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जातिवाद के परिणाम
जातिवाद के परिणाम- पनपता हुआ जातिवाद का रोग भारत को कई तरह से हानि पहुँचाता रहा है। अस्तु जातिवाद के भयंकर परिणाम देखने में आ रहे हैं। इसके प्रमुख परिणाम निम्नलिखित हैं
1. औद्योगिक कुशलता में बाधा
जातिवाद के आधार पर जो नियुक्तियों की जाती हैं, उसमें अधिकतर व्यक्ति अयोग्य तथा अकुशल होते हैं। इसका दुष्परिणाम यह होता है कि योग्य और कुशल श्रमिक व्यर्थ में मारा-मारा फिरता है। इस प्रकार की भावना से यह वाद और भी बढ़ जाता है। इस प्रकार फैक्ट्री, मिल आदि जातिगत बनते जा रहे हैं।
2. जातिगत संस्थायें
विभिन्न संस्थायें चाहे वह स्कूल, चिकित्सालय या और कुछ हो, जब जाति – के आधार पर चलाई जाती हैं और अपनी ही जाति के व्यक्तियों को उसमें सुविधा देने का प्रयत्न किया जाता है तो समाज के अन्य वर्गों के मध्य कटुता की भावना बढ़ती है। इससे जातिवाद बढ़ता है।
3. अपराधों में वृद्धि
वे तमाम योग्य व्यक्ति जिन्हें जातिवाद ने रोटी और जीविका नहीं दी वे शांतिपूर्वक कभी नहीं बैठते हैं। उनकी कुठाएँ जाने किन-किन स्रोतों से प्रस्फुटित होती हैं, वे कितने भयंकर साबित हॉ, यह कौन जानता है। कभी हम यह देखते हैं कि पढ़े-लिखे लोगों का गिरोह डाकू बन गया। कभी-कभी हम यह पाते हैं कि अमुक व्यक्ति जो योग्य था उसके स्थान पर किसी अयोग्य व्यक्ति की नियुक्ति कर दी गई हैं। इसलिए योग्य व्यक्ति ने आत्महत्या कर ली। इसके अतिरिक्त दो विभिन्न जातियों के मध्य जो ईर्ष्या पाई जाती है। उनमें बहुत कुछ हाथ जातिवाद का भी होता है। गाँव में तो अक्सर ठाकुर-पासी पासी-ब्राह्मण, ब्राह्मण-ठाकुर या अन्य जातियों के मध्य लड़ाई-झगड़े चलते ही रहते हैं। इससे जातिवाद में वृद्धि हुई।
4. देश की एकता में बाधक
जातिवाद ने देश के व्यक्तियों को विभिन्न वर्गों में विभाजित कर दिया है। ये वर्ग अपने हित एवं स्वार्थ की बात अधिक सोचते हैं। प्रत्येक व्यक्ति अपनी जाति की उन्नति के लिए अधिक सोचता है न कि राष्ट्र की उन्नति के लिए। इसका परिणाम यह हुआ कि सम्पूर्ण देश में जो एकता होनी चाहिए वह, विभिन्न वर्गों में विभाजित हो गई।
5. नैतिक पतन
मनुष्य जब जातिवादी बन जाता है, तब वह अपनी जाति की उन्नति उचित व अनुचित दोनों ही तरह से करता है। इसका उद्देश्य केवल अपनी जातियों के व्यक्तियों का उत्थान करना है। इसके लिए वह गन्दे से गन्दा कार्य करने के लिए प्रस्तुत रहता है। उसके लिए उचित वही है जो उसकी जाति का भला करे और अनुचित वह है जो उसकी जाति का भला नहीं करता है। इस प्रकार व्यक्तियों का नैतिक पतन जातिवाद के प्रभाव से निरन्तर होता जा रहा है। दूसरे शब्दों में हम यह कह सकते हैं कि नैतिकता नाम की कोई वस्तु रह ही नहीं गई है। अब नैतिकता और नैतिक आचरण शब्दकोश तक ही सीमित हैं। इसमें जातिवाद की बहुत बड़ी भूमिका है।
6. धर्म परिवर्तन का प्रेरक
भारतीय दार्शनिकों ने चार वर्णों को जन्म दिया। शूद्र वर्ण को समाज में इतना नीचा स्थान दिया गया कि वह मनुष्य होते हुए भी पशु-तुल्य रहा। इसी प्रकार अनेक अन्य जातियों की दशा निम्न थी। उनकी निम्न और हेय सामाजिक स्थिति ने उन्हें ईसाई और मुसलमान बन जाने की प्रेरणा दी। लाखों की संख्या में निम्न जातियों के व्यक्ति मुसलमान बन गये। यह यहाँ के कठोर, स्वार्थी जातिवाद का ही परिणाम है।
7. देश की उन्नति में बाधक
जातिवाद ने व्यक्तियों को वर्गों में विभाजित किया। यह वर्ग अपने की उन्नति में अधिक रुचि रखते हैं राष्ट्र और देश की उन्नति में कम। वे तमाम निम्न जातियाँ जो सदियों से शोषित की गई हैं, आज अपनी जाति की उन्नति के लिए प्रयत्नशील हैं। देश की उन्नति हो या न हो इसकी उन्हें चिन्ता नहीं। जातिवाद देश की सामान्य उन्नति में आज बाधक है।
8. प्रजातंत्र के लिए हानिकारक
वस्तुतः जातिवाद और प्रजातंत्र दोनों ही एक-दूसरे के विपरीत है। प्रजातंत्र के अन्तर्गत सभी व्यक्ति चाहें, वे किसी जाति के हों, समान हैं जबकि जातिवाद स्वार्थ, वर्ग का हित, जातीयता, असमानता आदि पर निर्भर करता है। जिस देश में प्रजातंत्रात्मक राज्य है, वहाँ अगर जातिवाद पनप रहा है तो संभवतः उस देश में प्रजातंत्र की उन्नति नहीं हो सकती है।
9. वैयक्तिक विघटन
ऐसे देश में जहाँ जाति के आधार पर अयोग्य लोगों की नियुक्तियों की जाती हैं और योग्य व्यक्तियों को बेकार रखा जाता है, उस देश के व्यक्तियों में निराशा, कुण्ठा और जाने कितने मानसिक रोग घर कर जाते हैं। यह सब एक साथ मिलकर उस व्यक्ति को विक्षिप्त बना देते हैं। इनसे ऊब कर कभी वह आत्महत्या कर बैठता है और कभी वह गंभीर अपराधी बन बैठता है।
10. सम्पूर्ण देश के विघटन का कारक
उपर्युक्त सभी दुष्परिणाम इस ओर संकेत करते हैं कि जातिवाद के आधार पर नियुक्तियाँ, सुविधाएँ, अपराध, पक्षपात, व्यक्तिगत विघटन, धर्म का ह्रास आदि को जन्म देते हैं। ये कारक देश को विघटित करते हैं। ये समस्त कारक जहाँ एक ओर जातिगत संगठन और संघ को जन्म देते हैं, वहीं दूसरी ओर दूसरे प्रकार के संगठनों और संघों को जन्म देते हैं जो एक-दूसरे के विपरीत कार्य करते हैं। इस सबका सामूहिक परिणाम समाज और देश का विघटन है।
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