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जयशंकर प्रसाद के काव्य की विशेषताएँ
‘आँसू’ में प्रसादजी ने जिस प्रेम के स्वरूप का निरूपण किया है, वह अलौकिक न होकर लौकिक है। उसका आधार उनकी प्रेयसी है। प्रथम मिलन, रूपासक्ति से प्रेम में सघनता, क्षणिक मिलन जो महामिलन के समान था- उसके बाद वियोग, वियोग-व्यथा में अत्यधिक तड़पन और विह्वलता और अन्त में वियोग-वेदना का चरम सीमा पर पहुँचकर समस्त सृष्टि एवं मानवता की वेदना के अनुभव में ‘आँसू‘ के प्रेम का विकास हुआ है। प्रेम का यह स्वरूप प्रवासजन्य वियोग का है, जिस पर करुणा का अंच लहराता है। ‘आँसू’ में वियोग-जन्य मानवी-प्रेम का विकास क्रमिक सोपानों में हुआ है। वह लौकिक धरातल से उठकर अन्त में विश्व-जनीन बन गया साथ ही अलौकिकता के क्षितिज का भी स्पर्श करने लगा। प्रणय की अभिव्यक्ति में भावुकता की अतिशयता अवश्य है, परन्तु वेदना की अनुभूति से निकले हुए उद्गार कहीं भी अस्वाभाविक नहीं होने पाये हैं। विरह की निःश्वासें माह मास में लपटें बनकर न तो विधाता की सृष्टि की चौपट करती हैं और न गर्मी के दिनों में वियोगिनी के मुहल्ले के लोगों में भगदड़ ही मचती है, अपितु ‘आँसू’ में वेदना-ज्याला शीतल है, जो विश्व-मंगल के लिये अपनी अभिलाषाओं का वर्णन करती है। इससे अधिक स्वस्थ और क्रमिक प्रणय का विकास कहाँ हो सकता है। अतः यह कहना सत्य नहीं है कि भावुकता की अतिशयता के कारण ‘आँसू’ में प्रणय का सहज- स्निग्ध रूप नहीं उभरा है।
“प्रसादजी प्रेम और सौन्दर्य के कवि हैं। उन्होंने हिटमैन के समान ‘स्थूल’ के प्रति आसक्ति प्रदर्शित की है। उनका प्रेम सीमा में पहुँचकर ‘परिरम्भ कुम्भ की मदिरा पीना चाहता है, विश्वास के झोके खाना चाहता है, मुखचन्द्र चाँदनी-जल से अपना मुँह धोना चाहता है, और अपने ‘आश्रय’ के साथ परम सौन्दर्य के दर्शन कर आनन्द की अजस्र वर्षा में लीन हो जाना चाहता है।” -डॉ० विनयमोहन शर्मा
परिरम्भ कुम्भ की मदिरा, विश्वास मलय के झोंके ।
मुख चन्द्र चाँदनी जल से, मैं उठता था मुँह धोके ।
थक जाती थी सुख रजनी, भुख चन्द्र हृदय में होता।
श्रम सीकर सदृश नखत से, अन्तर पट भीगा होता।
आँसू में “विशुद्ध मानवी आसक्ति को परम- प्रेम में ढाल देने की वृत्ति कवि के (प्रेमी के) स्वर को बहुत ऊँचा उठा देती है। -डॉ० विनयमोहन शर्मा
‘आँसू’ में प्रेम-भावना के सम्बन्ध में श्री रामनाथ सुमन का निम्न कथन द्रष्टव्य है ‘आँसू में कवि ने मानव जीवन का वह सत्य, जो जीवन की समस्याओं के बीच दबकर कुंठित नहीं हो जाता, प्रस्तुत कर उन सबसे रस लेकर पुष्ट एवं जागृत होता है, व्यक्त किया है।
कवि का प्रिय से मिलन हुआ था, वह मिलन क्षणिक था, परन्तु उसमें इतना आह्लाद और आकर्षक था कि कवि के लिये वह महामिलन ही था। प्रिय नियुक्त हो गया। कवि के हृदय में उस महामिलन के अब कुछ चिह्न ही शेष रह गये हैं
ये सब स्फुलिंग हैं मेरी, इस ज्वालामयी जलन के
कुछ शेष चिन्ह हैं केवल मेरे उस महामिलन के।
प्रेम का प्रारम्भ रूपासक्ति से ही हुआ। कवि का प्रिय नैसर्गिक सुषमा से मंडित है। साथ ही “प्रीति पुरातन लखै न कोई” की भी बात है। वह कवि को मिलन के प्रथम क्षण में ही न जाने कब का परिचित लगता है। प्रिय स्वयं मिलन हेतु आता है, यह प्रेमी के लिए गौरव की वस्तु है। वह उसे उठता देखते ही इठला उठता है :
गौरव था नीचे आये, प्रियतम मिलने को मेरे ।
मैं इठला उठा अकिंचन, देखे ज्यों स्वप्न सबेरे।
मधुराका मुसक्याती थी, पहले देखा जब तुमको ।
परिचित से जाने कब के, तुम लगे उसी क्षण हमको ।
प्रिय के मिलन से पूर्व प्रेमी का हृदय-उपवन सूखा था। प्रिय ने आकर उसमें सरसता भर दी। प्रसादजी ऐसे शाश्वत सौन्दर्य में विश्वास करते हैं, जो रूप की सीमा है। वह उनका प्रिय ही है, जो उनके मन के निस्सीम गगन में समा गया था:
माना कि रूप सीमा है, सुन्दर ! तब चिर यौवन में।
पर समा गये थे मेरे, मन के निस्सीम गगन में ।
प्रसादजी पार्थिव प्रेम के स्वस्थ रूप को ही प्रस्तुत करते हैं। प्रिय का मिलन सुख असीम आह्वाद दे रहा है। प्रकृति भी प्रेम के आह्लाद में सुख देती है। “द्रुमदल किसलय हिलते हैं, डाले उनके गलबाहीं डाल देती हैं और फूलों का चुम्बन लेकर मधुर तान छेड़ देते हैं।”
प्रिय का क्षणिक मिलन जो प्रेमी के लिए महामिलन था, चिर वियोग में परिवर्तित हो जाता है। संयोग क्षणों का प्रेम जितना मादक और आह्लादपूर्ण था, उतनी ही तीव्र वियोग-वेदना हृदय को सालती है। प्रेमी पुकार उठता है-
छिप गयीं कहाँ छूकर वे, मलयज की मृदुल हिलोरें ।
क्यों घूम गयी हैं आकर, करुणा-कटाक्ष की कोरें ।
हीरे-सा हृदय हमारा, कुचला शिरीष कोमल ने।
हिम शीतल प्रणय अनल बन लगा विरह में जलने ।
प्रेमी की विरह-वेदना बढ़ती जाती है, वह आँसू बनकर उसके नेत्रों से बरसने लगती है। विरह-वेदना चरमोत्कर्ष पर पहुँचकर जलती हुई विश्व मन्दिर का मणिदीप बन जाती है:
मणिदीप विश्व मन्दिर की, पहने किरणों की माला।
तुम एक अकेले तब भी, जलती हो मेरी ज्वाला ।
उसकी विरह-वेदना का उदात्तीकरण होकर इतना अधिक प्रसार हो जाता है कि वह उसे संसार में व्याप्त देखने लगता है। उसे अपने समान ही सारी सृष्टि व्यथित दिखाई पड़ती है। वह उसे ‘व्यथित विश्व पतझड़ की जलती हुई मृदु होली’ और ‘मानवता के सिर की रोली’ कहता हुआ उससे आग्रह करता है कि वह जीवन-सागर में बड़वानल की ज्वाला- सी जलकर संसार का सारा कलुष जला दे
इस व्यथित विश्व पतझड़ की, तुम जलती हो मृदु होली ।
हे अरुणे ! सदा सुहागिनि, मानवता सिर की रोली।
जीवन-सागर में पावन, बड़वानल की ज्वाला-सी।
यह सारा कलुष जलाकर, तुम जली अनल बाला-सी।
जग-द्वन्द्वों के परिणय की, हे सुरभिमयी जयमाला ।
किरणों की केसर रज से, भव भर दो मेरी ज्वाला ।
कवि का प्रेम व्यष्टि की सीमा से निकल कर समष्टि का प्रेम बन जाता है। उसकी वेदना विश्व की वेदना बन जाती है और अन्त में अपनी प्रेम-वेदना का वह समस्त जड़-चेतन सृष्टि में प्रसार करता हुआ मानवता के लिये विपुल वरदानों की वर्षा करने की अभिलाषा करने लगता है-
सबका निचोड़ लेकर तुम, सुख से भूखे जीवन में ।
बरसो प्रभात हिम कण-सा, आँसू इस विश्व – सदन में ।
यह ‘आँसू का आदर्श प्रेम जो लौकिक धरातल से उठता है और विरह-वेदना की ज्वाला तपकर अलौकिकता की क्षितिज को स्पर्श करता हुआ विश्व-संवेदना में परिणित हो जाता में है। प्रेम-निरूपण में आद्यन्त निर्मलता रही है और उसका विकास भी अनुभूति की गहरी घाटियों से होकर क्रमिक हुआ है। इस प्रकार ‘आसू’ प्रेम-वेदना का वह अथाह सागर बन गया है, जिसमें गोता लगाकर पाठक रस मग्न होता है, परन्तु उसका थाह नहीं पाता। ‘आँसू’ में प्रेम-वेदना के सागर में उठी हुई उत्ताल तरंगें पाठकों को सराबोर कर देती हैं।
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