्रस्तुत विश्लेषण व निष्कर्ष ।
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